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लद्दाख में जंगल लगाया तो क्या पेड़ पानी चुरा लेंगे

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DW

, गुरुवार, 18 अगस्त 2022 (08:11 IST)
हिमालय में लद्दाख के ठंडे रेगिस्तान में कुछ लोगों ने जंगल लगाने की ठानी है। यहां लगाये जा रहे लाखों पेड़ों से इलाके को कहीं नुकसान तो नहीं होगा? कुछ इकोलॉजिस्टों को आशंका है कि पेड़ पानी चुरा कर संकट बढ़ा सकते हैं।
 
हिमालय में बसा चुषुल गांव समुद्र तल से करीब 1400 फीट की ऊंचाई पर लद्दाख के इलाके में है। भारत और चीन के बीच मौजूद इस ठंडे बियाबान में सालाना चार इंच से भी कम बारिश होती है। कुछ मौसमों में तापमान की अत्यधिक उठापटक की वजह से यहां कुछ भी उगाना मुश्किल है। इसके बाद भी गांव के कुछ लोगों ने ठान लिया कि यहां 150,000 पेड़ लगायेंगे।
 
ज्ञान थिनले यहां लगाये दसियों हजार पौधों को सींचने वाले पड़ोसियों को देख कर उत्साह से भर जाते हैं। रूखे-सूखे बियाबान को कीड़े, मकोड़ों और चिड़ियों से भरी हरियाली में बदलने का यह अभियान कुछ ही महीने पहले शुरू हुआ है। गांव के लोगों को उम्मीद है इन पेड़ों के दम पर वो वायु प्रदूषण का सामना करने के साथ ही जैव विविधता को बढ़ाने और अपने लिये आय का एक जरिया ढूंढने में सफल होंगे। इनमें मुख्य रूप से विलो, झाउ और बकथॉर्न के पेड़ हैं। यहां के लोगों की पारंपरिक आजीविका मवेशियों को पालना है।
 
बौद्धभिक्षु और 'गो ग्रीन गो ऑर्गेनिक' के चुषुल डेपुटी चेयरमैन थिनले कहते हैं, "हम अपने चारों ओर रूखे पहाड़ देखते रहे हैं, अब हम हरियाली देखने के इंतजार में हैं। ये पेड़ किसानों को उनके मवेशियों के लिये चारा भी देंगे।" पेड़ लगाने का अभियान गैरलाभकारी संगठन 'गो ग्रीन गो ऑर्गेनिक' ने ही शुरू किया है।
 
रेगिस्तान में जंगल से नुकसान?
कंपनियां, सरकारें और पर्यावरण संगठन पौधारोपण को बढ़ावा दे रहे हैं ताकि बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन के असर को नियंत्रित किया जा सके।
 
कुछ इकोलॉजिस्ट चेतावनी दे रहे हैं कि ऐसे इलाकों में जहां प्राकृतिक रूप से जंगल नहीं हैं वहां  "बिना सोचे समझे" पेड़ उगाने से वहां के नाजुक और अलग इकोसिस्टम को नुकसान हो सकता है। बेंगलुरू में अशोका ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड द इनवायरनमेंट में सेंटर फॉर पॉलिसी डिजाइन के अंतरिम निदेशक अबी तमीम वानक का कहना है, "रेगिस्तान में जंगल उगाना उतना ही नुकसानदेह है जितना कि जंगल में पेड़ काटना।"
 
इससे मूलनिवासी पौधों और जंगली जीवों के लिये समस्या होगी। वानक ने ध्यान दिलाया लद्धाख के स्नो लेपर्ड और ब्लू शीप जंगल के इकोसिस्टम के लिये अनुकूलित नहीं हैं। उन्होंने कहा, "ऐसी जगहों पर जहां लोग नहीं रहते वहां पेड़ लगाने से मूलनिवासियों के आवास को नुकसान होगा और वन्य जीव उनका इस्तेमाल नहीं करेंगे।"
 
पानी चुरायेंगे पेड़
भारत में बड़े पैमाने पर विकास ने जंगलों का नुकसान किया है और यह जलवायु परिवर्तन का एक प्रमुख कारण है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि खनन, सड़क बनाने और पनबिजली या फिर दूसरे बुनियादी ढांचे से जुड़े निर्माणों ने कुल 554।3 वर्ग मीटर जंगल महज पिछले तीन सालों में ही निगल लिया।
 
लद्दाख के ठंडे रेगिस्तान और दक्षिण एशिया के दूसरे इलाकों में जलवायु में हो रहा बदलाव किसानों के फसल चक्र को बिगाड़ रहा है और बाढ़ के खतरे बढ़ा रहा है। भारत के मौसम विभाग से जुड़े वैज्ञानिक मुख्तार अहमद कहते हैं, "ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं जबकि बारिश और बर्फभारी के पैटर्न में तेजी से बदलाव हो रहा है, इसके साथ ही बादल फटने जैसी उग्र मौसमी घटनाएं बार-बार हो रही हैं।" हालांकि, अहमद ने यह भी कहा कि इनमें जलवायु परिवर्तन का योगदान कितना है यह बताना मुश्किल है।
 
पेड़ लगाने का अभियान नया
लद्दाख के ठंडे रेगिस्तानों में पौधे लगाने की परियोजनायें काफी नयी हैं। महज छह साल पहले ही तिब्बती बौद्ध नेता ड्रिकुंग क्याबगोन चेत्सांग रिनपोचे ने लोगों को पौधा लगाने और पिघलते ग्लेशियरों का पानी जमा करने के लिये प्रेरित करना शुरू किया। चुषुल के पार्षद कोनचोक स्टानजिन का कहना है कि यह सब इलाके में बढ़ते सैलानियों के कारण कार्बन उत्सर्जन को रोकने, ज्यादा खाना उगाने और निर्माण उद्योग को ज्यादा लकड़ी की सप्लाई दे कर आय बढ़ाने के उद्देश्य से किया गया।
 
इलाके के दूसरे गांवों के लोग भी रेगिस्तान में पिछले दो-तीन सालों से जंगल उगाने में जुटे हैं। स्टानजिन का कहना है कि पौधे अभी छोटे ही हैं लेकिन जब वे बड़े और तैयार हो जायेंगे तब "गांववालों को उनसे हरियाली के अलावा भेड़, बकरियों और दूसरे मवेशियों के लिये चारा मिलने की उम्मीद है। हालांकि वानक जोर दे कर कहते हैं कि बढ़ते पेड़ों के लिये खूब सारे पानी की जरूरत होगी और उन्हें कम पानी वाले इलाकों में लगाने से वहां और सूखा बढ़ेगा। वानर का कहना है, "गलत जगह पर लगाए पेड़ रेगिस्तान में फलने-फूलने वाली झाड़ियों से पानी चुरायेंगे और उन्हें पीछे छोड़ आगे निकल जायेंगे।"
 
मई में यूरोपीय वैज्ञानिकों के समूह की एक रिपोर्ट नेचर जर्नल में छपी थी। इसमें कहा गया कि बड़े पैमाने पर पेड़ लगाने से पानी की उपलब्धता कुछ इलाकों में 6 फीसदी तक बढ़ सकती है। जबकि दूसरे इलाकों में इसकी वजह से पानी की सप्लाई 40 फीसदी तक गिर सकती है।
 
मिनेसोटा यूनिवर्सिटी में फॉरेस्ट रिसोर्स डिपार्टमेंट में एसोसिएट प्रोफेसर फॉरेस्ट फ्लाइशमान का कहना है कि ये जंगल मवेशियों और जंगली जीवों से भी पानी छीनेंगे और रेगिस्तान के इकोसिस्टम में उनका भोजन घटेगा। इन सब के नतीजे में जलवायु परिवर्तन और तेज हो सकता है।
 
फ्लाइशमान ने बताया कि जब अफ्रीका के सवाना जैसी चगहों पर पेड़ लगाये गये तो उन्हें जंगलों या फिर हाथी जैसे बड़े जानवरों ने खत्म कर दिया। ये मिट्टी में रहने से ज्यादा कार्बन वातावरण में छोड़ते हैं।  फ्लाइशमान का कहना है, इसकी बजाय जंगल की कटाई से बचना, जंगल का प्रबंधन सुधारना, घास के मैदानों, दलदल और झाड़ियों वाले इलाकों की जमीन का इस्तेमाल बदलने से रोकने को प्राथमिकता देना चाहिये।"
 
स्टानिजिन का कहना है कि चुषुल में पौधों की सिंचाई से इलाके में पानी की सप्लाई पर कोई नकारात्मक असर नहीं हुआ है। जून से अक्टूबर तक गांव के लोग पिघलते ग्लेशियरों का पानी इस्तेमाल करते हैं और साल के बाकी महीनों में वो भूजल का इस्तेमाल करते हैं जो सौरऊर्जा से चलने वाले पंपों की सहायता से निकाला जाता है। उनका कहना है, "हम मानते हैं कि इससे यहां पानी का स्तर बढ़ेगा क्योंकि पानी सिर्फ इसी जमीन के आस पास इस्तेमाल होता है और वहीं अवशोषित हो जाता है। 
 
रेगिस्तान को नुकसान
भारत के पर्यावरण मंत्रालय में संयुक्त सचिव जिग्मेत ताकपा का कहना है कि रेगिस्तानों में हरियाली को लेकर जताई जा रही चिंता को बहुत तूल दिया जा रहा है। उन्होंने पूछा, "57,000 वर्ग किलोमीटर के इलाके में अगर आप एक या दो वर्गमीटर जंगल लगा भी लेंगे तो यह रेगिस्तान को कैसे नुकसान पहुंचायेगा।" चुषुल में स्टानजिन डोल्कर चेतावनियों की चिंता नहीं करतीं। वो दूसरे गांववालों के साथ मिल कर पौधे लगाने में जुटी हैं। उनके लिये ज्यादा जरूरी यह है कि जो पौधे उन्होंने लगाये हैं वो जंगल का इलाका बनेगा, अब तक बियाबान रहे इलाके में और ज्यादा पौधे और जंगली जीव आयेंगे। डोल्कर ने कहा, "हम यह तय करेंगे कि यहां का हर पौधा एक पेड़ में तब्दील हो। हमारा यही संकल्प है।"
 
एनआर/आरएस (रॉयटर्स)

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