दुर्गा पूजा को यूनेस्को की मान्यता पर विवाद क्यों?
कोलकाता की दुर्गा पूजा को 2021 में यूनेस्को की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत की सूची में जोड़ा गया। अब प्रदेश राजनीति में सवाल गर्म है कि किस दल के प्रयास से यह मुमकिन हो पाया। बीजेपी और टीएमसी, दोनों खुद को श्रेय दे रही हैं।
प्रभाकर मणि तिवारी
पश्चिम बंगाल में दुर्गा पूजा पर राजनीतिक खींचतान हो रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने कार्यक्रम 'मन की बात' में दावा किया कि दुर्गा पूजा को यूनेस्को के अमूर्त सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में शामिल कराने में केंद्र सरकार का प्रयास था।
सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) ने मोदी पर झूठे दावे करने का आरोप लगाते हुए उनके दावे का खंडन किया।अगले साल राज्य में विधानसभा चुनाव होने हैं।
कैसे मिलती है यूनेस्को की सूची में जगह?
समाजशास्त्र के प्रोफेसर रहे डा। सुशांत कुमार गांगुली ने डीडब्ल्यू हिंदी के साथ इस प्रक्रिया के विभिन्न पक्षों पर बात की। उन्होंने बताया कि यूनेस्को के अमूर्त विरासतों की सूची में किसी त्योहार को शामिल करने के लिए केंद्र सरकार का संस्कृति मंत्रालय सिफारिश करता है।
सिफारिश के साथ उस त्योहार का महत्व बताते वाले जरूरी दस्तावेज भी भेजे जाते हैं। उसके बाद यूनेस्को की एक समिति विभिन्न पहलुओं का मूल्यांकन करने के बाद फैसला करती है। डॉ। सुशांत बताते हैं कि सूची में शामिल होने के बाद संबंधित त्योहार की वैश्विक पहचान बनती है और उसके संरक्षण में सहायता मिलती है।
वह आगे बताते हैं कि कोलकाता की दुर्गा पूजा को भव्य आयोजन और व्यापक सामाजिक, धार्मिक व कलात्मक मूल्यों के कारण वर्ष 2021 यूनेस्को सूची में जगह मिली थी। इसके बाद कोलकाता समेत पूरे राज्य में आयोजनों की भव्यता बढ़ने के साथ ही टर्नओवर भी तेजी से बढ़ा है।
केंद्र और राज्य सरकार के बीच श्रेय को लेकर विवाद
दुर्गा पूजा को मान्यता मिलने के बाद चार साल तक केंद्र सरकार ने कोई दावा नहीं किया था। बीजेपी ने जरूर इसका श्रेय लेते हुए पीएम मोदी को धन्यवाद कहा था। वहीं, ममता बनर्जी ने भी इसका श्रेय लेते हुए दशहरे के बाद कोलकाता में पूजा कार्निवाल का आयोजन शुरू किया।
इस साल 28 सितंबर को प्रसारित 'मन की बात' कार्यक्रम में मोदी ने कहा कि केंद्र सरकार छठ पूजा को यूनेस्को की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत की सूची में शामिल करने का प्रयास कर रही है। उन्होंने कहा कि छठ पूजा को यूनेस्को सूची में शामिल किए जाने पर दुनिया के हर एक कोने में लोग इस पर्व की "भव्यता और दिव्यता" का अनुभव कर पाएंगे।
इसी संदर्भ में कोलकाता की दुर्गा पूजा का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि कुछ साल पहले केंद्र सरकार के प्रयासों के कारण ही दुर्गा पूजा को इस सूची में जगह मिली थी। उनके बयान के बाद इस मुद्दे पर नए सिरे से विवाद शुरू हो गया। प्रदेश में सत्तारूढ़ टीएमसी ने प्रधानमंत्री पर चुनाव को ध्यान में रखते हुए झूठ बोलने का आरोप लगाया है।
टीएमसी के प्रवक्ता कुणाल घोष ने आरोप लगाया, "प्रधानमंत्री झूठ बोल रहे हैं। राज्य की वाममोर्चा सरकार ने कभी दुर्गा पूजा पर ध्यान नहीं दिया था। ममता बनर्जी सरकार ने सत्ता संभालने के बाद पूजा की विरासत, अर्थव्यवस्था, रोजगार के मौके और इसको विश्वव्यापी बनाने जैसे तमाम पहलुओं पर ध्यान दिया।"
उन्होंने डीडब्ल्यू से बात करते हुए कहा, "इसे यूनेस्को की सूची में शामिल करने के लिए संबंधित तमाम फाइलें राज्य सरकार ने तैयार की थीं।" कुणाल घोष के मुताबिक, अगर किसी मामले में केंद्र डाकिए की भूमिका निभाता है तो उसका श्रेय उसे नहीं मिल सकता।
बंगाल की वित्त राज्य मंत्री चंद्रिमा भट्टाचार्य ने डीडब्ल्यू से कहा, "पूजा को वर्ष 2021 में यूनेस्को की उस सूची में जगह मिली थी। मुख्यमंत्री ने पहल करके तमाम दस्तावेज और आवेदन की प्रक्रिया पूरी की थी। उस दौर में प्रधानमंत्री लगातार बंगाल के दौरे पर थे, लेकिन उन्होंने कभी इस मुद्दे पर कोई टिप्पणी नहीं की।"
चंद्रिमा भट्टाचार्य ने सवाल किया कि प्रधानमंत्री साल 2025 में अचानक यह श्रेय क्यों ले रहे हैं? क्या यह अगले साल के विधानसभा चुनाव की तैयारी का हिस्सा है?
उधर बीजेपी का कहना है कि भारतीय संस्कृति को वैश्विक स्तर पर मान्यता दिलाने में मोदी सरकार के योगदान की अनदेखी नहीं की जा सकती। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष शमीक भट्टाचार्य ने कोलकाता में पत्रकारों से बात करते हुए कहा, "केंद्र की सिफारिश के बिना किसी त्योहार को यूनेस्को की सूची में जगह नहीं मिल सकती। यह बात ममता भी जानती हैं। तृणमूल कांग्रेस इस मुद्दे पर बेवजह विवाद खड़ा करने का प्रयास कर रही है।"
शमीक भट्टाचार्य का आरोप है कि टीएमसी दुर्गा पूजा को राजनीतिक हथियार बनाने का प्रयास कर रही है।
दुर्गा पूजा की शुरुआत कब हुई, इसपर मतभेद
बंगाल में दुर्गा पूजा कब शुरू हुई, इसकी कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि पश्चिम बंगाल में दुर्गा पूजा का आयोजन साल 1757 में प्लासी की लड़ाई के बाद शुरू हुआ। इस युद्ध में बंगाल के शासक नवाब सिराजुद्दौला की हार हुई थी। इस धारणा के अनुसार, लड़ाई में अंग्रेजों की जीत पर ईश्वर को धन्यवाद देने के लिए पहली बार दुर्गा पूजा का आयोजन हुआ था।
लेकिन कई इतिहासकार यह भी दावा करते हैं कि दुर्गा पूजा की शुरुआत नौवीं सदी में हुई। कुछ लोग मानते हैं कि ताहिरपुर के एक जमींदार नारायण ने सबसे पहले इस पूजा का आयोजन किया था। समाजशास्त्री विश्वनाथ घोष ने डीडब्ल्यू को बताया, "शुरुआत पर मतभेद भले हो, लेकिन यह उत्सव बंगाल और बंगालियों के सामाजिक जीवन का अहम हिस्सा बन चुका है।"
उद्योग और रोजगार का बड़ा जरिया है यह त्योहार
खबरों के मुताबिक, पश्चिम बंगाल में इस साल 45 हजार से ज्यादा पंडाल बनाए गए हैं। इनमें से करीब 4,500 अकेले राजधानी कोलकाता और उसके आस-पास हैं। कई पंडालों का बजट करोड़ों रुपये में है। दुर्गा पूजा आयोजनों का टर्नओवर बढ़ता जा रहा है।
राज्य सरकार के आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2013 में यह आंकड़ा करीब 25,000 करोड़ था। बीते साल यह टर्नओवर 80 हजार करोड़ रुपये तक पहुंच गया। 'इंडियन चैंबर ऑफ कॉमर्स' अनुमान जता चुका है कि साल 2030 तक दुर्गा पूजा का टर्नओवर एक लाख करोड़ रुपए तक पहुंच जाएगा।
ममता बनर्जी सरकार ने वर्ष 2018 में आयोजन समितियों को 10-10 हजार रुपए का अनुदान देने की शुरुआत की थी। इस साल अनुदान की रकम बढ़कर 1.10 लाख तक पहुंच गई है।
राजनीतिक विश्लेषक शिखा मुखर्जी ने डीडब्ल्यू से बातचीत में बताया, "हाल के वर्षों में पश्चिम बंगाल की पूजा सियासत के सबसे बड़े मंच के तौर पर उभरी है। ऐसे में सत्ता के दावेदार राजनीतिक दल इस दौरान राजनीतिक तौर पर बेहद सक्रिय रहते हैं। इसे यूनेस्को की सूची में जगह दिलाने के दावे भी इसी कवायद का हिस्सा हैं, लेकिन आम लोगों पर इस विवाद का असर शायद ही पड़े।"