प्रभाकर मणि तिवारी
असम सरकार ने 'असम हीलिंग (प्रिवेंशन ऑफ ईविल) प्रैक्टिसेज बिल, 2024' विधेयक पेश किया। जादू-टोने से बीमारियों के इलाज को प्रतिबंधित करने वाले इस प्रस्तावित कानून पर विवाद खड़ा हो गया है।
मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने कहा है कि इस कानून से आदिवासियों का धर्मांतरण रोकने में मदद मिलेगी। मुख्यमंत्री की टिप्पणी से खासतौर पर राज्य के ईसाई समुदाय में नाराजगी है। दरअसल, इस विधेयक को सदन में पेश करने से पहले ही ईसाई समुदाय की तरफ से गहरी नाराजगी जताई गई थी। जानकारों का कहना है कि सरकार के इस कानून का निशाना कहीं और है।
असम में जादू-टोना और झाड़-फूंक से इलाज करने की परंपरा बहुत पुरानी है। इसी वजह से राज्य में डायन के नाम पर हत्याओं के मामले भी बढ़े हैं। प्रदेश में, खासकर आदिवासी इलाकों में रहने वाले बहुतायत लोग अब भी शहर के अस्पतालों और डॉक्टरों की बजाय ऐसे तरीकों से इलाज करने वालों पर ही ज्यादा भरोसा करते हैं।
लेकिन ज्यादातर मामलों में इलाज की बजाय मरीज की मौत हो जाती है। हालांकि सरकार के पास ऐसा कोई आंकड़ा नहीं है, जिससे पता चल सके कि कितने लोग ऐसे तरीकों से इलाज करते हैं या फिर इसके कारण कितने लोगों की जान जा चुकी है।
लोग क्या बताते हैं
सुनीता मुंडा, असम के चाय बागान बहुल जोरहाट जिले के एक गांव में रहती हैं। सुनती कहती हैं, "गांव के आस-पास कोई अस्पताल नहीं है। इसलिए पति की तबीयत बिगड़ने पर उनको करीबी गांव के झाड़-फूंक करने वाले पास ले गई थी। वह साल भर तक झूठा दिलासा देता रहा कि मेरे पति एकदम ठीक हो जाएंगे। लेकिन उनकी तबीयत बिगड़ती रही और आखिर में उनकी मौत हो गई।"
सुनीता का मानना है कि सरकार को यह कानून पहले ही लाना चाहिए था। वह कहती हैं, "सरकार को बहुत पहले ही ऐसा फैसला करना चाहिए था। तब शायद मेरे पति आज जीवित होते।"
दूसरी ओर, करीब 12 साल से जादू-टोना और झाड़-फूंक के जरिए लोगों की बड़ी-बड़ी बीमारियां दूर करने का दावा करने वाले अमित कुजूर कहते हैं, "मेरे पूर्वज भी यही काम करते थे। अब मैं भी लोगों की बीमारियां दूर करता हूं। लेकिन सरकार ने नया कानून बना कर हमारी रोज-रोटी खत्म कर दी है।"
हालांकि राज्य के ईसाई समुदाय का आरोप है कि इस कानून का निशाना उन पर ही है। असम की जनसंख्या में ईसाई समुदाय की संख्या करीब 3।74 प्रतिशत है, जो कि राष्ट्रीय औसत के मुकाबले ज्यादा है।
क्या कहता है कानून
संसदीय कार्य मंत्री पीयूष हजारिका की ओर से असम विधानसभा में पेश इस विधेयक का उद्देश्य सामाजिक जागरूकता पैदा करना और वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित एक स्वस्थ वातावरण तैयार करना है। यह कानून बीमारी और जानकारी के अभाव में गलत मकसद के लिए जादू-टोने के इस्तेमाल पर रोक लगाएगा।
राज्य मंत्रिमंडल ने 10 फरवरी को यह बिल विधानसभा में पेश करने की मंजूरी दी थी। उस समय मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने आरोप लगाया था कि जादू-टोने से इलाज की आड़ में आदिवासियों का धर्मांतरण किया जा रहा है। राज्य में आबादी का समुचित संतुलन बनाए रखने के लिए धार्मिक यथास्थिति बनाए रखना जरूरी है।
सरमा ने कहा था, "जादू से इलाज आदिवासियों के धर्म परिवर्तन का जरिया बन गया है। इसलिए हम यह विधेयक ला रहे हैं। मुसलमान, मुसलमान रहें, ईसाई भी ईसाई रहें और हिंदू, हिंदू ही रहें। हम असम में धर्मांतरण को रोकना चाहते हैं, इसलिए जादू-टोने के जरिये इलाज पर पाबंदी लगाना एक मील का पत्थर साबित होगा।”
प्रस्तावित कानून में दोषियों के लिए एक साल से तीन साल तक की सजा और 50 हजार से एक लाख रुपये तक के जुर्माने का प्रावधान है। विधेयक में कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को किसी बीमारी के इलाज के लिए जादू-टोना करने की इजाजत नहीं होगी।
किसी भी व्यक्ति को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जादू-टोने के जरिये इलाज का फर्जी दावा करने की भी अनुमति नहीं होगी। इलाज के नाम पर किसी भी जादू-टोने का मकसद आम आदमी का शोषण है।
प्रावधानों पर सवाल
कई राजनीतिक विश्लेषक इस विधेयक को अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ मानते हैं। उनका कहना है कि इस विधेयक का मकसद जादू-टोने जैसी सामाजिक कुरीतियों को जड़ से खत्म करना होना चाहिए था। लेकिन इसकी बजाय मुख्यमंत्री ने इस परंपरा को धर्मांतरण का हथियार बता कर इसके मकसद पर पानी फेर दिया है।
एक विश्लेषक उज्ज्वल हाजरा कहते हैं, "विधेयक में कहीं भी इस कुरीति के खिलाफ जागरूकता अभियान चलाने का जिक्र नहीं है। यह एक सामाजिक समस्या है और इसे खत्म करने के लिए राज्य के आदिवासी तबके में बड़े पैमाने पर जागरूकता अभियान चलाना जरूरी है।"
हाजरा आगे कहते हैं, "इसके अभाव में यह कानून पुलिस के हाथों में महज एक हथियार बन कर रह जाएगा। विधेयक के प्रावधानों में कहीं भी इस बात का जिक्र नहीं है कि इसका मकसद समाज में वैज्ञानिक नजरिए को बढ़ावा देना या आधुनिक इलाज के प्रति जागरूकता पैदा करना है।"
कैसी आशंकाएं जताई जा रही हैं
हाजरा कहते हैं कि इस बात में कोई दो राय नहीं है कि आदिवासी इलाकों में जादू-टोने से इलाज एक सच्चाई है। बल्कि अंधविश्वास की वजह से इन इलाकों में हत्या तक हो जाती है। लेकिन इस पर पाबंदी लगाने के मकसद से तैयार किए गए कानून में यह जिक्र होना चाहिए था कि समाज में वैज्ञानिक दृष्टिकोण पैदा करने और आधुनिक तकनीक और दवाओं से बीमारियों के इलाज के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए सरकार क्या-क्या कदम उठाने जा रही है।
हाजरा रेखांकित करते हैं कि पहली नजर में तो इस कानून का स्वागत किया जाना चाहिए था। लेकिन इस बारे में मुख्यमंत्री की टिप्पणी से साफ है कि राज्य सरकार का मकसद इस बिल के माध्यम से अंधविश्वास या काले जादू के नाम पर हत्याओं को रोकना नहीं, बल्कि ईसाई धर्म के प्रचारकों में एक भय का माहौल तैयार करना है। इससे पहले फरवरी 2023 में अरुणाचल प्रदेश के अपर सियांग में जिला प्रशासन ने एक आदेश जारी किया था। उसमें प्रार्थना के जरिए इलाज के प्रचार-प्रसार पर पाबंदी लगा दी गई थी।
हालांकि, मुख्यमंत्री का कहना है कि उनकी सरकार धर्मांतरण रोकना चाहती है और संबंधित कानून इस दिशा में अहम साबित होगा। ईसाई समुदाय की आपत्तियों पर उनका कहना है कि किसी खास धर्म को निशाना नहीं बनाया जा रहा है।
ईसाई समुदाय की नाराजगी
राज्य के ईसाई समुदाय ने भारी नाराजगी जताई है। ईसाई संगठन असम क्रिश्चियन फोरम ने कहा है, "हमारे धर्म में प्रार्थना का विशेष महत्व है और इसका धर्मांतरण से कोई संबंध नहीं है। इसे जादू-टोने से जोड़ना सही नहीं है। ऐसे में मुख्यमंत्री का बयान और यह कानून भ्रामक और गुमराह करने वाला है।"
फोरम के मुताबिक, सरकार का यह कहना सही नहीं है कि ईसाई तबके के लोग जादू-टोने से इलाज करते हैं। फोरम का दावा है, "हमारे अस्पताल मेडिकल फ्रेमवर्क के तहत ही काम करते हैं। हम आदिवासी और पिछड़े इलाकों में लोगों को समुचित चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध करा कर मानवता की सेवा में जुटे हैं। इसे धर्मांतरण से जोड़ना उचित नहीं है।"
ईसाई नेताओं का कहना है कि हर धर्म में प्रार्थना का एक खास महत्व है। संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत सबको अपने धर्म के पालन की आजादी है, लेकिन धर्मांतरण का आरोप संवैधानिक सुरक्षा को कमतर साबित करता है। फोरम ने कहा है कि कुछ लोग राज्य के ईसाई स्कूलों से धार्मिक प्रतीकों और प्रतिमा को हटाने की धमकी दे रहे हैं। उन्होंने इन स्कूलों में हिंदू प्रार्थना शुरू करने को भी कहा है।
इससे पहले 7 फरवरी को एक हिंदूवादी नेता सत्य रंजन बोरा ने आरोप लगाया था कि मिशनरी स्कूलों और शैक्षणिक संस्थानों को धार्मिक संस्थानों में बदला जा रहा है। बोरा ने कहा था कि वो ऐसा नहीं करने देंगे।
वहीं, असम क्रिश्चियन फोरम के सदस्य आर्कबिशप जान मूलचेरा कहते हैं, "हम अपने धर्म के मुताबिक कपड़े पहनते हैं। लेकिन एक खास हिंदुत्ववादी संगठन इसमें बाधा पैदा कर रहा है।" राज्य सरकार और ईसाई तबके के लोगों के बयानों से साफ है कि इस कानून पर विवाद और तेज हो सकता है।
Edited by : Nrapendra Gupta