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रुपए की विशेषता

रुपए का बहुरूपियाई चरित्र

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विष्णुदत्त नागर

, सोमवार, 4 जून 2007 (02:31 IST)
रुपए के चरित्र की विशेषता यह है कि पूर्व में जब कभी रुपया मजबूत हुआ, भारतीय रिजर्व बैंक बाजार में हस्तक्षेप कर स्वयं और सार्वजनिक बैंकों द्वारा डॉलर की खरीदी कर डॉलर की माँग में वृद्धि करती थी ताकि रुपए का मूल्य नीचा कायम रखा जा सके। भारतीय रिजर्व बैंक की नीति थी कि रुपए की विनिमय दर एक सीमा के बाद न उठे।

भारतीय रुपए का चरित्र भी कितना विचित्र है- देश के बाहर मजबूत और अंदर कमजोर। कल 25 अप्रैल को विदेशी मुद्रा बाजार में रुपया पिछले नौ वर्षों के रिकॉर्ड को पार कर प्रति डॉलर 41.77 रुपए हो गया। देश के अंदर मुद्रास्फीति पुनः बढ़कर 6.09 प्रतिशत तक हो गई। दूसरे शब्दों में एक महीने के अंतराल में प्रति डॉलर विनिमय दर डेढ़ रुपए घटने से रुपया और भी सस्ता हो गया, लेकिन देश के अंदर महँगाई के कारण कम वस्तुएँ ही खरीदी गईं। यह स्पष्ट कर दिया जाए कि रुपया मजबूत और डॉलर कमजोर होने से आयात सस्ते होते हैं और निर्यात महँगे होते हैं।

रुपए के चरित्र की दूसरी विशेषता यह है कि पूर्व में जब कभी रुपया मजबूत हुआ, भारतीय रिजर्व बैंक बाजार में हस्तक्षेप कर स्वयं और सार्वजनिक बैंकों द्वारा डॉलर की खरीदी कर डॉलर की माँग में वृद्धि करती थी ताकि रुपए का मूल्य नीचा कायम रखा जा सके। भारतीय रिजर्व बैंक की नीति थी कि रुपए की विनिमय दर एक सीमा के बाद न उठे। प्रश्न उठता है कि इस बार भारतीय रिजर्व बैंक ने भारतीय निर्यातों पर प्रतिकूल असर पड़ने के बावजूद हस्तक्षेप क्यों नहीं किया? यदि आयात सस्ते कर मुद्रास्फीति के दबाव को कम करना इसका लक्ष्य था तो मुद्रास्फीति 7 प्रतिशत को छूने के निकट आ गई थी तब रुपए को मजबूत करने की ओर अपनी नीति को क्यों नहीं मो़ड़ा? संभवतः इसका उत्तर है- उत्तरप्रदेश का चुनाव और विदेशी मुद्रा बाजार का मनोविज्ञान।

भारतीय रिजर्व बैंक 9 प्रतिशत विकास की दर के संदर्भ में आम जनता को रुपए की ताकत और ऊँचाइयों का अहसास कराना चाहती है। उसे निर्यातकों की कठिनाइयाँ और गिरती आय की चिंता नहीं। गत वर्ष की जुलाई के 47.04 रुपए से अप्रैल 2007 तक रुपए को 12 प्रतिशत उठने दिया। भारतीय निर्यातकों की सदैव माँग रही है कि रुपया सदैव प्रति डॉलर 45 रुपए से ऊपर बना रहे। इसका कारण यह है कि विनिमय दर में 1 प्रतिशत की वृद्धि से निर्यातकों का निर्यात लाभ 30 से 60 बिन्दु घट जाता है, लेकिन कच्चे माल और पूँजीगत वस्तुएँ सस्ती होने से देश के ब़ड़े निर्यातक उद्योगों को उत्पादन लागत कम करने में सहायता भी मिलती है। साथ ही विदेशी वस्तुओं के उपभोक्ता भी लाभान्वित होते हैं।

रुपया मजबूत होने से देश के आंतरिक बाजार में तेल, पेट्रोल, केरोसिन और गैस की कीमत तथा मुद्रास्फीति दर कम रखने में सहायता मिलती है। इसके अलावा रुपए की मजबूती से विदेशों में यात्रा करने वाले लोगों को अब डॉलर सस्ता मिलेगा। पूर्व में यात्रियों को एक डॉलर के मुकाबले में 46 रूपए चुकाने होते थे, अब उन्हें 42 रु. से भी कम देना होगा।

भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर डॉ. वेणुगोपाल रेड्डी के अनुसार विनिमय दर बाजार आधारित होती है। देश की अर्थव्यवस्था पर मुद्रास्फीतिकारी दबाव पड़ने का विदेशी विनिमय दर नीति से कोई लेना-देना नहीं है। रुपया-डॉलर विनिमय दर माँग और पूर्ति मूल्य पर आधारित होने के कारण बैंक ने डॉलर के मुकाबले रुपए की कोई सीमा तय नहीं की है, लेकिन अमेरिका के बढ़ते वित्तीय घाटे और उत्तरप्रदेश के चुनाव को देखते हुए डॉलर के साथ रुपए की मजबूती जारी रखी जा सकती है। ऐसे में अमेरिका के पूँजीगत सामानों का आयात सस्ता पडे़गा और वहाँ के निर्यात बढ़ेंगे।

यह भी सुझाव है कि यूरो, येन और पौंड के मुकाबले रुपया और कमजोर होने से इन देशों से सामान खरीदना महँगा प़ड़ेगा। लेकिन भविष्य में निर्यात चुनौतियाँ और संभावनाओं को देखते हुए निर्यातक संगठनों की ओर से रुपए पर लगाम कसने की माँग जोर पक़ड़ने लगी है। निर्यातक संगठनों का मानना है कि अगर रुपए की मजबूती ऐसे ही जारी रही तो अमेरिकी बाजार में भारतीय माल महँगा होने से निर्यात आय बुरी तरह प्रभावित होगी। बड़े निर्यातक वायदा बाजार का सहारा लेकर 6 महीने से लेकर साल भर तक जोखिम कम कर सकते हैं, लेकिन हाजिर व्यापार पर निर्भर रहने वाले छोटे निर्यातक निर्यात घटने का आघात नहीं सह पाते हैं।

रुपया मजबूत होने से वस्त्र उद्योग से जुड़ी कंपनियाँ, परिधान, आभूषण, हस्तशिल्प, चमड़े के सामान, इंजीनियरिंग सामान, ऑटोमोबाइल, कलपुर्जे, सूचना प्रौद्योगिकी प्रमुख रूप से आहत होते हैं। परिधान निर्यातकों की प्राप्तियाँ एक वर्ष में दस प्रश कम हुई हैं। परिधान निर्यात का 60 प्रतिशत निर्यात अकेले अमेरिकी बाजार में होने से रुपए की मजबूती से परिधान निर्यातकों का एक वर्ष में 10 प्रतिशत का नुकसान हुआ है। इसी प्रकार वस्त्र उद्योग भी निर्यात लक्ष्यों में 20 प्रतिशत की कमी होने के प्रति आशंकित है। चीन द्वारा कृत्रिम तरीके से मुद्रा को नीचे कायम रखने के कारण निर्यातकों को बाजार में कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है। यह सही है कि पूँजीगत माल और उपकरणों की कीमत सस्ती होने से उत्पादन लागत घटेगी, लेकिन दक्षिण कोरिया, थाईलैंड, चीन के मुकाबले फिर भी भारतीय वस्तुएँ कम प्रतिस्पर्धी होंगी।

निर्यातकों की एक और शिकायत है कि निर्यात बिल घटने और भुगतान होने के समय में डॉलर सस्ता होने से ज्यादा घाटा होता है जिसकी भरपाई किसी भी हालत में नहीं हो सकती। संवेदनशील वस्तुओं के निर्यात के लिए सबसे ज्यादा खतरा है और वह भी जबकि चीन और दक्षिण कोरिया अपने उत्पादों को काफी कम कीमत पर बेचने को आमादा हैं। चिंता का विषय यह भी है कि डॉलर कमजोर होने और रुपया मजबूत होने से भारत का व्यापार घाटा बढ़ेगा। कमजोर डॉलर और मजबूत रूपए के कारण विदेशी मुद्राकोष प्रबंधन में अतिरिक्त चुनौतियाँ पैदा हुई हैं और डॉलर से होने वाली प्राप्तियाँ घटी हैं।

यद्यपि निर्यातकों ने अपनी लागत और लाभ कम करके तमाम चुनौतियों के बावजूद निर्यात की वृद्धि दर बनाए रखी, लेकिन अब वे अधिक समय तक कायम नहीं रख सकते। सरकार को मदद के लिए आगे आना ही पड़ेगा। कब तक वे जेब पर बोझ डालकर निर्यात की वृद्धि दर बनाए रखेंगे? निर्यात संगठनों का मानना है कि डॉलर रुपए की विनिमय दर कम से कम छः महीने के लिए सीमित दायरे में रखी जाए और तय सीमा से ज्यादा रुपए की मजबूती को तुरंत रोका जाए।

निर्यातक कंपनियों की एक परेशानी यह भी है कि वे अप्रैल में अपनी वार्षिक रिपोर्ट प्रस्तुत करती हैं और उनमें से अधिकांश बाजार से ऋण उगाहने का कार्यक्रम निर्धारित करती हैं। घरेलू बाजार में ब्याज की दर बढ़ने से ये कंपनियाँ विदेशी बाजार में ऋण उगाहने की ओर मुड़ सकती हैं, जहाँ यूरो, येन और पौंड के मुकाबले रुपया कमजोर होने से ऋण लागत बढ़ेगी।

इन संदर्भों में सवाल उठता है कि भारतीय रुपया कब तक और किस सीमा तक मजबूत होगा? उत्तर हाँ और ना दोनों हो सकते हैं। रुपए की मजबूती जहाँ एक ओर देश की आंतरिक मुद्रास्फीति बढ़ने की दर पर निर्भर करेगी, वहीं दूसरी ओर भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा विदेशी मुद्रा बाजार के स्तक्षेप, गिरते हुए डॉलर की खरीदी, पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में वृद्धि तथा शेयर बाजारों की कमजोरी से रुपया कमजोर हो सकता है।

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