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देश में अपस्फीति बनने का भय बढ़ा

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- विट्ठल नागर
यह भय व्यक्त किया जाने लगा है कि देश में कहीं अपस्फीति (डिफ्लेशन) की हालत पैदा न हो जाए, क्योंकि एक ओर रिजर्व बैंक प्रणाली में मुद्रा का प्रवाह बढ़ा रही है एवं केंद्र सरकार उद्योगों को उबारने के लिए एक के बाद दूसरी एकमुश्त योजना प्रस्तुत करने वाली है। अपस्फीति का मतलब है एक ओर प्रणाली में मुद्रा का समुद्र लहराना एवं दूसरी ओर ब्याज दर घटने पर भी उपभोक्ता माँग घटना, उद्योगों का उत्पादन घटना तथा बेरोजगारी की दर बढ़ना एवं वस्तुओं के भाव घटना।

अपस्फीति की स्थिति मुद्रास्फीति से ठीक उल्टी होती है। मुद्रास्फीति में वस्तुओं के
  ऊँची ब्याज दर होते हुए भी तब बैंक कर्ज के लिए माँग बहुत बढ़ी-चढ़ी थी, इसलिए बैंकें जमा रकमों पर ब्याज दर बढ़ाकर अधिक से अधिक जमा रकमें एकत्र कर रही थीं। इसे ही महँगे रुपए की नीति कहते हैं      
भाव बढ़ते हैं, क्योंकि उपभोक्ता माल के अभाव के बावजूद अधिक भाव देकर खरीदना चाहते हैं एवं उद्योगों को उत्पादन बढ़ाने का बढ़ावा मिलता है, जिससे रोजगार की दर बढ़ती है।

बाजार में वस्तुओं की तुलना में पैसा अधिक होता है, जिससे हर चीज के भाव बढ़ जाते हैं और उससे महँगाई बढ़ती है। ऐसे में केंद्रीय बैंक मुद्रा के फैलाव को घटाने के उपाय करता है, किंतु अपस्फीति में उत्पादन कम होने लगता है, कारखाने बंद होने लगते हैं, जिससे छँटनी व बेरोजगारी बढ़ती है और उपभोक्ता माँग घट जाती है। इससे अंततः वस्तुओं के भाव घटते हैं।

उपभोक्ता माँग को बढ़ावा देने के लिए केंद्रीय बैंक प्रणाली में अधिक रुपए झोंकता है, ब्याज दर घटाता है एवं कर्ज पर लगे सख्त प्रतिबंधों को हटाता है। अभी सरकार व केंद्रीय बैंक ऐसा ही कर रहे हैं। देश में अगस्त 2008 तक मुद्रास्फीति की स्थिति थी, इसलिए तब बैंक सीआरआर दर 9 प्रश थी (अब 5.5 प्रतिशत), रिवर्स रेपो की दर 8 प्रतिशत थी (अब 6.5 प्रश), एसएलआर की दर 25 प्रतिशत थी (अब 24 प्रतिशत) एवं बैंकों की ब्याज दर (बैंक कर्ज पर वसूली जाने वाली दर) ऊँची थी।

ऊँची ब्याज दर होते हुए भी तब बैंक कर्ज के लिए माँग बहुत बढ़ी-चढ़ी थी, इसलिए बैंकें जमा रकमों पर ब्याज दर बढ़ाकर अधिक से अधिक जमा रकमें एकत्र कर रही थीं। इसे ही महँगे रुपए की नीति कहते हैं। महँगे रुपए की नीति वर्ष 2004 से अमल में लाई गई एवं वर्ष 2006 तक यह अधिक से अधिक सख्त बन गई।

वास्तव में दो वर्षों में केंद्रीय बैंक (रिजर्व बैंक) ने प्रणाली से जितना पैसा खेंचा, उससे करीब 20000 करोड़ रु. अधिक अर्थात करीब 1 लाख 80 हजार करोड़ रु. महज एक माह से कम समय में पुनः बाजार में बहाया है। अक्टूबर से दिसंबर के केवल 43 दिनों में उसने बैंक सीआरआर की दर 9 प्रतिशत से घटाकर 5.3 प्रतिशत कर दी।

इससे बैंकों की नकदी में 1 लाख 80 हजार करोड़ का इजाफा कर दिया, ताकि वे उद्योग व व्यापार को अधिक कर्ज दे सकें। इसके अलावा उसने एसएलआर की दर 25 प्रतिशत से घटाकर 24 प्रतिशत कर दी, जिससे रिजर्व बैंक में जमा बैंकों के 1 लाख 20 हजार करोड़ रु. रिजर्व बैंक के कब्जे से मुक्त होकर बैंकों के पास आ गए।

अब केंद्र सरकार रिजर्व बैंक से कह रही है कि जिन बैंकों ने एसएलआर के तहत आवश्यकता से अधिक धन सरकारी प्रतिभूतियों में रोक रखा है- उन्हें बैंकों से मुक्त करने के लिए कहें, ताकि वे अधिक कर्ज बाँटे। अगर बैंकें बढ़े-चढ़े एसएलआर को 24 प्रतिशत की सीमा में लाती हैं तो उससे बैंकों की नकदी में 1 लाख 20 हजार करोड़ रु. की और वृद्धि हो जाएगी। वैसे रिजर्व बैंक शीघ्र ही सीआरआर दर में एक प्रतिशत की और कमी करने वाली है एवं रिवर्स रेपो की दर घटाने वाली है, ताकि बैंकें अपने आधिक्य के कोष कम ब्याज पर रिजर्व बैंक को देने से हिचकिचाहट दिखाएँ।

इससे उद्योग व व्यापार को अधिक कर्ज देने के लिए वे बाध्य होंगी। इन तमाम प्रयासों से
  बैंकों को डर है कि उनके द्वारा दिया गया कर्ज डूबत खाते न चला जाए, इसलिए वे अधिक जोखिम उठाने के लिए तैयार नहीं हैं अर्थात मुद्रा संकुचन की स्थिति न होते हुए भी कर्ज के अभाव की स्थिति बनी हुई है      
बैंकों की नकदी में कुल मिलाकर 3 लाख करोड़ रु. की वृद्धि हो सकती है, किंतु इस वृद्धि के बावजूद उद्योग बैंक कर्ज के प्यासे रहें तो देश में अपस्फीति की स्थिति बनेगी ही, जो कि दुःखदायी होगी। वैसे आज भी उद्योगों को पूर्ता कर्ज नहीं मिल रहा है।

उद्योगों की परेशानी यह है कि अब तक वे भारत में बैंकों से बढ़े कर्ज माँगने की बजाय विदेशी पूँजी बाजार से बहुत ही सस्ती दर पर विदेशी मुद्रा के भारी कर्ज जुटा लेते थे, किंतु आज दुनिया की बड़ी-बड़ी बैंकों (विदेशी) की हालत बहुत खस्ता है, जिससे अंतरराष्ट्रीय मुद्रा बाजार गड़बड़ा गया है।

इसलिए अब दीर्घ अवधि के परियोजना कर्ज व मध्यम व अल्प अवधि के कामचलाऊ पूँजी खर्च व दैनंदिनी खर्च के लिए बैंकों से कर्ज चाहते हैं, किंतु देश की बैंकें उन्हें कर्ज देने से पहले उनकी साख की नाप-जोख करती हैं एवं कर्ज देने में हिचकिचाहट दिखाती हैं। उपभोक्ता माँग घटने से उद्योग वैसे ही त्रस्त हैं। ऐसे में बैंकों का रुख उन्हें पस्त-हिम्मत कर रहा है। बैंकों को डर है कि उनके द्वारा दिया गया कर्ज डूबत खाते न चला जाए, इसलिए वे अधिक जोखिम उठाने के लिए तैयार नहीं हैं अर्थात मुद्रा संकुचन की स्थिति न होते हुए भी कर्ज के अभाव की स्थिति बनी हुई है।

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