भारत में काम के घंटे पर नए सिरे से तेज होती बहस
इंफोसिस के संस्थापक एनआर नारायण मूर्ति और एल एंड टी के एसएन सुब्रमण्यम पहले ही क्रमशः 70 और 90 घंटे काम करने की सलाह देकर विवाद पैदा कर चुके हैं। अब बेंगलुरु के एक उद्यमी ने काम के घंटों पर नए सिरे से बहस छेड़ दी है।
प्रभाकर मणि तिवारी
हाल के महीनों में इस पर काम के घंटे पर बहस लगातार तेज होती रही है। तेलंगाना सरकार ने भी इसी सप्ताह व्यावसायिक इकाइयों (उद्योगों और कारखानों) के लिए रोजाना 10 घंटे तक काम के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है। कर्नाटक सरकार ने भी काम के घंटे को मौजूदा नौ से बढ़ा कर दस करने का प्रस्ताव दिया है। दो घंटे के ओवरटाइम के साथ यह समय 12 घंटे तक हो सकता है। ट्रेड यूनियनें सरकार के इस प्रस्ताव का कड़ा विरोध कर रही हैं।
अब बेंगलुरु के एक उद्यमी ने यह खुलासा करके इस बहस को नए सिरे से हवा दे दी है कि उनके कर्मचारी सप्ताह में छह दिन रोजाना 12 घंटे काम करते हैं। सोशल मीडिया पर इसके खिलाफ दलीलों की बाढ़ आ गई है।
क्या है ताजा मामला?
बेंगलुरु में मोबाइल गेमिंग ऐप बनाने वाली स्टार्टअप कंपनी मैटिक्स के को-फाउंडर मोहन कुमार ने अपने एक एक्स पोस्ट में बताया था कि उनकी कंपनी में कर्मचारी रोजाना सुबह 10 से रात 10 यानी 12 घंटे काम करते हैं। उनमें से कई लोग रविवार को भी काम करते हैं। उनका कहना था कि दफ्तर का समय 10 से 10 बजे तक है। लेकिन कर्मचारी रात दस बजे के बाद भी काम करते रहते हैं। कुमार की दलील थी, "कुछ लोग इसकी आलोचना कर सकते हैं। लेकिन अगर हमें भारत में वैश्विक स्तर का उत्पाद बनाना है तो ऐसा करना ही होगा। हमें नौकरी की मानसिकता से निकल कर सृजन की मानसिकता में आना होगा।"
लेकिन उनके इस पोस्ट पर टिप्पणियों की बाढ़ आ गई है। एक व्यक्ति ने लिखा कि कोई भी व्यक्ति सप्ताह में 40-50 घंटे से ज्यादा उसी ऊर्जा के साथ काम नहीं कर सकता। एक अन्य व्यक्ति ने लिखा है, "आप कंपनी में कर्मचारियों को कितनी इक्विटी देंगे?" कई लोगों ने इसे गुलामी और शोषण बताते हुए काम और जीवन में संतुलन का सवाल उठाया है। कुमार का कहना था कि उनकी टीम में 12 पूर्णकालिक कर्मचारी हैं। वो सभी सप्ताह के छहों दिन दफ्तर आते हैं। यह अनिवार्यता की वजह से नहीं बल्कि काम ही ऐसा है जो घर बैठे नहीं हो सकता।
इस मुद्दे पर बढ़ते विवाद के बाद मोहन ने हालांकि अपनी पोस्ट डिलीट कर दी है। लेकिन अपनी सफाई में कहा है, "कोई भी सुबह 10 बजे तक दफ्तर नहीं पहुंचता। हम दफ्तर में पोकर खेलते हैं और नेटफ्लिक्स पर फिल्में और सिरीज देखते हैं। यहां कोई नौकरी नहीं कर रहा बल्कि हम सब मिल कर भविष्य के लिए विश्वस्तरीय उत्पादन बनाने में जुटे हैं।" उनका दावा है कि किसी से जबरन 12 घंटे काम नहीं कराया जाता। लेकिन ज्यादातर लोगों में काम करने की अदम्य इच्छाशक्ति है। इसी वजह से वो ऐसा करते हैं।
कर्नाटक सरकार के फैसले पर सवाल
इस बीच, कर्नाटक सरकार के एक फैसले पर भी सवाल उठ रहे हैं। दरअसल, राज्य की कांग्रेस सरकार काम के घंटे बढ़ाने और ओवरटाइम को लेकर नया नियम लाने की सोच रही है। इसके मुताबिक, काम के घंटे और ओवरटाइम की सीमा बढ़ जाएगी। सरकार कर्नाटक शॉप्स एंड कमर्शियल एस्टेब्लिशमेंट्स एक्ट, 1961 में बदलाव करने पर विचार कर रही है। इसके बाद रोजाना काम का समय नौ से 10 और दो घंटे का ओवरटाइम जोड़ कर 12 घंटे तक हो जाएगा।
सरकार की दलील है कि इससे आईटी और सर्विस सेक्टर में कारोबार करना आसान हो जाएगा। लेकिन कर्मचारी यूनियन और सामाजिक संगठन इसका विरोध कर रहे हैं। सरकार के इस फैसले पर सोशल मीडिया पर भी बहस छिड़ गई है। एक व्यक्ति ने 'एक्स' पर लिखा है, 'नारायण मूर्ति का बहुत पुराना सपना आखिरकार सच हो गया।' एक अन्य व्यक्ति ने लिखा है, "क्या काम के घंटे के साथ वेतन बढ़ाने की बात भी कहीं कही जा रही है?"
ट्रेड यूनियनों ने इस प्रस्ताव की आलोचना करते हुए इसे आधुनिक दौर की गुलामी करार दिया है। उनका कहना है कि 12 घंटे काम करने से कर्मचारियों का शोषण होगा। इससे कर्मचारियों पर दबाव बढ़ेगा और उनकी सेहत और निजी जीवन पर बेहद प्रतिकूल असर पड़ेगा।
आईटी सेक्टर के कर्मचारियों के संगठन कर्नाटक स्टेट आईटी/आईटीईएस इंप्लाइज यूनियन (केआईटीयू) के महासचिव सुहास अदिगा डीडब्ल्यू से कहते हैं, "आईटी सेक्टर में ज्यादातर कर्मचारी युवा हैं और उनमें बढ़ते तनाव के कारण पहले ही मौत और आत्माओं की घटनाएं होती रही हैं। सरकार के ताजा प्रस्ताव से उनका जीवन बदतर हो सकता है। यह आधुनिक गुलामी है। राज्य में इस सेक्टर में करीब बीस लाख कर्मचारी काम करते हैं।"
संगठन ने सरकार से इस फैसले पर पुनर्विचार की अपील की है। इस मुद्दे पर जारी बरस के बीच ही तेलंगाना सरकार ने कॉमर्शियल इकाइयों (उद्योगों और कारखानों) के लिए हर रोज 10 घंटे तक काम के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है। सरकार की ओर से पांच जुलाई को इस आशय का एक आदेश जारी किया गया है।
क्या कहते हैं लोग?
आईटी या कॉर्पोरेट सेक्टर में काम करने वाले ज्यादातर लोग काम के घंटे बढ़ाए जाने के खिलाफ हैं। एक बिग 4 कंपनी में कंसल्टेंट के तौर पर काम करने वाली नेहा (बदला हुआ नाम) डीडब्ल्यू से कहती है, "काम के घंटे कहीं तय नहीं हैं। लेकिन इसे कानूनी जामा पहनाने की स्थिति में कंपनियों के लिए कर्मचारियों के शोषण का रास्ता खुल जाएगा।" कहने को नेहा की ड्यूटी नौ घंटे की ही है। लेकिन अक्सर उनको प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए सप्ताह में पांच दिन औसतन रोजाना 10-11 घंटे काम करना पड़ता है।
खासकर स्टार्टअप कंपनियों में तो और बुरी स्थिति है। एक आईटी कंपनी में काम करने वाले शुभम मोहंती को एक स्टार्टअप से नौकरी का ऑफर मिला था। लेकिन उसकी शर्तें बेहद मुश्किल थी। पहले तो सप्ताह में छह दिन काम और रोजाना दफ्तर जाना था। लेकिन वेतन में महज 25 फीसदी वृद्धि होनी थी। शुभम कहते हैं, "फिलहाल मैं सिर्फ दो दिन दफ्तर जाता हूं और बाकी तीन दिन घर से काम करता हूं। सप्ताह में दो दिन छुट्टी होती है। लेकिन नई कंपनी में छह दिन दफ्तर जाना पड़ता। बेंगलुरु की ट्रैफिक में ऐसा करना किसी सजा से कम नहीं है।"
बेंगलुरू के एक कॉलेज में समाज विज्ञान के प्रोफेसर रहे डॉ. जेके शेट्टी कहते हैं, "आईटी और कारपोरेट सेक्टर में कर्मचारी पहले से ही काम के भारी बोझ तले कराह रहे हैं। अब काम के घंटे बढ़ाने जैसा सुझाव उनकी कमर ही तोड़ देगा। लेकिन अब सरकार भी इसी राह पर चल रही है। काम के दबाव के मुकाबले वेतन में वैसी बढ़ोतरी नहीं हो पाती। यही वजह है कि हाल के महीनों में नौकरी छोड़ कर अपना काम शुरू करने वाले युवाओं की तादाद बढ़ी है।"