रिपोर्ट आमिर अंसारी
कोरोना वायरस के कारण मानसिक स्वास्थ्य का मुद्दा भी तेजी से देश में उभरकर आया है। लॉकडाउन ने लोगों की आदतें तो जरूर बदल दी हैं लेकिन एक बड़ा तबका तनाव के बीच जिंदगी जी रहा है। यह तनाव बीमारी और भविष्य की चिंता को लेकर है।
कोरोना वायरस से लड़ने के लिए भारत में संपूर्ण लॉकडाउन लागू किया गया और इसके बाद लोग अपने-अपने घरों में कैद हो गए। जो जरूरी कार्य में शामिल नहीं थे, उनका घरों से बाहर निकलना करीब-करीब बंद ही हो गया। इसी के साथ अवसाद और घबराहट के मामलों में भी तेजी आई। कोरोना से बचने के लिए लोग घरों में तो हैं लेकिन उन्हें कहीं -न-कहीं इस बीमारी की चिंता लगी रहती है और वह दिमाग के किसी कोने में मौजूद रहती है जिसकी वजह से इंसान की सोच पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
लॉकडाउन ही नहीं, उसके बाद की भी चिंता से लोग ग्रसित हैं, क्योंकि कई लोगों के सामने रोजगार, नौकरी और वित्तीय संकट पहले ही पैदा हो चुके हैं। 2008 में आर्थिक मंदी के दौरान भी इसी तरह की प्रवृत्ति अमेरिका में देखी गई थी।
बेंगलुरु स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ न्यूरो साइंसेज (निमहंस) की हेल्पलाइन पर रोजाना 400-500 फोन कॉल मनो-सामाजिक और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं को लेकर आती हैं। जब 28 मार्च को फोन लाइन शुरू की गई तो यहां कोविड-19 से जुड़ी जानकारी पाने के लिए फोन कॉल्स की जैसे बाढ़ आ गई। लॉकडाउन के 3 मई तक बढ़ने की वजह से चिंता भावनात्मक मुद्दे से हटकर हताशा, असहिष्णुता और लॉकडाउन के प्रबंधन करने की तरफ चली गई है।
तालाबंदी और 2 समस्याएं
दरअसल, लॉकडाउन लगने और उसके बढ़ने से 2 तरह के मुद्दे सामने आ रहे हैं। पहला लोग लगातार घर पर रह रहे हैं और ऐसे में अंतर्वैयक्तिक संबंध जैसे कि घरेलू हिंसा और बच्चों को संभालने को लेकर विवाद बढ़ा है, क्योंकि सभी लोग अपने दैनिक रूटीन से कट चुके हैं। दूसरी समस्या यह है कि लोग लॉकडाउन खत्म होने के बाद की स्थिति को लेकर चिंतित हैं, जैसे कि अपनी आर्थिक स्थिति और आजीविका। कई अन्य बीमारियों की तरह इस बार भी सबसे निचले स्तर के लोग प्रभावित हैं।
दिल्ली स्थित सर गंगाराम अस्पताल में मनोविज्ञानी और वरिष्ठ कंसल्टेंट डॉ. सीएस अग्रवाल कहते हैं कि घर में बंद रहने की वजह से दिमाग को मिलने वाले संकेत बंद हो जाते हैं। यह संकेत घर के बाहर के वातावरण और बाहरी कारकों से मिलते हैं लेकिन लगातार घर में रहने से यह बंद हो जाता है।
डॉ. अग्रवाल के मुताबिक इन सब कारणों से अवसाद और चिंता के बढ़े मामले देखने को मिल रहे हैं। मौजूदा हालात और भविष्य की चिंता न केवल गरीबों को सता रही है बल्कि उन्हें भी परेशान कर रही है, जो समृद्ध परिवार से आते हैं।
दूसरे शहरों में काम करने वाले प्रवासी अपने शहर और गांव जाने को लेकर चिंतित हैं। उन्हें आने वाले दिनों में रोजगार नहीं मिलने का भी डर है। जो लोग अपने गांव पहुंच भी जा रहे हैं, उन्हें भी गांव में अपनापन नहीं मिल रहा है। गांव वाले उन्हें शक की नजर से देख रहे हैं। गांवों में लोगों पर शक किया जा रहा है कि कहीं वे संक्रमित तो नहीं हैं?
कोरोना के साथ आया दिमागी खौफ भारत जैसे बड़े देश में कमोबेश सबकी स्थिति एक समान बनाता है। भले ही अधिकांश लोग मानसिक तौर पर पीड़ित नहीं हो लेकिन एक बड़ा तबका है जिसे भविष्य की चिंता है। वे अपने बच्चे के भविष्य को लेकर असमंजस में हैं। हालांकि तनाव तो सभी को है। किसी को लॉकडाउन के खत्म होने का तनाव है तो किसी को वित्तीय स्थिति ठीक करने का तनाव। घर पर नहीं रहने वालों को जल्द आजाद घूमने का तनाव है। इसे सामूहिक तनाव भी कह सकते हैं।
डॉ. अग्रवाल के मुताबिक अगर आपको पहले से कोई बीमारी है और उसके बारे में आप सोचते रहते हैं तो यह ज्यादा नुकसानदेह है। जब आप व्यस्त रहते हैं, तो उस बीमारी पर ध्यान नहीं जाता है लेकिन जैसे ही आप खाली होते हैं आपका ध्यान तुरंत बीमारी की ओर जाता है। इससे बचने के लिए दिनचर्या में बदलाव करना होगा और जिंदगी को सादगी के साथ जीना होगा।
हेल्पलाइन पर भी कोरोना का असर
दिल्ली के इंस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमन बिहेवियर एंड अलायड साइंसेज (इबहास) में मानसिक विकार के पीड़ितों के लिए विशेष हेल्पलाइन चलाई जा रही है। हालांकि मरीजों की डॉक्टरों तक लॉकडाउन के कारण पहुंच बंद हो गई और वे परामर्श कर दवा ले नहीं पा रहे हैं।
विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार को अपनी नीतियों में मानसिक स्वास्थ्य पर भी विशेष ध्यान देना होगा और उसे प्राथमिकता देनी होगी। मानसिक स्वास्थ्य पर भारत ने पिछले बजट में 20 फीसदी की कटौती की थी, जो कि 50 करोड़ से घटकर 40 करोड़ ही रह गया है। सरकार को इस ओर भी गंभीरता दिखानी होगी।
मनोचिकित्सकों का कहना है कि लोगों को लॉकडाउन जैसे हालात से निपटने के लिए समय का सही इस्तेमाल करना चाहिए। उनके मुताबिक जिन विषयों में रुचि है, उन पर किताबें पढ़नी चाहिए, घर में पेड़ और पौधों से भी सकारात्मकता का एहसास हो सकता है।
वे कहते हैं कि साथ ही सोशल मीडिया और व्हाट्सऐप पर आने वालीं नकारात्मक चीजों को नजरअंदाज कर सकारात्मक चीजों को ही अपनाना चाहिए। मनोचिकित्सकों का कहना है कि लोग शारीरिक और मानसिक रूप से खुद को स्वस्थ रखें ताकि समय आने पर वे चुनौती का सामना करने के लिए तैयार रहें।