Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

बिहार में महंगाई-बेरोजगारी के साथ नदारद सांसद भी हैं मुद्दा

हमें फॉलो करें bihar voting

DW

, गुरुवार, 2 मई 2024 (07:52 IST)
मनीष कुमार
बिहार में तीखी तपिश के बीच सियासी पारा गर्म होने के साथ ही मुद्दों पर भी लोग मुखर हो रहे हैं। पहले चरण में 48.23 प्रतिशत मतदान के बाद बिहार में दूसरे चरण के चुनाव में लोगों में ज्यादा उत्साह देखने को मिला। इस चरण में पांच सीटों पर 59.45 प्रतिशत औसत वोटिंग हुई, हालांकि 2019 के मुकाबले यह कम ही रहा। इनमें किशनगंज, पूर्णिया और कटिहार सीमांचल का इलाका आता है, जो मुस्लिम बहुल है। वहीं, भागलपुर तथा बांका अंग क्षेत्र में आता है।
 
मौसम के तेवर को देखते हुए निर्वाचन आयोग ने बांका लोकसभा क्षेत्र के साथ ही तीसरे चरण में मधेपुरा व खगड़िया तथा चौथे चरण में मुंगेर संसदीय क्षेत्र के विभिन्न विधानसभा क्षेत्रों में मतदान के समय में बदलाव कर दिया है।
 
चुनाव आयोग भी वोट प्रतिशत बढ़ाने के लिए लगातार प्रयास कर रहा है। यह तय किया गया है कि वेबकास्टिंग के साथ ही मतदान के दिन वोटरों की कतार को ट्रैक किया जाए और जिस बूथ पर कम मतदान हो रहा, वहां जीविका दीदी, टोला सेवक, विकास मित्र आदि व बूथ लेवल ऑफिसर (बीएलओ) को सक्रिय किया जाए।
 
इसके साथ ही बीएलओ वाट्सऐप ग्रुप के जरिए लोगों को मतदान के लिए याद दिलाएं। वोटर टर्न आउट बढ़ाने के लिए माइक से घोषणाएं करवाई जाएं, ताकि लोग मतदान के लिए घरों से निकलें। इसके साथ ही आयोग ने बूथ पर धूप से बचाव के लिए शामियाना लगाने, पानी तथा प्राथमिक उपचार की व्यवस्था करने एवं लाचार, बीमार, वृद्ध व दिव्यांग तथा गर्भवती महिलाओं को बूथ तक लाने व घर पहुंचाने की मुकम्मल व्यवस्था सुनिश्चित करने का निर्देश दिया है। 
 
चुनावी सभाओं में भी नौकरी की खूब चर्चा : जाहिर है, बिहार में किसी भी चुनाव में जातिगत समीकरण तो केंद्र में होता ही है, लेकिन इनसे इतर कुछ ऐसे मुद्दे भी होते हैं, जिनकी लोगों के बीच विशेष चर्चा होती है। इनमें बेरोजगारी, महंगाई और चुनाव जीतने के बाद जनता के बीच नहीं आना भी जोर पकड़ता दिख रहा है। फिर कई जगहों पर स्थानीय एवं बाहरी उम्मीदवार को लेकर भी काफी चर्चा शुरू हो गई है। बिहार की चुनावी सभाओं में नेताओं के भाषण में नौकरी की खूब चर्चा होती है। यहां तक कि जो नौकरी दी गई है, उसके श्रेय को लेकर भी तंज कसने का सिलसिला अनवरत जारी है।
 
महागठबंधन पर निशाना साधते हुए एक तरफ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार साफ कहते दिखे कि 2020 के विधानसभा चुनाव में हमने बीजेपी के साथ मिलकर 10 लाख नौकरी और 10 लाख रोजगार देने का वादा किया था। इसी को आगे बढ़ा रहे हैं। अब ये क्रेडिट लेने में लगे हुए हैं। ये लोग तो केवल अपने परिवार की सोचते हैं। इनके लिए परिवार ही पार्टी है। वहीं, महागठबंधन के नेता व बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव का कहना है, महागठबंधन सरकार के 17 माह के कार्यकाल में पांच लाख को नौकरियां दी गईं। उन्हीं के हाथों मैंने नौकरी दिलवाई, जो कहते थे कि यह असंभव है।
 
दिख रहा पलायन का दर्द भी : पूर्णिया में एक बूथ पर वोटरों की कतार में खड़े इदरीश अंसारी कहते हैं कि विकास का मुद्दा तो है ही। लेकिन, इसके साथ ही बढ़ती महंगाई पर भी रोक लगनी चाहिए। हरेक चीज हर दूसरे महीने महंगी हो जाती है। गरीब लोगों का जीना दूभर होता जा रहा है। हिन्दू-मुस्लिम करने से इसका समाधान तो होगा नहीं।
 
वहीं गृहिणी नीलम कहती हैं कि महंगाई के कारण राशन-पानी जुटाना मुश्किल हो गया है। सैलरी से कुछ बचता नहीं है कि भविष्य के बारे में सोचा जा सके। पेट्रोल-डीजल का दाम बढ़ने से सभी चीजें महंगी होती जा रही है। भाड़ा इतना बढ़ गया है कि कहीं आना-जाना भी मुश्किल हो गया है। परिवार कैसे चल रहा, यह हम ही जानते हैं।
 
साथ ही खड़े सेवानिवृत्त कर्मचारी शिव नारायण कहते हैं, वोट देना तो जरूरी है, इसलिए इस भीषण गर्मी में हम वोट देने आए हैं। जिस तरह विकास को लेकर काम हो रहा उसी तरह बेरोजगारी के लिए भी रणनीति बनाकर काम करने की जरूरत है। सहरसा-पूर्णिया की ट्रेनों की भीड़ देख लीजिए, समझ में आ जाएगा कि कितने लोग काम की तलाश में बाहर जा रहे हैं। क्या मजदूर, क्या पढ़े-लिए, नौजवान, सभी घर छोड़ने को विवश हैं। हर बार चुनाव के मौके पर वादे करने की परंपरा पूरी की जाती है, लेकिन लोगों को लगता है कि उसमें से बहुत कुछ कभी पूरा होता नहीं है कि फिर दूसरा चुनाव आ जाता है।
 
राजनीतिक समीक्षक अरुण कुमार चौधरी कहते हैं कि कोसी एवं सीमांचल में राजनीति भले ही हिन्दू-मुस्लिम को लेकर होती हो, किंतु पलायन तो इस इलाके के लिए सबसे बड़ा दर्द है ही। आजीविका का कोई वैकल्पिक संसाधन उपलब्ध नहीं रहने के कारण वे घर-परिवार छोड़ने को विवश हैं। जो खेती-बारी कर भी रहे, वे इस बूते परिवार को बोझ उठाने में सक्षम नहीं हैं। इससे भी इन इलाकों के वोट प्रतिशत में कमी आती है। जब लोग वहां रहेंगे ही नहीं तो वोट डालने भी कम ही पहुंचेंगे।
 
चुनाव बाद सहज उपलब्ध नहीं होते जन प्रतिनिधि : वोट डालने जा रही गृहिणी मधु कहती हैं कि चुनाव के बाद जो अच्छा काम नहीं करें, उन्हें हटाने या वापस बुलाने का भी नियम होना चाहिए। जीतने के बाद हमारे नेता जनता के बीच आना छोड़ देते हैं। उन्हें देखे हुए सालों बीत जाते हैं। कहीं कोई खास घटना-दुर्घटना हुई तो वे प्रकट होते हैं।
 
पत्रकार शिवानी सिंह कहती हैं, वाकई, ऐसे कई सांसद हैं। उनके गायब रहने को लेकर कई संसदीय क्षेत्रों के लोगों में काफी नाराजगी है। शायद इसलिए गाहे-बगाहे लोगों द्वारा सांसदों के लापता होने को लेकर पोस्टर भी लगाए जाते रहे हैं। लेकिन, चुनाव में लोग देश के नेतृत्व की बात सोच इस पर विशेष ध्यान नहीं देते और अंतत: ऐसे नेताओं का बेड़ा पार हो जाता है।
 
पूर्णिया के एक बीजेपी नेता तो अपने उम्मीदवार को लेकर यहां तक कहते हैं कि अगर इस बार यहां त्रिकोणात्मक संघर्ष नहीं होता तो हमारी पार्टी को वोटरों का दर्द अच्छी तरह से समझ में आ जाता। सभी जगह लोग प्रत्याशी को नहीं, पीएम नरेंद्र मोदी के चेहरे को देखकर वोट दे रहे। इसे लेकर किसी को गलतफहमी नहीं होनी चाहिए। भाजपा के लिए यही सच है। लोकतंत्र में यह कहना मुश्किल है कि जीत-हार का फैक्टर क्या होगा, लेकिन वोटरों का रुख देखते हुए इतना तो साफ है कि आने वाले समय में राजनीतिक दलों की राह आसान नहीं।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

किसका समर्थन करेंगे बंगाल के मुस्लिम वोटर?