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एक दीवार गिरी, बेशुमार फासले मिटे

जर्मन एकीकरण दिवस पर विशेष

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- अनवर जे अशरफ
हथौड़े की पहली चोट ने उसे कमजोर बना दिया और अगली चोट और भी हिल दिया। फिर तो चोट पर चोट पड़ने लगी। इंसानी जज्बात के आगे फौलाद ने घुटने टेक दिए। बर्लिन की दीवार गिर गई। फासलों को मिटे 20 साल पूरे।

दूसरे विश्वयुद्ध ने दुनिया बाँट दी थी और साथ ही बाँट दिया था जर्मनी को, नाते-रिश्तेदारों को और समाज को, लेकिन जब इससे भी मन नहीं भरा तो सरहद के साथ ईंट गारे और इस्पात की दीवार खड़ी कर दी गई। जर्मनी की राजधानी बर्लिन 1961 में दो हिस्सों में बँट गई। शहर के बीचों-बीच वह दीवार खड़ी हो गई, जो हमेशा नफ़रत और हिकारत भरी नजर से देखी जाती रही।

मैं इधर, तुम उधर : बीच-बीच में इनसानी जज्बात हिलोरें मारता, तो दीवार कमजोर पड़ जाती। माँ की ममता उस पार अपने बच्चे से मिलने को तड़प उठती या प्यार में डूबा कोई प्रेमी दीवार के इस पार अपनी प्रेमिका से मिलने को मचल जाता। ऐसे मौक़ों पर पता चलता कि इस दीवार में वह दम कहाँ।

शीत युद्ध के जमाने में दुनिया को साफ तौर पर दो हिस्सों में बाँटने का काम यही बर्लिन की दीवार करने लगी। पूर्वी जर्मनी पूरी तरह सोवियत संघ के इशारों पर चला करता था। उसकी मदद और उसी पूर्व सोवियत संघ की योजना से तैयार इस दीवार ने एक तरह से अमेरिकी नेतृत्व वाली पश्चिमी दुनिया को कम्युनिस्ट ब्लॉक से अलग कर रखा था। कहते हैं दीवार के इस पार अमेरिका का राज चलता था और उस पार सोवियत नेताओं का।

जान का जोखिम : दीवार की रखवाली के लिए पूर्वी जर्मनी ने अत्याधुनिक हथियारों से लैस अपने जवान तैनात कर रखे थे, जिनकी बंदूकें तनी होती थीं और निशाना सधा होता था, लेकिन भला जमाने को इससे क्या मतलब। वह कब सरहदों में बंधा है। उसे तो इस दीवार में सुराख़ करना ही होता था। हर क़ीमत पर. कई बार जान की क़ीमत पर भी।

कहते हैं दीवार पार करने की पाँच हजार से ज्यादा कोशिशें हुईं और सौ से दो सौ लोगों को जान गँवानी पड़ी। दुनिया की इस शायद सबसे नापसंद दीवार ने पूर्वी जर्मनी के लोगों को सबसे ज्यादा परेशान कर रखा था। इस बाधा से पहले दर्जनों सरकारी बाधाएँ पार करनी पड़ती थीं। वीजा मिलना मुश्किल भरा काम होता था और चेकप्वाइंट चार्ली सीमा चौकी पर खड़ा कोई भी जवान बिना वजह बताए उसे उस पार जाने से मना कर सकता था।

इस दीवार को फाड़ दो : 1960 और 70 के दशक में यह दीवार मौत की लकीर बन गई थी। कई बार तो दीवार पार करने की कोशिश करने वालों को गोली मार दी जाती थी और वह नो मैन्स जोन में तड़प-तड़प कर दम तोड़ देता था। डर केमारे कोई उसकी मदद को नहीं पहुँचता क्योंकि मदद करने वालों का भी वही हश्र हुआ करता।

दीवार के उस पार जहाँ पूर्वी जर्मनी में कम्युनिस्ट राज था, वहीं इस पार पश्चिम जर्मनी में लोकतांत्रिक राजनीति। रहन-सहन का स्तर दीवार के पश्चिम में बेहतर था और आजादी भी यहाँ ज्यादा। यही वजह है कि लोग उस पार से भाग आना चाहते थे। दीवार गिराने की कोशिशें होती रहीं। इनसानों के बीच कृत्रिम पर्दे को उखाड़ फेंकने की दिशा में 1987 में अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने जो बात कही, वह सबसे मारक समझी जाती है। उनके शब्द थे, मिस्टर गोर्बाचौव इस दीवार को फाड़ दो।

मिटा फासला : 1989 में वह दिन भी आया, जब जनता के दबाव के आगे पूर्वी जर्मनी की सरकार ने लोगों के कह दिया कि वे जहाँ चाहें जा सकते हैं। इस बयान का मतलब जब तक समझ में आता, लाखों की तादाद में जनता ने बर्लिन की दीवार पर धावा बोल दिया। हथौड़े पर हथौड़े पड़ने लगे।

बर्लिन की वह दीवार अब बस एक याद है। इतिहास में संजो कर रखने की चीज। संग्रहकर्ता इठलाते हुए इसके टुकड़े दिखाने में अपनी शान समझते हैं या फिर यह म्यूजियमों की शोभा बढ़ा रही है, लेकिन इस दीवार का हर टुकड़ा बार-बार पूछ बैठता है, कि तुमने मुझे तो गिरा दिया, क्या नफरत की दीवार भी गिराओगे।

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