रिपोर्ट : योशा वेबर
आणविक ऊर्जा के समर्थकों का दावा है कि इसकी बदौलत हमारी अर्थव्यवस्थाएं प्रदूषण फैलाने वाले फॉसिल ईंधनों से छुटकारा पा सकती हैं। लेकिन तथ्य क्या कहते हैं? क्या एटमी ऊर्जा वाकई जलवायु को बचाने में मदद कर सकती है?
कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन के ताजा वैश्विक आंकड़े जलवायु संकट के खिलाफ विश्व की कोशिशों पर सवाल उठाते हैं। उत्सर्जनों पर नजर रखने वाले वैज्ञानिकों के एक समूह, ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट (जीसीपी) के, पिछले दिनों प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक पिछले साल के मुकाबले 2021 में सीओटू उत्सर्जन में 4.9 प्रतिशत का उछाल आया है।
2020 में कोविड-19 महामारी और लॉकडाउन के चलते उत्सर्जनों में 5.4 प्रतिशत की गिरावट आ गई थी। बहुत से पर्यवेक्षक इस साल इसके फिर से बढ़ने की आशंका जता रहे थे लेकिन इतना उछाल आ जाने का उन्हें भी अंदाजा नहीं था। ऊर्जा सेक्टर ही ग्रीन हाउस गैसों का सबसे बड़ा उत्सर्जन करने वाला सेक्टर बना हुआ है। 40 प्रतिशत उत्सर्जन इसी सेक्टर से होता है और ये दर बढ़ती जा रही है।
लेकिन एटमी ऊर्जा की क्या स्थिति है? इस विवादास्पद ऊर्जा स्रोत के समर्थक कहते हैं कि बिजली उत्पादन का ये क्लाइमेट-फ्रेंडली यानी जलवायु-अनुकूल तरीका है। जब तक हम व्यापक विकल्प तैयार नहीं कर पाते तब तक के लिए एटमी ऊर्जा ही वो चीज है जिसका इस्तेमाल करते रहा जा सकता है। हाल के सप्ताहों में, खासकर कॉप26 जलवायु बैठकों में, एटमी ऊर्जा की वकालत करन वाले लोग ऐसे बयान दे रहे हैं जिन पर ऑनलाइन हंगामा मचा हुआ है- जैसे कि अगर आप एटमी ऊर्जा के खिलाफ हैं तो इसका मतलब आप जलवायु बचाने के खिलाफ हैं और एटमी ऊर्जा वापसी करके रहेगी। लेकिन क्या वाकई इसमें कुछ दम भी है?
क्या एटमी ऊर्जा शून्य उत्सर्जन वाला स्रोत है?
नहीं। एटमी ऊर्जा भी ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है। वास्तव में कोई भी ऊर्जा स्रोत पूरी तरह से उत्सर्जन-मुक्त नहीं हैं। एटमी ऊर्जा की बात आती है तो इसमें यूरेनियम निकालने, उसको लाने ले जाने और प्रोसेसिंग के दौरान उत्सर्जन होता है। एटमी ऊर्जा संयंत्रों की लंबी और पेचीदा निर्माण प्रक्रिया से भी सीओटू निकलती है। जिन ठिकानों की मियाद पूरी हो जाती है उनको ढहाने में भी गैस उत्सर्जित होती है। और आखिरी पर जरूरी बात ये है कि एटमी कचरे को सख्त स्थितियों में यहां से वहां ले जाना और स्टोर करना पड़ता है- इस दौरान भी उत्सर्जन होता है।
फिर भी इसकी वकालत करने वालों का दावा है कि एटमी ऊर्जा उत्सर्जन-मुक्त है। इनमें ऑस्ट्रिया की एक परामर्शदाता कंपनी एन्को भी है। उसने नीदरलैंड्स सरकार के आर्थिक मामलों और जलवायु नीति मंत्रालय के लिए तैयार किए गए अध्ययन को, 2020 के आखिरी दिनों में जारी किया था। नीदरलैंड्स में एटमी ऊर्जा के भविष्य की संभावित भूमिका को लेकर किए गए इस अध्ययन में एटमी ऊर्जा के पक्ष में दलीलें दी गई थीं। इसके मुताबिक एटमी ऊर्जा के चयन के पीछे मुख्य कारक हैं, बिना सीओटू उत्सर्जन वाली आपूर्ति की विश्वसनीयता और सुरक्षा। एन्को की स्थापना अंतरराष्ट्रीय एटमी ऊर्जा एजेंसी के जानकारों ने की थी और ये आणविक क्षेत्र के उद्यमियों के साथ नियमित रूप से काम करती है, इसलिए निहित स्वार्थो से पूरी तरह बरी नहीं है।
पर्यावरणीय मुहिम चलानेवाले समूह, साइंटिस्ट्स फॉर फ्यूचर (एस4एफ) ने कॉप26 में एटमी ऊर्जा और जलवायु पर एक केंद्रित एक शोधपत्र प्रस्तुत किया था। समूह बिल्कुल अलग ही नतीजे पर पहुंचा था। उसके मुताबिक, मौजूदा समस्त ऊर्जा प्रणाली को मद्देनजर रखते हुए कहा जा सकता है कि एटमी ऊर्जा किसी भी तरह सीओटू निरपेक्ष नहीं है। इस रिपोर्ट के एक लेखक और बर्लिन की टेक्निकल यूनिवर्सिटी से जुड़े बेन वीलर ने डीडबल्यू को बताया कि एटमी ऊर्जा के प्रस्तावक बहुत सारे कारकों पर गौर करने में चूक जाते हैं। इसमें वे उत्सर्जन स्रोत भी हैं जिनका जिक्र ऊपर किया गया है। डीडब्ल्यू ने भी जिन तमाम अध्ययनों की समीक्षा की उनमें एक ही चीज पाई, एटमी ऊर्जा उत्सर्जन-मुक्त नहीं है।
एटमी ऊर्जा में कितनी सीओटू पैदा होती है?
नतीजे महत्त्वपूर्ण रूप से अलग अलग हैं। वे इस बात पर निर्भर करते हैं कि क्या हम सिर्फ बिजली उत्पादन की प्रक्रिया को ही देख रहे हैं या फिर एक एटमी ऊर्जा संयंत्र के समूचे जीवनचक्र को मद्देनजर रख रहे हैं। मिसाल के लिए, संयुक्त राष्ट्र की जलवायु परिवर्तन कमेटी (आईपीसीसी) की 2014 में जारी एक रिपोर्ट में- प्रति किलोवॉट-घंटा 3.7 से 110 ग्राम सीओटू उत्सर्जन का अनुमान लगाया गया था।
लंबे समय से माना जाता रहा है कि एटमी संयंत्रों से प्रति किलोवॉट घंटा औसतन 66 ग्राम सीओटू पैदा होती है। हालांकि वीलर मानते हैं कि वास्तविक आंकड़े और अधिक होंगे। जैसे ज्यादा कड़े सुरक्षा निर्देशों के चलते, पिछले दशकों में बने संयंत्रों की तुलना में, नए ऊर्जा संयंत्र निर्माण के समय ज्यादा मात्रा में सीओटू पैदा करते हैं।
एटमी ऊर्जा संयंत्रों की समूची लाइफ-साइकिल पर- यानी यूरेनियम निकालने से लेकर एटमी कचरे के भंडारण तक- केंद्रित अध्ययन दुर्लभ हैं। कुछ शोधकर्ताओं ने इस ओर इशारा किया है कि इस बारे में डाटा अभी भी नहीं है। नीदरलैंड्स स्थित संस्था वर्ल्ड इन्फॉर्मेशन सर्विस ऑन एनर्जी (डब्लूआईएसई- वाइज) ने अपनी एक लाइफ-साइकिल स्टडी के तहत हासिल हुई गणना में पाया कि एटमी संयंत्र, प्रति किलोवॉट घंटा 117 ग्राम सीओटू उत्सर्जित करते हैं। यह गौरतलब है कि वाइज एटमी ऊर्जा विरोधी समूह है। इसलिए ये अध्ययन भी पूरी तरह निष्पक्ष नहीं है।
समूचे जीवन चक्र पर केंद्रित ऐसे दूसरे अध्ययन भी सामने आए हैं जिनके नतीजे समान हैं। कैलिफॉर्निया की स्टैन्फर्ड यूनिवर्सिटी में वायुमंडल ऊर्जा कार्यक्रम के निदेशक मार्क जेड जेकबसन ने प्रति किलोवॉट घंटा 68 से 180 ग्राम सीओटू की जलवायु कीमत निकाली है।
दूसरे ऊर्जा स्रोतों के मुकाबले कितनी जलवायु-अनुकूल है एटमी ऊर्जा?
अगर गणना में एक एटमी संयंत्र के समूचे जीवन चक्र को शामिल करते हैं तो एटमी ऊर्जा निश्चित रूप से कोयला या प्राकृतिक गैस जैसे फॉसिल ईंधनों से अव्वल ही आएगी। लेकिन अगर नवीनीकृत ऊर्जा से तुलना करें तो तस्वीर पूरी तरह से अलग हो जाती है।
जर्मन सरकार की पर्यावरण एजेंसी (यूबीए) के एक नए लेकिन अभी तक अप्रकाशित डाटा और वाइज के आंकड़ों के मुताबिक सौर पैनलों के मुकाबले एटमी ऊर्जा से प्रति किलोवॉट घंटा 3.5 गुना अधिक सीओटू निकलती है। तटों पर लगी पवनचक्कियों की ऊर्जा से तुलना करें तो यह आंकड़ा 13 गुना अधिक सीओटू का हो जाता है। पनबिजली परियोजनाओं से मिलने वाली बिजली की तुलना में एटमी ऊर्जा 29 गुना कार्बन पैदा करती है।
ग्लोबल वॉर्मिंग पर काबू पाने के लिए एटमी ऊर्जा का सहारा?
दुनियाभर में एटमी ऊर्जा के प्रतिनिधि और कुछ राजनीतिज्ञ भी एटमी शक्ति के विस्तार की बात कहते रहे हैं। जैसे जर्मनी में दक्षिणपंथी एएफडी पार्टी ने एटमी ऊर्जा संयंत्रों का समर्थन किया है और उन्हें 'आधुनिक और साफ' करार दिया है। इस पार्टी ने उसी ऊर्जा स्रोत की ओर लौटने का आह्वान किया है जिसे जर्मनी ने 2022 के आखिर तक पूरी तरह से हटा देने का प्रण किया है। और देशों ने भी नए एटमी प्लांट बनाने की योजनाओं का समर्थन किया है। उनकी दलील है कि उसके बिना ऊर्जा सेक्टर जलवायु के लिए और नुकसानदेह होगा। लेकिन बर्लिन की टेक्निकल यूनिवर्सिटी के वीलर समेत दूसरे कई ऊर्जा विशेषज्ञों का नजरिया अलग है।
वीलर कहते हैं कि एटमी ऊर्जा का योगदान कुछ ज्यादा ही आशावादी ढंग से देखा जाता है जबकि वास्तव में एटमी संयंत्र के निर्माण में इतना समय खर्च होता है, और इतनी लागत आ जाती है कि जलवायु परिवर्तन पर उसका असर दिखने लग जाता है। बिजली तो बहुत देर बाद मिल पाती है। वर्ल्ड न्यूक्लियर इंडस्ट्री स्टेटस रिपोर्ट के लेखक माइकल श्नाइडर उनकी बात से सहमत हैं। वे कहते हैं कि एटमी ऊर्जा संयंत्र, पवन या सौर के मुकाबले करीब 4 गुना महंगे पड़ते हैं और उन्हें बनाने में 5 गुना ज्यादा समय लग जाता है। जब आप इन तमाम चीजों को मद्देनजर रखते हैं, तो आप पाते हैं कि एक नए एटमी संयंत्र को पूरी तरह तैयार होने में 15 से 20 साल खप जाते हैं।
वह इस ओर ध्यान दिलाते हैं कि एक दशक के भीतर दुनिया को ग्रीनहाउस गैसों पर काबू भी पाना है। श्नाइडर कहते हैं कि अगले 10 साल में एटमी ऊर्जा इस मामले में कोई उल्लेखनीय योगदान देने की स्थिति में नहीं है। लंदन स्थित अंतरराष्ट्रीय मामलों के थिंक टैंक चैडहैम हाउस में पर्यावरण और समाज कार्यक्रम के उपनिदेशक एंटनी फ्रोगाट कहते हैं कि मौजूदा समय में जलवायु परिवर्तन के प्रमुख वैश्विक समाधानों में एटमी ऊर्जा का उल्लेख नहीं आता है। वह कहते हैं कि एटमी ऊर्जा की बेशुमार लागत, उसके पर्यावरणीय नतीजे और उसे लेकर जनसमर्थन की कमी- जैसी तमाम दलीलें उसके खिलाफ एक साथ खड़ी हैं।
एटमी फंडिंग का रुख अक्षय ऊर्जा की ओर
एटमी ऊर्जा से जुड़ी ऊंची लागतों की वजह से वे महत्त्वपूर्ण वित्तीय संसाधन भी अवरुद्ध हो जाते हैं जिनका इस्तेमाल यूं अक्षय यानी नवीकरणीय ऊर्जा को विकसित करने में किया जा सकता है। एटमी ऊर्जा विशेषज्ञ और नीदरलैंड्स में ग्रीनपीस से जुड़े एक्टिविस्ट यान हावरकाम्प्फ यह भी कहते हैं कि अक्षय ऊर्जा स्रोतों से ज्यादा बिजली मिल सकती हैं जो ज्यादा तेज और सस्ती पड़ती है। उनके मुताबिक एटमी ऊर्जा में निवेश किया हुआ प्रत्येक डॉलर इस लिहाज से सच्ची और आपात जलवायु कार्रवाई से विमुख हुआ डॉलर है। और इसीलिए एटमी ऊर्जा जलवायु-मित्र नही है।
इसके अलावा एटमी ऊर्जा खुद जलवायु परिवर्तन से प्रभावित रही है। दुनियाभर में गर्मियों के दौरान बढ़ती तपिश में कई एटमी ऊर्जा संयंत्रों को अस्थायी रूप से बंद करना पड़ा है या पूरी तरह रोक देना पड़ा है। अपने रिएक्टरों को ठंडक पहुंचाने के लिए संयंत्रों को आसपास के जलस्रोतों पर निर्भर रहना पड़ता है, कई नदियां सूख चुकी हैं या सूख रही हैं, तो पानी का मिलना भी दूभर होता जा रहा है।
माइकल श्नाइडर ने डीडबल्यू से कहा कि एटमी ऊर्जा के 'नवजागरण' की शेखी बघारना एक बात है लेकिन उससे जुड़े तमाम हालात कुछ और ही कहते हैं। उनके मुताबिक एटमी उद्योग सालों से सिकुड़ता आ रहा है। वह कहते हैं कि पिछले 20 साल में 95 एटमी प्लांट ऑनलाइन हो चुके हैं और 98 बंद किए जा चुके हैं। अगर आप इस समीकरण से चीन को बाहर रखें तो एटमी ऊर्जा संयंत्रों की संख्या पिछले दो दशकों में 50 तक गिर चुकी है। एटमी उद्योग फल-फूल नहीं रहा है।