चीन में तियानमेन चौक पर हुए विरोध प्रदर्शनों को 30 साल बीत गए हैं। देश की अर्थव्यवस्था ने बड़ी छलांग लगाई है और दुनिया में शीर्ष पर पहुंचने को तैयार है। बावजूद इसके देश में राजनीतिक दमन अब भी वैसा ही है।
लाखों मुसलमानों को चीन के रिएजुकेशन कैंप में कथित "राष्ट्रवाद" सिखाने के लिए रखा गया है। छात्र कार्यकर्ता निरंतर उत्पीड़न की शिकायत करते हैं और विरोध करने वाले कार्यकर्ता या तो कैद किए जा रहे हैं या फिर यकायक गायब हो जाते हैं। धार्मिक गुटों पर दबाव बनाया जा रहा है और इंटरनेट की व्यापक निगरानी एक ऐसे तंत्र को मजबूत कर रही है जिसे बहुत से लोग सर्वाधिकारवादी कहने लगे हैं।
1989 में 3-4 जून को विरोध करने वाले लोगों पर सेना की कार्रवाई देख चुके लोगों की उम्मीदें भी आज के दौर में ध्वस्त हो रही हैं। सरकार के नियंत्रण का स्तर लोगों की आशंका से कहीं ज्यादा है।
आलोचकों का कहना है कि तियानमेन चौक पर हुई कार्रवाई में सैकड़ों लोगों या संभवतया हजारों लोगों की मौत हुई थी। इसके साथ देश में कम्युनिस्ट पार्टी की सत्ता मजबूत हुई और साथ ही क्रूर दमन का दौर भी शुरू हो गया। देश में "स्थिरता कायम रखने" के नाम पर विरोधियों को कैद करना और उनसे हिंसक तरीकों से निबटना आम बात हो गई। झांग लीफान 1989 में चायनीज एकेडमी ऑफ सोशल साइंसेज में पढ़ाते थे। लीफान कहते हैं, "4 जून की घटना ने चीनी इतिहास की दिशा बदल दी। राजनीतिक सुधार के जरिए चीन को मजबूत, सामान्य और एक स्थायी देश बनाने की कहानी खत्म हो गई थी।"
चीनी अधिकारी अकसर दमन पर उठाए गए सवालों के जवाब में देश की आर्थिक तरक्की की ओर इशारा करते हैं। तियानमेन चौक पर हुए विरोध प्रदर्शनों के बाद के तीन दशकों में चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है और यह हाईस्पीड रेल से लेकर आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और 5जी मोबाइल कम्युनिकेशन की दौड़ में तेजी से आगे बढ़ रहा है। चीन की नौसेना अब दुनिया के कोने कोने में जाती है, चीन ने अंतरिक्ष में दर्जनों अभियान शुरू किए हैं और इसका सीमा पार बुनियादी ढांचे के निर्माण का कार्यक्रम नैरोबी से लेकर नीदरलैंड्स तक फैला है।
यह और बात है कि राजनीतिक रूप से यह देश इतना दमनकारी कभी नहीं रहा। अभिव्यक्ति की आजादी पर शिकंजे का दायरा सोशल मीडिया को भी अपने घेरे में ले चुका है। विरोध की हल्की सी आहट भी सरकार की तरफ से तुरंत कार्रवाई का कारण बन सकती है। देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए जिम्मेदार विशाल तंत्र माफी, दबाव में बयान दिलवाने या फिर सरकारी टीवी पर प्रसारण जैसे उपायों का इस्तेमाल करता है और मामूली आरोपों में भी कैद की सजा दे दी जाती है।
मामूली सुधारों की मांग पर भी या तो हमला हो जाता है या फिर उसकी उपेक्षा कर दी जाती है। गांवों में जमीनी स्तर पर लोकतंत्र शुरू करने की कोशिश भी कई साल पहले ध्वस्त हो गई, क्योंकि कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने अधिकारों में नाममात्र की भी कटौती से इनकार कर दिया। व्यवस्था के हर पद पर पार्टी की ओर से ही नियुक्ति होती है और वो लोग भी अपना वोट उसी को देते हैं जिसके लिए उन्हें निर्देश मिलते हैं। यहां तक कि राष्ट्रीय विधानमंडल भी एक तरह का रबर स्टैंप ही है जहां बीते साल पार्टी प्रमुख और राष्ट्रपति शी जिनपिंग को 2970 के मुकाबले 0 मतों से दोबारा चुना गया।
अपनी पीढ़ी के सबसे मजबूत नेता कहे जा रहे शी जिनपिंग ने संविधान में संशोधन कर राष्ट्रपति बनने की सीमा भी खत्म कर दी है और अब अगर वो चाहें तो जीवन भर देश के राष्ट्रपति रह सकते हैं। ऐसा नहीं कि पार्टी में शक्ति संघर्ष नहीं है लेकिन शी के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान और कैद की भारी सजा की धमकियों ने उनके विरोधियों को काबू में रखा है।
तियानमेन चौक पर हुए दमन के दौर में पार्टी के कामकाज और भ्रष्टाचार पर मीडिया और लोगों की निगरानी के जरिए नजर रखने की कोशिश नाकाम रही। पार्टी के तत्कालीन नेता जियांग जेमिन के नेतृत्व में देश की अर्थव्यवस्था ने तो बहुत विकास किया लेकिन इसके साथ ही भ्रष्टाचार की महामारी भी फैल गई। इतना ही नहीं समय के साथ साम्यवाद में विश्वास भी कमजोर हुआ और लोगों के बीच आपसी रिश्ते निजी फायदों के इर्द गिर्द सिमट गए।
एक पूर्व प्रदर्शनकारी रोवेना जिआओकिंग कहते हैं, "जिस वक्त कोई सरकार अपनी सेना को अपने ही लोगों के खिलाफ गोली चलाने का आदेश देती है, वह अपनी वैधता खो देती है। निश्चित रूप से जो लोग शासन में हैं वो इतिहास को तोड़ मरोड़ सकते हैं, हमारी याददाश्त को बदल सकते हैं। हालांकि इतिहास में इस तरह के बदलाव और दमन के बाद हमेशा सामाजिक, राजनीतिक और मनोवैज्ञानिक विकृति ही पैदा होती है।" जिआओकिंग का कहना है कि आज के चीन को समझने के लिए 1989 के वसंत को समझना बहुत जरूरी है।
रविवार को सिंगापुर के रीजनल डिफेंस फोरम में चीन के रक्षा मंत्री वाइ फेंगे ने प्रदर्शनों पर सरकार के रख का यह कह कर बचाव किया कि यह चीन में 1989 के बाद हुए विकास से जुड़ा है। फेंग ने कहा, "हम यह कैसे कह सकते हैं कि चीन ने तियानमेन की घटना को सही तरीके से नहीं संभाला? उस घटना की एक परिणति हुई, वह घटना राजनीतिक अशांति थी और केंद्रीय सरकार ने उस अशांति को रोकने के लिए कदम उठाए जो एक सही नीति थी।"
सोमवार को कम्युनिस्ट पार्टी के अखबार ग्लोबल टाइम्स के अंग्रेजी संस्करण में छपी संपादकीय में लिखा गया है कि 1989 में "दंगे" ने "चीन की उत्पात से प्रतिरक्षा की।" इसमें यह भी लिखा गया है कि पुराने छात्र नेताओँ और विदेशी राजनेता इसकी सालगिरह को चीन पर हमले के मौके के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। इस संपादकीय में सेना की कार्रवाई और उसके बाद हुए दमन के बारे में कुछ नहीं लिखा है।
इस आधिकारिक रवैये को देखते हुए इस बात की उम्मीद नहीं की जा सकती कि 1989 के विरोध का नए तरीके से आकलन किया जाएगा। मौजूदा वक्त के नेताओं का उस घटना से कोई सीधा संबंध नहीं है लेकिन फिर भी उस प्रकरण में दोबारा जाने से पार्टी की प्रतिष्ठा को धक्का पहुंच सकता है, खासतौर से आज की युवा पीढ़ी में जो आज के वैभव को देख रही है और 1989 के बारे में बहुत कम या फिर बिल्कुल नहीं जानती।
चीन लोगों से राष्ट्रभक्ति और साम्यवादी क्रांति के पीछे खड़े होने की अपील करता है जिसने पार्टी को देश की सत्ता पर 1949 में काबिज किया लेकिन उनका भरोसा अब खोखला होने लगा है। एक दुखद बदलाव यह आया है कि चीन में मार्क्सवाद पर सचमुच विश्वास करने वाले लोग कम्युनिस्ट पार्टी के प्रति उदासीन हो रहे हैं।
पेकिंग यूनिवर्सिटी में मार्क्सवादी छात्रों पर हाल ही में हुई सख्त कार्रवाई इस बात का बड़ा उदाहरण है कि सत्ता किस तरह से खुद को असुरक्षित महसूस कर रही है और बुनियादी मानवाधिकारों को रौंदना चाहती है। चीन का घरेलू सुरक्षा का बजट अब उसके रक्षा बजट को पार कर गया है। इसके अलावा रक्षा बजट का 20 फीसदी पीपुल्स आर्म्ड पुलिस पर खर्च होता है जो एक आंतरिक सुरक्षा बल है। अर्थव्यवस्था की रफ्तार सुस्त है और ऐसे में उस पर दबाव बढ़ता जा रहा है।
इसके अलावा भी कई तरह के नए कदम उठाए जा रहे हैं। इनमें एक सोशल क्रेडिट सिस्टम भी है जिसमें हर नागरिक के डिजिटल, आर्थिक और सामाजिक रवैये के बारे में आंकड़े जुटाए जाते हैं। इसके आधार पर लोगों के नौकरी पाने से लेकर ट्रेन की टिकट खरीदने तक पर रोक लगाई जा सकती है। इतना होने के बाद भी चीन राजनीतिक स्थिरता और हिंसा की गैरमौजूदगी के बारे में जारी ग्लोबल रैंकिंग में बहुत नीचे है। यहां तक कि श्रीलंका, ग्रीस और मोल्दोवा जैसे देश भी उससे ऊपर हैं।