रिपोर्ट : विवेक कुमार
ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री चाहते हैं कि लोग घरों से काम करना बंद करें और दफ्तर आना शुरू करें। लेकिन कोविड-19 के बाद जितना रास्ता तय किया जा चुका है, क्या वहां से लौटना आसान होगा?
पिछले हफ्ते मीडिया से बातचीत में ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन ने लोगों से घर की जगह दफ्तरों से काम करने का आहवान किया। उन्होंने बहुराष्ट्रीय कंपनियों से कहा कि वे सामाजिक दूरी के नियमों को पालन करें लेकिन देश में कोरोनावायरस के लगातार कम होते मामलों का असर कामकाज पर दिखना चाहिए। प्रधानमंत्री मॉरिसन का यह बयान कई शहरों के मेयरों द्वारा की जा रही उस अपील के जवाब में आया है जिसमें लोगों के दफ्तर न आने से बाजारों के खराब हाल का जिक्र किया गया था।
ब्रिसबेन के मेयर एड्रियन श्रीनर ने कहा था कि महामारी की ऑस्ट्रेलिया के राज्यों की राजधानियों को भारी कीमत चुकानी पड़ रही है और सिटी सेंटरों के उद्योग-धंधे लोगों के घरों से ही काम करने की मार झेल रहे हैं। इस अपील पर मॉरिसन ने कहा, 'मेरा संदेश बहुत साधारण है। अब दफ्तर जाने का वक्त आ गया है। राज्य और केंद्र सरकारों के कर्मचारी कह रहे हैं कि यह वापस दफ्तर जाने का वक्त है।' उन्होंने कहा कि देश में जो सुधार हो रहा है, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के तौर-तरीकों में वह नजर आना चाहिए और अब संक्रमण से निडर होकर ज्यादा लोगों को दफ्तरों में काम करने के लिए बुलाया जाना चाहिए।
दफ्तर नहीं जाना चाहते कर्मचारी
ऑस्ट्रेलिया के उद्योग समुदाय ने प्रधानमंत्री के इस बयान का स्वागत किया है। ऑस्ट्रेलियन इंडस्ट्री ग्रुप के चीफ एक्जीक्यूटिव इनेस विलोक्स ने 'ऑस्ट्रेलियन फाइनेंशियल रिव्यू' अखबार से कहा कि यह व्हाइट कॉलर कर्मचारियों का मुद्दा है। उन्होंने कहा, 'बहुत से नियोक्ता बता रहे हैं कि कर्मचारी दफ्तरों में अधिक समय बिताने का विरोध कर रहे हैं। ज्यादातर नियोक्ता अधिकतर कर्मचारियों को दफ्तरों में बुलाने पर सहमत हैं। ज्यादातर के लिए घर और दफ्तर का मिश्रित मॉडल काम कर रहा है।' इनेस कहते हैं कि जितने अधिक समय तक कर्मचारी दफ्तरों से दूर रहेंगे, उतना ही उनका अपने सहकर्मियों से संपर्क घटेगा और सहयोग, उत्पादकता व कुछ नवोन्मेष पर सीधा असर पड़ेगा।
सिडनी के एक अस्पताल में काम करने वाले डॉ. दीपक राय भी इस बात से सहमत हैं। वे कहते हैं कि घरों से काम करने का असर सामाजीकरण पर पड़ रहा है। डीडब्ल्यू से बातचीत में डॉ. राय ने कहा, 'लोग घरों से काम करते हैं तो वे अपने सहयोगियों से मिलते-जुलते ही नहीं है। इसका असर सिर्फ काम पर ही नहीं, मूड पर भी होता है। अकेले में लोग नया नहीं सोच रहे हैं।'
डॉ. राय कहते हैं कि घर से काम करना बैंड-एड है, इलाज नहीं। वे कहते हैं, 'लोग घरों से नहीं निकलेंगे बस, ट्रेन-टैक्सियों का इस्तेमाल कम होगा। कैफे में चाय-कॉफी और रेस्तराओं में लंच नहीं बिकेगा। यह कोई सामान्य बात नहीं है। इसका चौतरफा असर होता है।' सितंबर में ऑस्ट्रेलियन पब्लिक सर्विस कमीशन ने सरकारी अधिकारियों से कहा था कि जहां भी संभव हो वे, दफ्तर से ही काम करेंगे।
कई उद्योग-धंधे इस बात से सहमत हैं कि घरों से काम करने ने आर्थिक गतिविधियों को बुरी तरह प्रभावित किया है। प्रॉपर्टी काउंसिल के मुखिया केन मॉरिसन ने प्रधानमंत्री मॉरिसन के बयान का स्वागत करते हुए मीडिया से कहा, 'सीबीडी (सेंट्रल बिजनेस डिस्ट्रिक्ट) में गतिविधियां बने रहने के अहम फायदे हैं, सिर्फ छोटे उद्योगों के लिए ही नहीं बल्कि पूरे देश की अर्थव्यवस्था के लिए भी। मेलबोर्न और सिडनी कोविड के कारण सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं। अब लोगों को दफ्तरों में वापस लाने के लिए सरकार और कॉर्पोरेट जगत की तरफ से प्रोत्साहन दिए जाने की जरूरत है।'
उलटे कदम चलेगी दुनिया?
कोविड महामारी जब दुनिया में चरम पर थी और वर्तमान पीढ़ी ने पहली बार राष्ट्रीय स्तर के लॉकडाउन देखे तो एक बात बार-बार कही गई कि दुनिया अब कभी पहले जैसी नहीं हो पाएगी। लोगों का काम करने का तरीका, खरीदारी आदि का तरीका और यहां तक कि हाथ मिलाने तक का तरीका बदल गया था। 'न्यू नॉर्मल' वाक्यांश का बार-बार प्रयोग किया जा रहा था और नए तौर-तरीकों के सामान्यीकरण पर समाजशास्त्रियों से लेकर कर्मचारी संघों तक में बहस हो रही थी।
जूम, वेबएक्स और टीम्स के टूल्स ने जब मीटिंग्स को आसान बना दिया तो दफ्तरों की जरूरत पर ही बहस होने लगी। नौकरियां उपलब्ध कराने वाली वेबसाइट फ्लेक्सजॉब्स के एक सर्वेक्षण के मुताबिक 65 प्रतिशत कर्मचारियों ने कहा कि महामारी के बाद भी वे घरों से काम करना जारी रखना चाहेंगे। 58 प्रतिशत ने तो यहां तक कहा कि उनकी कंपनी ने उन्हें दफ्तर आने पर मजबूर किया तो वे दूसरी नौकरी खोजना चाहेंगे। सिर्फ 2 फीसदी कर्मचारी दफ्तर लौटना चाहते थे। मिश्रित मॉडल यानी कुछ दिन घर से काम और कुछ दिन दफ्तर से काम करने का विकल्प भी खासा पसंद किया गया।
मेलबोर्न की मोनाश यूनिवर्सिटी में पढ़ाने वाले अर्थशास्त्री डॉ. विनोद मिश्रा कहते हैं कि दुनिया उलटे कदम नहीं चलेगी। वे कहते हैं कि महामारी के दौरान जो कुछ हुआ, वह पहले से ही शुरू हो चुके एक चलन के लिए बस रफ्तार बढ़ाने जैसा था।
डीडब्ल्यू से बातचीत में डॉ मिश्रा ने कहा, 'महामारी के दौरान हमने जो देखा, वह तो कई साल से चल ही रहा था। लोग कारें नहीं खरीदना चाहते, क्योंकि वे किराये पर कार लेकर चला सकते हैं। ऐसे कितने ही रेस्तरां खुल गए हैं, जो सिर्फ मेन्युलोग या डोरडैश जैसी डिलीवरी के भरोसे ही चल रहे हैं और उन्हें अपने यहां बुलाकर लोगों को खाना खिलाने की जरूरत ही महसूस नहीं होती। लोग घर का सामान तक ऑनलाइन से मंगा रहे हैं।
दरअसल, उपभोक्ता संस्कृति का भौतिक बाजार से हटने का सिलसिला तो बहुत पहले शुरू हो चुका है। महामारी में तो बस उसने रफ्तार पकड़ ली। और बेशक, इसके आर्थिक असरात भी होंगे, लेकिन मुझे नहीं लगता कि दुनिया अब उलटे कदम चलने वाली है।'
डॉ. मिश्रा कहते हैं कि उपभोक्ता सस्ता विकल्प खोजता है। वह बताते हैं, 'अगर उपभोक्ता के लिए दफ्तर जाना एक महंगा विकल्प है, तो वह घर से काम करना ही चुनेगा। राजनेताओं के सामने चुनौती है कि वे उसे सस्ता विकल्प दें और अर्थव्यवस्था तो अपना नया रास्ता बना ही लेगी।'