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नोटबंदी ने समाज को नंगा कर दिया

ओंकार सिंह जनौटी

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भारत में अब तक नेताओं, अफसरों और पुलिसवालों की ही भ्रष्ट बताया जाता था, लेकिन नोटबंदी ने भारतीय समाज को आईना दिखा दिया है।
 
रात में जब खाना खाएं तो ईमानदारी से सड़क पर पैसा मांगने वाले बच्चे की कल्पना करें। सोचें कि आखिरी बार उसने दूध कब पिया होगा, क्या उसके पास भी पेंसिल बॉक्स है? फिर सरकारी अस्पताल की कल्पना करें, जहां हमेशा एक अजीब तरह की गंध होती है। खचाखच भीड़ में कई निराश आंखें होती हैं। पांच या दस रुपए की पर्ची कटाने के बाद भी उन्हें भगवान भरोसे बैठना पड़ता है। फिर लोगों से खचाखच भरी बसों या तिपहिया वाहनों की कल्पना करें जिनमें बैठे लोग, कारों की तरफ कौतूहल से देखते हैं।
 
लेकिन इनका नोटबंदी से कोई संबंध है? हां, बिल्कुल है। अरबों रुपए घर में दबाकर रखने वाले समाज ने कई दशकों ने इन्हीं लोगों का हक मारा है। जो पैसा टैक्स के जरिये सरकार और फिर इन जनसेवाओं तक पहुंचना चाहिए था, वो तिजोरियों में बंद रहा, बिल्कुल बेनामी ढंग से। भारत में गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या करीब 23 फीसदी है। इनकम टैक्स देने वाले सिर्फ 2 फीसदी लोग हैं। बाकी के 75 फीसदी कहां हैं, उनका पैसा कहां है? क्या केंद्र और राज्य की सरकारें विदेशी बैंकों से कर्ज लेकर अस्पताल और स्कूल चलाती रहें, सड़कें बनवाएं, नौकरियां दें और दो फीसदी लोग टैक्स को बोझ ढोते रहें, बाकी बस दो नंबर करें और मजा लूटें। यह काहिली की इंतहां है।
 
लाखों लोग अब भी पैसा ठिकाने लगाने का जुगाड़ खोज रहे हैं। नोटबंदी की घोषणा होते ही सुबह तक सुनारों की दुकानें खुली रहीं, करोड़ों का सोना खरीदा गया। सैकड़ों जगहों पर करोड़ों रुपये या तो जब्त हो रहे हैं या फेंके, जले या बहे हुए मिल रहे हैं। ट्रेनों के फर्स्ट क्लास के टिकटों में 2000 फीसदी का उछाल आ चुका है। पेट्रोल पंपों पर मेला लगा हुआ है। सहकारिता के नाम पर खुले हजारों बैंकों ने नोटबंदी होते ही करोड़ों के काले धन को सफेद बना दिया. यही वजह थी कि कुछ राज्यों में रिजर्व बैंक को जिला सहकारी बैंकों के लेन देन पर प्रतिबंध लगाना पड़ा। दिल्ली समेत कई महानगरों और यहां तक कि छोटे शहरों में भी 30 परसेंट या 40 परसेंट लेकर बेनामी पैसे को व्हाइट करने का सिलसिला चल ही रहा है। और पैसे बदलवाने के चक्कर में सिर्फ नेता और पुलिसवाले नहीं हैं। आस पास ऐसे कई मामले निकल रहे हैं जहां आम दिखने वाले लोग पैसा ठिकाने लगाने के लिए इमरजेंसी प्लानिंग में जुटे हैं। गेंहू के साथ घुन भी पिसता है, ये कहावत भारत में आम है। फिलहाल इसका सटीक उदाहरण भी दिखाई दे रहा है।
 
टैक्स फ्री रही नकदी पर मचे कोहराम ने आम लोगों को भी काफी परेशान कर रखा है। बेहतर तैयारी से शायद इस आपाधापी को कम किया जा सकता था। लेकिन तर्कसंगत आलोचना के साथ ही कुछ बेतुके स्वर भी उठ रहे हैं. टैक्स चुराकर जिन गरीबों का अप्रत्यक्ष रूप से शोषण किया गया आज कुछ लोग उन्हीं की आड़ ले रहे हैं। कहा जा रहा है कि नौकरों या मजदूरों का बैंक खाता नहीं है। लेकिन ऐसी दलील देने वाले कितने लोगों ने कम आय वाले लोगों को 350 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से न्यूनतम वेतन दिया। सैलरी रजिस्टर बनाया? क्या हफ्ते में एक दिन छुट्टी दी गई? साल में 28 या 30 की पेड छुट्टी इन लोगों को भी दी? उनका बीमा या फंड बनाया? मजदूर महिलाओं को प्रसव अवकाश दिया? नहीं, ये सब देने के बजाए टैक्स चुराया और उन्हें झुग्गियों में जीने पर मजबूर किया।
 
असल में भारत में एक ऐसा वर्ग है जो अपना काम हर तिकड़म कर पूरा करवा लेता है। वो बाकी लोगों को भी ऐसा करने के लिए बाध्य या आकर्षित करता है। बीते दशकों के आर्थिक विकास के साथ यह वर्ग लगातार बड़ा होता गया, इसमें कई पेशों के लोग जुड़ते गए और देश ज्यादा भ्रष्ट होता गया। यकीन न आए तो अपनी जेब से ड्राइविंग लाइसेंस निकालिए और देखिये कि वह कैसे बना। बच्चों के नर्सरी एडमिशन का झमेला याद कीजिए. सरकारी अस्पताल में किसी बड़े टेस्ट के लिए लगाई जुगत याद कीजिए।
 
इसमें कोई शक नहीं कि भारतीय समाज भ्रष्टाचार के कैंसर से जूझ रहा है। पैसे का भ्रष्टाचार अपने साथ अहंकार और मूल्यों का पतन भी लाया। वरना बलात्कार के वीडियो बिक नहीं रहे होते। नोटबंदी इसका पूरा इलाज नहीं है। लेकिन यह एक बड़ा कदम है। प्लानिंग की कमजोरी के लिए सरकार की आलोचना की जा सकती है। लेकिन जरूरत उस आईने को देखने की भी है जो बता रहा है कि आम जनमानस भी किस कदर भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है। इस कदम से ईमानदार लोगों को प्रोत्साहन मिलेगा और ऐसे प्रोत्साहन में बुराई है क्या? इन सब तर्कों के बाद भी कई लोग नुकसान की भरपाई करने की तैयारी कर रहे हैं। जागरूक समाज उन्हें रोक सकता है वरना फिर जुगाड़बाजी होती रहेगी और जरूरतमंदों के हकों की बलि चढ़ती रहेगी।
 

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