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हिमालय की ग्लेशियर झीलों से हमेशा रहता है बाढ़ का खतरा

हिमालय में ग्लेशियर झीलों से हमेशा बाढ़ का खतरा बना रहता है। अब नागालैंड विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं की टीम पूर्वी हिमालय में ऐसी झीलों का पता लगा कर इसके पैदा होने वाले खतरों से बचाव के तरीके ढूंढ रही है।

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DW

, शनिवार, 9 अगस्त 2025 (07:48 IST)
प्रभाकर मणि तिवारी
पूर्वोत्तर भारत में स्थित नागालैंड विश्वविद्यालय ने जलवायु परिवर्तन के खतरों और चुनौतियों से निपटने की कवायद के तहत सिक्किम और अरूणाचल प्रदेश में काफी ऊंचाई पर स्थित हिमनद झीलों पर अध्ययन शुरू किया है। इसका मकसद इन इलाकों में खतरनाक ग्लेशियर झीलों की पहचान करना है। इसके लिए अरुणाचल की दो और सिक्किम की एक झील को चुना गया है। शोधकर्ताओं की टीम में जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेएनयू, दिल्ली) और सिक्किम विश्वविद्यालय के अलावा कुछ दूसरे संस्थाओं के सदस्य भी शामिल हैं।
 
यहां इस बात का जिक्र प्रासंगिक है कि अक्टूबर, 2023 में सिक्किम में एक झील के फटने से भयावह बाढ़ आई थी। इसे तकनीकी रूप से 'जीएलओएफ' यानी यानी 'ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड' कहा जाता है, जिसमें झील के ऊपर बादल फटने से अचानक बहुत सारा पानी जमा हो गया और झील के किनारे टूट गए थे। इसकी वजह से तीस्ता नदी में बाढ़ आ गई और चुंगथांग बांध को भी नुकसान पहुंचा। इस आपदा में सौ से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी और हजारों बेघर हो गए थे।
 
कैसे होगी ग्लेशियल झीलों से संबंधित पारिस्थितिक खतरों की पहचान
शोधकर्ताओं का कहना है कि 'बाथिमेट्रिक' सर्वेक्षणों और बाढ़ मॉडलिंग के आधुनिकतम उपायों के जरिए अरुणाचल प्रदेश के दुर्गम तवांग इलाके की झीलों के अचानक फटने से होने वाले जोखिम का आकलन किया जाएगा। बाथिमेट्रिक सर्वेक्षण एक खास किस्म का हाइड्रोग्राफिक सर्वेक्षण है। इससे पानी की गहराई और झील या जलाशय के नीचे जमीन की बनावट के बारे में भी विस्तृत जानकारी मिलती है।
 
इस परियोजना का मकसद जलवायु परिवर्तन की वजह से बेहद ऊंचे इलाके में स्थित ग्लेशियल झीलों से संबंधित पारिस्थितिक खतरों की पहचान करना है। इसके साथ ही इसके तहत इलाके में उपलब्ध पीने लायक पानी के संसाधनों का आकलन भी किया जाएगा। इस परियोजना के लिए केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय ने जरूरी रकम मुहैया कराई है।
 
शोधकर्ताओं की इस टीम का नेतृत्व करने वाले नागालैंड विश्वविद्यालय की डॉ. मानसी देबनाथ डीडब्ल्यू को बताती हैं, "इस शोध के नतीजों को नीति निर्माताओं, योजनाकारों और विकास से जुड़े लोगों से साझा किया जाएगा। इसके आधार पर नदियों और पर्वतीय नालों के किनारों को मजबूत किया जा सकेगा। इससे ग्लेशियल झील फटने के कारण आने वाली बाढ़ की तबाही के असर को काफी हद तक कम किया जा सकेगा। इससे ऐसी किसी आपदा के बाद राहत और बचाव कार्यों के साथ ही इससे तबाह होने वाली संरचना को दोबारा बनाने पर होने वाले खर्च और दूसरी समस्याओं से बचा जा सकेगा।"
 
कौन से संस्थान हैं रिसर्च में शामिल
शोधकर्ताओं की टीम में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के अलावा सिक्किम विश्वविद्यालय और इटानगर स्थित जी।बी। पंत नेशनल इंस्टीट्यूट आफ हिमालयन एनवायरमेंट के वैज्ञानिक भी शामिल हैं।
 
नागालैंड विश्वविद्यालय के वाइस-चांसलर प्रोफेसर जगदीश के. पटनायक बताते हैं कि मौजूदा दौर में ऐसा शोध काफी अहम है। वो डीडब्ल्यू से कहते हैं, "यह हमारे लिए बेहद गर्व की बात है कि विश्वविद्यालय को सिक्किम और अरुणाचल में हिमालय की ऊंचाई पर स्थित झीलों की विस्तृत और लगभग सटीक सूची और स्थिरता के मूल्यांकन के लिए अहम शोध का नेतृत्व करने का मौका मिला है। पूर्वी हिमालय में बढ़ती पर्यावरणीय समस्याओं को दूर करने, प्राकृतिक आपदाओं से निपटने की तैयारी को पुख्ता करने और अतीत की जलवायु गतिशीलता के बारे में हमारी समझ को गहरा करने में ऐसे वैज्ञानिक प्रयासों की भूमिका बेहद अहम है।"
 
डॉ. मानसी देबनाथ बताती हैं, "हम पूर्वी हिमालय (उत्तरी सिक्किम और अरुणाचल हिमालय) में हिमनद झीलों की सटीक सूची बनाने के साथ ही उनके किनारों के टूटने के खतरों और उनकी जल वहन क्षमता के नजरिए से खतरनाक झीलों का मूल्यांकन करने का काम कर रहे हैं। इसके लिए सैटेलाइट तस्वीरों की मदद लेने के साथ ही मौके पर जाकर झीलों के साथ उसका मिलान किया जाएगा। इसके साथ ही झील को लंबाई, चौड़ाई और गहराई भी मापी जाएगी।"
 
आसपास के हिमालयी क्षेत्रों से मिले आंकड़ों से करेंगे मिलान
शोधकर्ताओं की टीम इन हिमनद झीलों की भौगोलिक विशेषता और इसके आसपास जमी बर्फ के पिघलने की प्रक्रिया पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव का आकलन कर पश्चिमी हिमालय और एशिया के बाकी इलाकों के साथ इन आंकड़ों का मिलान करेगी।
 
डॉ देबनाथ कहती हैं, "शोध के नतीजों के आधार पर पश्चिमी हिमालय और  एशिया के बाकी ऊंचे इलाकों की तुलना में पूर्वी हिमालय के ग्लेशियरों में बर्फ के पिघलने और उसके (बर्फ के) घटने की दर के क्षेत्रीय पैटर्न का विश्लेषण किया जाएगा। इससे भविष्य के लिए कई अहम जानकारियां मिलने का अनुमान है। उसके आधार पर खतरे से बचाव की रणनीति बनाने में मदद मिलेगी। खतरनाक झीलों के किनारों को मजबूत बनाने के लिए ड्रोन के जरिए उनकी मैपिंग की जाएगी। इससे झील से पानी के निकासी के रास्तों के किनारों पर मजबूत संरचना बनाने में मदद मिलेगी। उससे किसी आपदा की स्थिति में नुकसान काफी कम किया जा सकेगा।"
 
नागालैंड विश्वविद्यालय ने भूगोल विभाग में ग्लेशियर एंड माउंटेन रिसर्च लैब की भी स्थापना की है।
 
जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ा जीएलओएफ का खतरा
पूर्वी हिमालय में खासकर अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम जीएलओएफ के खतरे के प्रति काफी संवेदनशील है। चार अक्तूबर, 2023 को सिक्किम में ऐसी ग्लेशियल झील के फटने के कारण तीस्ता नदी का जलस्तर 20 फीट तक बढ़ गया। उसकी वजह से इलाके में जान-नमाल की भारी तबाही हुई थी। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, उस आपदा में 77 लोगों की मौत हुई थी।
 
जीएलओएफ को इस तरह समझा जा सकता है कि ऐसी स्थिति में हिमनद झीलों का पानी अचानक किनारों को तोड़कर बाहर निकलने लगता है। अचानक भारी मात्रा में बर्फ पिघलने, लगातार भारी बारिश होने या कई मामलों में बादल फटने की वजह से जीएलओएफ का खतरा पैदा हो जाता है।
 
पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि पूर्वी हिमालय में ऐसी कई झीलें हैं जो जीएलओएफ के प्रति संवेदनशील हैं, वहां बाढ़ का खतरा हमेशा बना हुआ है। सिक्किम के पर्यावरण विशेषज्ञ प्रोफेसर बी।एन। प्रधान डीडब्ल्यू से कहते हैं, "ऐसे अध्ययन बेहद अहम हैं। लेकिन उससे भी अहम इनके नतीजों को जमीनी स्तर पर लागू करना है। इसके बिना इसका कोई मतलब नहीं होगा।"
 
वे कहते हैं कि ऐसे अध्ययन को बढ़ावा देना और उनको प्रभावी तरीके से लागू करने के लिए नीति निर्माताओं को भी मजबूत इच्छाशक्ति का परिचय देना होगा।

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