11 साल का पीयूष शर्मा भारत के उन लाखों बच्चों में से एक है, जो अचानक अपने घर से लापता हो जाते हैं और फिर उनमें से बहुत से तस्करों के हाथों में पड़ जाते हैं। पीयूष झारखंड के एक छोटे से शहर हटिया में रहता था। अगस्त 2016 की बात है। वह स्कूल से लौटा था। उसने मां से कहा कि खाने से पहले वह कुछ देर घर के बाहर खेलना चाहता है। पंद्रह मिनट बाद जब उसकी मां ने उसे पुकारा तो पीयूष वहां से गायब हो चुका था।
पीयूष की मां पिंकी शर्मा बताती हैं, "नौ महीने हो गए हैं। मैंने उसे नहीं देखा है। वह अपने स्कूल की ड्रेस पहने हुए था, गुलाबी कमीज और नीला निक्कर। जरूर उसे कोई उठा कर ले गया। वह हमेशा घर के पास ही खेला करता था।" वह कहती हैं, "मेरे पति ने उसे कहां कहां नहीं ढूंढा, लेकिन कोई अता पता नहीं चला। लेकिन मैं अपनी आखिरी सांस तक उसे ढूंढती रहूंगी।"
बच्चों को तलाशने के लिए बनाई गई सरकारी वेसबाइट ट्रैक चाइल्ड के मुताबिक जनवरी 2012 से मार्च 2017 के बीच ढाई लाख बच्चों के लापता होने के मामले दर्ज किए गए हैं। इसका मतलब है कि भारत में हर घंटे पांच बच्चे लापता हो रहे हैं। लेकिन सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि ऐसे बच्चों की असल संख्या इससे कई गुनी हो सकती है क्योंकि बहुत से मामले माता पिता दर्ज ही नहीं कराते हैं। कई बार पुलिस भी रिपोर्ट नहीं लिखती है।
ऐसे बहुत से लापता बच्चे तस्करों के हाथों में पड़ जाते हैं जो उन्हें आगे बेच देते हैं। भारत में प्रतिबंध के बावजूद बाल मजदूरी बहुत सामान्य बात है। लापता होने वाले बहुत से बच्चे गरीब परिवारों से होते हैं, जिन्हें अच्छी नौकरी का लालच देकर बहका लिया जाता है। वहीं, कई लड़कियों को उनके बॉयफ्रेंड प्रेम के जाल में फंसा कर किसी को बेच देते हैं जिन्हें बाद में देह व्यापार में धकेल दिया जाता है।
इंसानी तस्करी के मुद्दे पर काम करने वाले एक गैर सरकारी संगठन शक्ति वाहिनी के ऋषिकांत कहते हैं कि लापता हुए 70 फीसदी बच्चे तस्करी और गुलामी का शिकार बनते हैं। वह कहते हैं, "बहुत से बच्चों को संगठित गिरोह अगवा करते हैं। उन्हें पता है कि बच्चों को कैसे ललचाना है और आगे बेचना है। बाद में इन्हें वेश्यालयों में बेच दिया जाता है या फिर घरों और दुकानों पर काम पर लगा दिया जाता है।"
2011 की जनगणना के मुताबिक भारत की 1।2 अरब की आबादी में 40 फीसदी लोगों की उम्र 18 साल से कम है। पिछले दो दशकों में आर्थिक प्रगति ने करोड़ों लोगों को गरीबी से निकाला है, लेकिन आबादी का एक बड़ा हिस्सा अब भी बुनियादी जरूरतों के लिए जूझ रहा है। यूनिसेफ और वर्ल्ड बैंक की 2016 की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के 38।5 करोड़ सबसे गरीब बच्चों में से 30 फीसदी भारत में रहते हैं।
सामाजिक कार्यकर्ताओं और स्थानीय लोगों की तरफ से मिली जानकारी के आधार पर पड़ने वाले पुलिस के छापों में कुछ बच्चों को बचा लिया जाता है, लेकिन सभी इतने भाग्यशाली नहीं होते। मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में प्रोफेसर और इंसानी तस्करी पर शोध समन्वयक पीएम नायर कहते हैं, "बहुत सी जगहों पर पुलिस लापता बच्चों के मामले को गंभीरता से नहीं लेती। वे इस बात को नहीं समझते कि इसका संबंध तस्करों से हो सकता है। वह समझते हैं कि बच्चा ही घर से भाग गया होगा।"
सामाजिक कार्यकर्ता कहते हैं कि लापता बच्चों के बारे में उनके परिवारों के अलावा और किसी को ज्यादा चिंता नहीं है। अमीर मध्यवर्गीय परिवारों में ये बच्चे साफ सफाई करते हैं, मालिक के बच्चों और कभी कभी बुजुर्गों का भी ख्याल रखते है और वेश्यालयों में न जाने कितनी बार उनके शरीर को कुचला जाता है।
भारत के जलपाईगुड़ी में इंसानी तस्करी के खिलाफ मुहिम चलाने वाले राजू नेपाली कहते हैं, "न पुलिस को और न ही आम लोग, किसी को इन बच्चों की फिक्र नहीं है। सबके लिए यह सामान्य बात हो गई है। शायद इसलिए कि वे गरीब हैं। हम कभी उनसे नहीं पूछते कि वे कौन हैं, कहां से आए हैं और किसके साथ रहते हैं।"
- एके/एमजे (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)