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दार्शनिक संरचना के सौ साल: नहीं रहे लेवी स्ट्रॉस

28 Nov-1908--30 Oct- 2009

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- शिवप्रसाद जोशी

'दुनिया का आरंभ मनुष्य जाति के बगैर हुआ है और उसका अंत भी निश्चित रूप से उसके बिना ही होगा।'

बीसवीं सदी के महान फ्रांसीसी समाजशास्त्री, दार्शनिक और एंथ्रोपोलोजिस्ट क्लोद लेवी स्ट्रॉस नहीं रहे। वे सौ साल के थे। लंबी बीमारी के बाद फ्रांस की राजधानी पेरिस में उनका निधन हो गया। संरचनावाद के चिंतक थे लेवी स्ट्रॉस। एक सदी तक जीवित रहे स्ट्रॉस उन बिरले चिंतकों में से थे जिनके विचार और सिद्धांतों को दार्शनिकों और समाजशास्त्रियों की पीढ़ियाँ अपनाती रही और अपने मूल्यों की कसौटी में परखती रही। 28 नवंबर 1908 को उनका जन्म ब्रसेल्स में हुआ था।

दर्शन की दुनिया में स्ट्रक्चरलिज्म यानी संरचनावाद के मुख्य चिंतकों में से एक लेवी स्ट्रॉस ने मिथकों की एक निराली और जटिल व्याख्या पेश की और मिथकीयता और रिवायतों को एक ऐसे आदिम बिंदु पर जाकर परखा जहाँ उन्हें मनुष्य अस्तित्व, मनुष्य विकास और मनुष्य चेतना की समान गुत्थियों का एक व्यापक नेटवर्क नजर आया। उस पैटर्न को परखने वाले वे पहले दार्शनिक चिंतक थे। आदिम समाजों का उनका अध्ययन बताता है कि किसी आदिवासी समाज के मनुष्य मस्तिष्क की विशेषताएँ पश्चिमी सभ्यता से मिलती जुलती हैं और समस्त समुदायों का व्यवहार लोक परंपरा और लोक कथा की स्मृतियों के ताने बाने से निर्धारित होता है।

लेवी स्ट्रॉस कहते थे, 'मैं इसीलिए यह नहीं दिखाना चाहता हूँ कि मनुष्य मिथकों में कैसे सोचते हैं बल्कि मैं यह बताना चाहता हूँ कि मिथक कैसे मनुष्य मस्तिष्क और विचार प्रणाली का संचालन करते हैं, उन्हें इस बात का जरा भी पता लगे बिना। लेवी स्ट्रॉस मार्क्सवाद से प्रभावित थे और अपने चिंतन में उन्होंने मार्क्सवादी दर्शन परंपरा में नए आयाम जोड़े। तीन दशकों से भी ज्यादा समय तक स्ट्रॉस अपने सिद्धांत के लिए अमेजन के लोक समाज और अमेरिकी इंडियन कबीलों के बीच अध्ययन करते रहे। उन्होंने विपरीत मान्यताओं को एक साथ पिरोया और उसी उलटबाँसी में मनुष्य अस्तित्व की निराली झाँकियाँ पेश की। वे कच्चा बनाम पक्का, प्राकृतिक बनाम सांस्कृतिक और जीवन बनाम मृत्यु की उलटबाँसियों के सहारे समाज के व्यवहार को परख रहे थे।

लेवी स्ट्रॉस ही थे जिन्होंने अमेरिकी इंडियन मिथकों और सिंड्रेला की मशहूर कहानी में साम्य और तुलनाएँ तलाश लीं।

उन्होंने दिखाया कि किस तरह अमेजन की कुछ जातियाँ अपने गाँवों को विरोधी धड़ों में विभाजित कर देती थीं और फिर शादी जैसे सामाजिक व्यवहारों से उनका सम्मिलन हुआ। देरिदा भी थे प्रभावित श्ट्रॉस ने लातिन अमेरिका में विविध लोक कथाओं की छानबीन की और दिखाया कि अपने फॉर्म में वे कैसे एक दूसरे से जुड़ी हैं।

मिशेल फूको और जाक देरिदाँ जैसे दिग्गज बौद्धिकों ने लेवी स्ट्रॉस के तरीकों का इस्तेमाल अपने सामाजिक विश्लेषणों में किया। फ्रांस के ही एक और महान दार्शनिक ज्याँ पाल सार्त्र अलबत्ता लेवी स्ट्रॉस से कई मुद्दों पर मुठभेड़ और बहस करते रहे। व्यक्तिगत आजादी के सवाल पर सार्त्र स्ट्रॉस से टकराते रहे। सार्त्र स्ट्रॉस की इस व्याख्या से भी संतुष्ट नहीं थे कि दुनिया में मनुष्य का कोई अपना स्टेटस नहीं है और उनका अस्तित्व अनजाने अंधेरों में गुम हो जाएगा। अस्तित्ववादी सार्त्र के पास स्ट्रॉस के ऐसे मनुष्य के लिए कोई जगह नहीं थी।

स्ट्रॉस एक ऐसे समय में अखिल दुनिया में महा रिश्तेदारी और कहना चाहिए मनुष्यों का ऐसा गठबंधन, ऐसा विरल पड़ोस खोज रहे थे और उसे बाकायदा प्रतिपादित भी कर रहे थे, जब दुनिया विश्व युद्धों, और शीत युद्ध के तनावों से त्रस्त थी। भुखमरी, बेकारी अकाल, सूखा और बाढ़ और तूफान जैसी विपदाएँ तो उसकी छाती पर गिरती ही रहीं।

स्ट्रॉस इसी विपन्न संत्रस्त और कटी हुई दुनिया को एक महा मिथक के इधर-उधर बिखरे ताने-बाने में जोड़ रहे थे। ये उनका सृजित एक मानवीय ढाँचा था। और इस तरह वे अपनी जटिल व्याख्याओं के अंडरकरेंट में ये भी बताना चाहते थे कि एक विश्व अंतत एक कुटुम्ब ही था और है।

मनुष्यों के इस लोक गठजोड़ को समझने वाले स्ट्रॉस ने अपनी सबसे प्रसिद्ध आत्मकथात्मक किताब ट्रिसटेस ट्रोपिकस में उस वेदना और दर्द का भी जिक्र किया कि आखिर आदमी ने ही तो परंपरा, लोक और आदिमता के ढाँचों को छिन्न-भिन्न किया और आदमी ने ही आखिर तमाम इकाइयाँ मिटाकर उन्हें ऐसे स्टेट में बदला जहाँ उनका इंटीग्रेशन नामुमकिन था। शायद इसी अफसोस में क्लोड लेवी स्ट्रॉस को ये मानने में भी कोई हिचक नहीं थी कि दुनिया का आरंभ मनुष्य जाति के बगैर हुआ है और उसका अंत भी निश्चित रूप से उसके बिना ही होगा।

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