लगातार दूसरी बार करारी हार के बाद कांग्रेस नेता राहुल गांधी के नेतृत्व पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं। इसके साथ ही दुनिया की सबसे प्रभावशाली राजनीतिक परिवार की विरासत के खत्म होने का भी खतरा मंडराने लगा है।
राहुल गांधी ने इस चुनाव में ना सिर्फ परिवार की सीट गंवाई है बल्कि आने वाले दिनों में पार्टी के नेताओं की खरीखोटी सुनने के हालात भी पैदा कर लिए हैं। पीढ़ियों से कांग्रेस की सेवा में अपने को प्रस्तुत करने वाले लोगों के चेहरे पर निराशा साफ देखी जा सकती है। ये वो लोग हैं जिन्हें गांधी नेहरू परिवार का तिलिस्म चुनाव में जीत का सबसे बड़ा हथियार लगता है। ठीक वैसे ही जैसे कि अमेरिका में केनेडी के वंशज या फिर पाकिस्तान में भुट्टो का खानदान।
पिछली बार मोदी लहर होने की बात कही जा रही थी और उसे बीजेपी की सबसे बड़ी जीत कहा गया। तब कांग्रेस के खाते में 44 सीटें आई थी। उम्मीद की गई कि कांग्रेस इस बार बढ़िया प्रदर्शन करेगी लेकिन अंत में उसके हिस्से महज 50 सीटें ही आईं। हालत ये है कि कांग्रेस पार्टी को देश के 17 राज्य और केंद्रशासित क्षेत्रों में एक भी सीट नहीं मिली है। कांग्रेस पार्टी के नौ पूर्व मुख्यमंत्रियों को हार का मुंह देखना पड़ा है। यह पहला चुनाव था जिसमें राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष थे और पार्टी पूरी तरह उनके कमान में थी।
राहुल गांधी से जब इस हार की जिम्मेदारी के बारे में पूछ गया तो उनका कहना था, "यह मेरी पार्टी और मेरे बीच की बात है। यह मेरे और कांग्रेस वर्किंग कमेटी के बीच है।" पार्टी के प्रवक्ताओं का कहना है कि राहुल गांधी इस्तीफा नहीं देंगे और चुनावी हार के लिए खराब रणनीति को जिम्मेदार माना जाएगा।
कांग्रेस प्रवक्ता सलमान सोज ने समाचार एजेंसी एएफपी से कहा, "हमें फिर से अपनी रणनीति पर विचार करना होगा।" राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि पार्टी और उसके कर्ताधर्ता जिम्मेदारी से बच रहे हैं। नई दिल्ली के ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन से जुड़ी कंचन गुप्ता कहती हैं, "साफ तौर पर कांग्रेस नेतृत्व नाकाम हो गया है। यह एक अविश्वसनीय और दिवालिया नेतृत्व है।"
कांग्रेस पार्टी पिछले एक सदी से एक परिवार की ही पार्टी रही है। पार्टी की कामयाबी और असफलता के साथ ही उसके अंदर की उठापटक भारत के लोगों को स्पंदित करती रही है। आजादी से पहले मोती लाल नेहरू कांग्रेस पार्टी के दो बार अध्यक्ष रहे। आजादी मिलने पर उनके बेटे जवाहर लाल नेहरू देश के पहले प्रधानमंत्री बने और 1964 में मृत्यु होने तक वो इसी पद पर रहे। इसके बाद उनकी बेटी इंदिरा गांधी और फिर उनकी हत्या के बाद इंदिरा के बेटे और राहुल गांधी के पिता देश के प्रधानमंत्री रहे। बाद में राहुल की मां सोनिया गांधी ने पार्टी की कमान संभाली और दो चुनावों में पार्टी को जीत दिलाई। सोनिया गांधी खुद प्रधानमंत्री नहीं बनी लेकिन पार्टी में रह कर ही उन्होंने सत्ता पर मजबूत नियंत्रण रखा।
पार्टी के कदम तभी से लड़खड़ा गए हैं जब से इसमें राहुल गांधी का प्रभाव बढ़ा है। 2014 के चुनाव से पहले व्यावहारिक तौर पर पार्टी का नेतृत्व उनके हाथ में आ गया था। मोदी और बीजेपी ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कांग्रेस पार्टी को इस तरह घेरा कि बीजेपी के लिए वोटों का पिटारा खुल गया। आजाद भारत में कांग्रेस के अलावा पहली बार किसी एक पार्टी को इतनी सीटें मिली। बीजेपी ने ना सिर्फ मजबूती के साथ पांच साल सरकार चलाई बल्कि अब उसने और बड़ी जीत के साथ दूसरा कार्यकाल भी हासिल कर लिया।
आलोचकों का कहना है कि राहुल गांधी वोटरों के साथ उस तरह का संवाद कायम करने में नाकाम हुए हैं जैसा कि नरेंद्र मोदी का है। नेहरू गांधी का नाम जो कांग्रेस के लिए पूंजी रहा है वही अब उसके लिए बोझ साबित हो रहा है। कारवां पत्रिका के संपादक हरतोष सिंह बल कहते हैं कि कांग्रेस का "प्रचार अभियान बिल्कुल असफल था और अब उनका अस्तित्व ही सवालों के घेरे में है। यह जितना लंबा रहेगा बीजेपी को उतना फायदा होगा।"
राहुल गांधी ने इस बार प्रचार में प्रियंका गांधी को भी मजबूती से उतारा लेकिन उनकी मौजूदगी भी वोटरों को लुभाने में नाकाम रही। कंचन गुप्ता का कहना है, "राहुल की पार्टी भले ही भीड़ जुटा ले लेकिन वो लोगों से खुद को जोड़ नहीं पाते हैं।" कंचन गुप्ता यह भी कहती हैं कि कांग्रेस पार्टी की गरीबों को धन देने जैसी पुरानी नीतियां आज के "भारत की आकांक्षाओं" को पूरा करने में अक्षम है।
द हिंदू अखबार की राजनीतिक संपादक निस्तुला हेब्बार कहती हैं, "यह फैसला पूरी तरह से कांग्रेस को ही करना है कि क्या वह राहुल गांधी को बचाना चाहती है, जैसा कि पहले कई बार किया गया है। अगर वो ऐसा करते हैं तो पार्टी के लिए अपनी मौजूदा स्थिति को बदल पाना बेहद मुश्किल होगा।"
राहुल गांधी के पार्टी का नेता बनने से पहले ही कांग्रेस के कई दिग्गज पार्टी छोड़ चुके हैं। महाराष्ट्र के नेता शरद पवार और पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी इनमें प्रमुख हैं। विश्लेषकों का कहना है कि पार्टी में युवा नेताओं की कमी नहीं है और उन्हें आगे लाया जाना चाहिए लेकिन उन्हें नहीं लगता कि गांधी परिवार अपना अधिकार छोड़ेगा। बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में राजनीति पढ़ाने वाले हेमंत कुमार मालवीय कहते हैं, "गांधी परिवार के लिए यहां से कांग्रेस को खड़ा करना बेहद मुश्किल है।"