Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia

भारत 'माता' के चुनावी दंगल में क्यों हैं इतनी कम महिलाएं

Advertiesment
हमें फॉलो करें Lok Sabha Elections 2019
, बुधवार, 3 अप्रैल 2019 (10:32 IST)
राज्यों के चुनाव हों या देश के आम चुनाव, भारत में हर जगह वोटरों के रूप में महिलाओं का हिस्सा बढ़ता ही गया है। वहीं, चुनावी मैदान में उम्मीदवारी पेश करने वाली महिलाएं अब तक गिनती भर ही हैं। क्या 2019 में बदलेगी यह तस्वीर।
 
 
भले ही भारत के रहने वाले उसे भारत माता कह कर बुलाते हैं। लेकिन अपने हाव भाव में देश अब भी कोई सत्तर-बहत्तर साल का तथाकथित ऊंची जाति वाला वृद्ध पुरुष ही लगता है। ब्रिटिश राज से आजादी के 72 सालों में भी विश्व के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में उसकी महिलाओँ की हिस्सेदारी और उनके मुद्दों की स्वीकार्यता और समझ दोनों ही बहुत कम है।
 
समाज से उलट है संसद की तस्वीर
सन 1962 से संसद के निचले सदन लोकसभा में जनता द्वारा सीधे चुन कर आने वाली महिलाओं का प्रतिशत बढ़ा तो है, लेकिन फिर भी अब तक 11 फीसदी के आसपास ही पहुंचा है। हालांकि भारत के राजनीतिक पटल पर ताकतवर और किंगमेकर की भूमिका निभाने वाली एक्का-दुक्का महिला नेता हमेशा रही हैं।
 
 
जिस भारत में 1966 में ही एक महिला देश की प्रधानमंत्री बन गई थी, वहां आज की मौजूदा सरकार में भी रक्षा मंत्री और विदेश मंत्री जैसे कुछ सबसे अहम पदों महिलाएं काबिज हैं। इस सूची में मायावती और ममता बनर्जी जैसी प्रभावशाली क्षेत्रीय दलों की नेताओं का नाम भी लिया जा सकता है लेकिन अफसोस की बात तो यह है कि महिला नेताओं की फेहरिस्त कई दशकों से इन्हीं मुट्ठी भर नामों के आस पास अटकी हुई है।
 
अब भी अपवाद हैं नेत्रियां
देश की आधी आबादी का लोकतंत्र की दिशा तय करने में कितना हाथ है, इसका पता तो इसी बात से लग जाता है कि लोकसभा चुनाव के टिकट वितरण में करीब आठ फीसदी महिलाओं को मौका मिलता है। ध्यान देने वाली बात यह है कि फिर भी इससे अधिक अनुपात में यानि करीब दस फीसदी महिलाएं चुनाव जीत कर संसद में पहुंचती हैं।
 
 
वोटर के रूप में पुरुषों की बराबरी करने वाली और कई राज्य चुनावों में उनसे भी ज्यादा बढ़ चढ़ कर मतदान करने वाली महिलाओं को अपने मत के उम्मीदवार के रूप में किसी महिला को चुनने का मौका बेहद कम मिलता है। हालांकि यह ही अपने आप में बड़ी बात है कि संकीर्ण और पितृसत्तात्मक सोच वाले भारतीय समाज में लोकतंत्र के इस पर्व को महिलाएं भी जोर शोर से मनाती आ रही हैं। कहीं ना कहीं इसी तरह महिलाओं की बढ़ती जागरुकता उन्हें, पहले उम्मीदवार और अंतत: भारी तादाद में सांसद बनाने तक ले जाएगी।
 
 
महिलाओं की पसंद वाली नीतियां
कोई भी राजनीतिक दल महिला हितों की बातें करने से नहीं चूकता। मौजूदा मोदी सरकार ने भी उज्जवला योजना, बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ, जहां सोच, वहां शौचालय अभियान जैसी योजनाएं खास महिलाओं के लिए चलाई हैं। उनके पहले की सरकारें और कई राज्य सरकारें भी समय समय पर ऐसे कुछ कदम उठाती रही हैं, जिनकी मांग महिलाओं की तरफ से उठी थी।
 
 
उदाहरण के लिए, 2015 में बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में दोबारा चुने गए नीतीश कुमार ने आते ही अपना चुनावी वादा पूरा किया और राज्य में शराब बैन कर दी। महिलाओं की शिकायत थी कि शराब की आदत के चलते परिवार के पुरुष अपनी थोड़ी बहुत कमाई को भी नशे में उड़ा देते हैं और घर की महिलाओं से मारपीट भी करते हैं। बिहार में यह फार्मूला हिट होते ही छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश जैसे कुछ अन्य राज्यों ने भी चुनाव प्रचार के दौरान ऐसी योजनाओं की घोषणा की थी, जिनमें कुछ चरणों में राज्य में शराब बंदी वादा था।
 
 
जाहिर है कि शराब बैन करना महिलाओं का सबसे बड़ा मुद्दा तो नहीं हैं, लेकिन उनके खिलाफ होने वाली हिंसा को रोकने का एक सीधा तरीका जरूर है। वहीं यौन हिंसा और पितृसत्ता के जैसी बुराइयों पर काबू पाने का रास्ता काफी मुश्किल है। भारत की पढ़ी लिखी महिलाएं तो विश्व भर में चले अभियानों जैसे #MeToo का हिस्सा बन गईं लेकिन जिन ग्रामीण और कम पढ़ी लिखी औरतों की इंटरनेट तक पहुंच नहीं, उन्हें ऐसी चीजों की हवा भी नहीं लगती।
webdunia
 
क्या चुनावी मुद्दा है महिला सुरक्षा 
भारत के सर्वोच्च न्यायालय की वकील और 2012 के निर्भया कांड के बाद देश में कड़े एंटी रेप कानून लिखने वाली करुणा नंदी कहती हैं कि बीते सालों में महिला अपराधों से जुड़े आंकड़ों के सामने ना आने से पुख्ता तौर पर ऐसा कहना मुश्किल है कि देश में महिलाएं पहले से ज्यादा सुरक्षित हुई हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ने 2016 के बाद के आंकड़े जारी नहीं किए हैं।
 
 
पिछले आम चुनावों से पहले 'वुमनिफेस्टो' लिखने वालों में शामिल नंदी ने डॉयचे वेल से बातचीत में एक सकारात्मक बदलाव की ओर इशारा करते हुए कहा कि "भारतीय महिलाओं में अपने शरीर से जुड़े फैसले खुद देने की आजादी बढ़ती दिख रही है। पहले के मुकाबले यौन हिंसा की पीड़िता खुद उसे लेकर कम शर्मिंदा महसूस करती है।" पहले यह प्रवृत्ति ज्यादा देखने को मिलती थी कि जिनके साथ कुछ गलत हुआ हो, वे खुद ही सामाजिक मान्यताओं के चलते बेहद शर्मिंदा और खुद को जिम्मेदार महसूस करती थीं।
 
 
दूसरा पहलू यह है कि जब भी महिला सुरक्षा की बात होती है, तो ध्यान सड़कों और सार्वजनिक जगहों को महिलाओं के लिए सुरक्षित बनाने की ओर जाता है। जबकि सच तो यह है कि महिलाओं के विरुद्ध यौन हिंसा और उत्पीड़न के ज्यादातर मामलों में दोषी पीड़िता के जानने वाले लोग होते हैं और यह घटनाएं चारदीवारी के भीतर होती हैं। भारत सरकार अब भी मैरिटल रेप को अपराध घोषित करने के खिलाफ है।
 
नंदी कहती हैं कि जब सरकार कहे कि शादी का संस्थान इन सब बातों से कहीं ज्यादा कीमती है तो इसका मतलब हुआ कि "रेप के कारण शादी की गरिमा भंग नहीं होती लेकिन रेप की शिकायत करने से उसे ठेस पहुंचेगी।" मैरिटल रेप को अपराध घोषित करने का मुकदमा लड़ रही वकील के रूप में नंदी का मानना है कि राजनीति में "महिलाओं के मुद्दे समझना तो दूर की बात है। नेता तो चुनावी माहौल में इन गहरी पैठ कर चुकी मान्यताओं की बात करके पुरुष वोटरों को बिल्कुल नाराज नहीं करना चाहते।"
 
 
आरक्षण देने में फेल लेकिन नारे देने में आगे
"बहुत हुआ नारी पर वार, अबकी बार मोदी सरकार" या फिर "बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ" जैसे कर्णप्रिय नारे और अभियान चलाने वाली पार्टियां भी अपने चुनावी मेनिफेस्टो में महिलाओं को एक पेज से भी कम में सिमटा देते हैं। महिलाओं के अनुभव और आधी आबादी के अपने मुद्दों को लेकर उनकी गहरी समझ को उसी अनुपात में प्रतिनिधित्व नहीं मिलता। कई मामलों में देखा गया है कि पितृसत्तात्मक सोच इस कदर हावी होती है कि कानून निर्माताओं के स्तर पर भी संवेदनशीलता और गंभीरता की बहुत कमी दिखती है।
 
 
इतने साल बीत जाने पर भी अब तक महिला आरक्षण बिल पास ना करने को नंदी "गेटकीपर प्रॉब्लम" बताती हैं। वे कहती हैं, "राजनीतिक दलों में व्याप्त पितृसत्तात्मक सोच और इसके कारण महिलाओं के साथ होने वाला भेदभाव ही इसका कारण है। महिलाओं के चुनाव जीत कर आने की संभावना पुरुषों से भी ज्यादा है लेकिन पार्टियां महिलाओं को बाहर रखने वाले 'गेटकीपर' जैसी भूमिका निभाती हैं।"
 
 
सन 1993 में हुए भारतीय संविधान के 73वें संशोधन में स्थानीय ग्राम परिषद अध्यक्षों की कम से कम एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित की गई थीं। लेकिन आज तक इसका विस्तार राज्य और राष्ट्र के स्तर पर नहीं किया गया है। लोकसभा और विधानसभाओं में 33 फीसदी सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित करने का वादा बीते दो दशकों से अधूरा है। इसे पूरा करने में कांग्रेस और बीजेपी दोनों बड़े दलों की सरकारें विफल रही हैं।
 
 
महिलाओं के साथ नए प्रयोग का मौका
इन चुनावों में देश के कुछ प्रमुख क्षेत्रीय दल एक नए तरह का प्रयोग कर रहे हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की तेजतर्रार नेता ममता बनर्जी ने लोकसभा चुनाव की 40 फीसदी से अधिक सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित कर दी हैं। वहीं बीजू जनता दल ने भी 33 फीसदी सीटों पर महिलाओं को टिकट देने का कदम उठाया है। इसे सही दिशा में लिया गया फैसला तो माना जा सकता है लेकिन संसद में महिलाओं को आरक्षण देना कहीं अहम होगा।
 
 
जहां मोदी ने 2014 की चुनाव नई नौकरियां लाने और देश की तरक्की के नाम पर लड़ा था वहीं अब वे भारत को एक ऐसा आधुनिक वेलफेयर स्टेट बनाने की बात कर रहे हैं जिसके केंद्र में महिलाएं हों। इसी सरकार ने अध्यादेश लाकर मुसलमानों में प्रचलित तीन तलाक को बैन किया। कांग्रेस ने अपने चुनावी वायदों की झड़ी लगाते हुए 2024 तक कम से कम आधे राज्यों में महिला मुख्यमंत्री बनाने की बात कही है, जहां कांग्रेस की सत्ता हो। हालांकि फिलहाल केवल तीन राज्य सरकारों का हिस्सा होने के कारण ऐसा वादा करना कांग्रेस के लिए तुलनात्मक रूप से आसान है।
 
रिपोर्ट ऋतिका पाण्डेय
 

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

क्या आचार संहिता से परे है नमो टीवी?