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फिर उभरा मणिपुर के विलय का मुद्दा

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, गुरुवार, 17 अक्टूबर 2019 (14:59 IST)
70 साल पहले मणिपुर का भारत में विलय हुआ था। पूर्वोत्तर के इस छोटे-से पर्वतीय राज्य के ज्यादातर पुराने बाशिंदों और संगठनों का मानना है कि विलय उनकी सहमति से नहीं हुआ था।
 
मणिपुर के महाराजा बोधचंद्र सिंह और केंद्र सरकार के प्रतिनिधि वीपी मेनन ने विलय के समझौते पर 21 सितंबर, 1949 को हस्ताक्षर किए थे। वर्ष 1947 में त्रिपुरा के अंतिम महाराजा बीर विक्रम किशोर माणिक्य के निधन के बाद राजकाज संभालने वाली महारानी कंचनप्रभा देवी ने त्रिपुरा के भारतीय संघ में विलय के समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। त्रिपुरा में तो अब लोगों में अलगाव की भावना नहीं है, लेकिन मणिपुर में रह-रहकर यह चिंगारी भड़क जाती है। कुछ उग्रवादी संगठन इसे जबरन विलय मानते हैं।
 
आजादी के समय भारत में कथित रूप से जबरन विलय के विरोध में उग्रवादी संगठनों ने मणिपुर के अलावा त्रिपुरा में भी 15 अक्टूबर को 12 घंटे का बंद रखा था। त्रिपुरा में तो इसका खास असर नहीं पड़ा, लेकिन मणिपुर में इससे आम जनजीवन ठप हो गया। मणिपुर के 2 उग्रवादी संगठनों- द कोऑर्डिनेशन कमिटी और द अलायंस ऑफ सोशलिस्ट यूनिटी के साथ त्रिपुरा के नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ ट्विपरा (एनएलएफटी) ने 15 अक्टूबर, 1949 को भारत में इन दोनों राज्यों के कथित रूप से जबरन विलय के विरोध में बंद की अपील की थी।
 
इन संगठनों ने अपने साझा बयान में भारत में दोनों राज्यों के विलय को इतिहास का अंधेरा दौर बताते हुए कहा है कि विलय के चलते इन दोनों राज्यों के मूल निवासी अल्पसंख्यक हो गए हैं और राजनीतिक व आर्थिक रूप से यह राज्य पूरी तरह हाशिए पर हैं। भारत में विलय ही इन समस्याओं की वजह है। उनका कहना है कि दोनों राज्यों के तत्कालीन प्रमुखों से जबरन विलय के कागजात पर हस्ताक्षर कराए गए थे।
 
मणिपुर का इतिहास
 
ईसा पूर्व से ही मणिपुर का इतिहास बेहद पुराना और समृद्ध रहा है। इस राज्य का जिक्र पुराणों में भी मिलता है। यहां शासन करने वाले राजवंशों का लिखित इतिहास सन् 33 ई. में पाखंगबा वंश के राज्याभिषेक के साथ शुरू हुआ। इस राजवंश ने वर्ष 33 से 154 तक यानी लगभग 120 वर्षों तक यहां शासन किया था। उसके बाद कई अन्य राजाओं ने मणिपुर पर शासन किया।
 
19वीं सदी की शुरुआत तक मणिपुर की संप्रभुता बनी रही। उसके बाद वर्ष 1819 से 1825 तक बर्मा के लोगों ने इस राज्य पर पर कब्जा कर रखा था। उसके बाद फिर कई राजाओं ने यहां शासन चलाया। वर्ष 1891 में अंग्रेजों ने मणिपुरी सेना को पराजित कर इस राज्य पर कब्जा कर लिया। उसके बाद देश की आजादी तक यहां अंग्रेजों का कब्जा बना रहा। उसके बाद महाराजा बोधचंद्र ने यहां राजकाज संभाला। लेकिन 2 साल बाद ही उनको मजबूरन भारत में विलय के समझौते पर हस्ताक्षर करना पड़ा।
 
सेना से सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट कर्नल एच. भुवन ने मणिपुर के भारतीय संघ में विलय पर अपनी पुस्तक 'मर्जर ऑफ मणिपुर' में लिखा है कि 18 से 21 सितंबर 1949 यानी पूरे 4 दिनों तक शिलांग में चली लंबी और थकाऊ बातचीत के बाद महाराजा बोधचंद्र सिंह को जबरन समझौते पर हस्ताक्षर करना पड़ा। सुरक्षा के नाम पर सेना की जाट रेजीमेंट ने महाराज को उनके शिलांग स्थित रेडलैंड्स पैलेस में कैद कर लिया था। हालांकि वे अपने साथ अपनी सेना और पुलिस ले आए थे और उन्होंने बार-बार दलील दी थी कि उनको सेना की सुरक्षा की जरूरत नहीं है।
 
मणिपुर की संप्रभुता की वकालत करने वाले लोगों की दलील है कि दबाव या मजबूरी में कोई भी समझौता गैरकानूनी होता है। ऐसे में कैद की स्थिति में जबरन हस्ताक्षर कराने की वजह से मणिपुर के विलय का समझौता भी गैरकानूनी है।
 
लेफ्टिनेंट कर्नल भुवन ने लिखा है कि महाराजा बार-बार दलील देते रहे कि इस समझौते पर हस्ताक्षर करने से पहले वे मणिपुर लौटकर अपने लोगों और संवैधानिक ढंग से चुनी गई सरकार के साथ इसके प्रावधानों पर विचार-विमर्श करना चाहते हैं। उसके बाद शीघ्र शिलांग लौटकर इस पर हस्ताक्षर करेंगे। दिल्ली बार-बार इस पर हस्ताक्षर पर जोर दे रही थी। आखिर महाराजा ने 21 सितंबर को उस पर हस्ताक्षर कर दिया। उस समझौते को 15 अक्टूबर, 1949 से लागू होना था।
 
कमिश्नरी से लेकर राज्य तक
 
उक्त समझौते के बाद केंद्र सरकार ने मणिपुर का शासन चलाने के लिए एक चीफ कमिश्नर की नियुक्ति कर दी। वर्ष 1954 में रिशांग किशिंग ने केंद्रीय शासन के खिलाफ आंदोलन शुरू किया और राज्य की अपनी विधानसभा गठित करने की मांग उठाई। लेकिन तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री ने दलील दी कि मणिपुर और त्रिपुरा की स्थिति संवेदनशील है और वहां प्रशासन अभी कमजोर है।
 
उसके बाद वर्ष 1962 में केंद्र शासित प्रदेश अधिनियम के तहत 30 चयनित और 3 मनोनीत सदस्यों की एक विधानसभा स्थापित की गई। 19 दिसंबर, 1969 से प्रशासक का दर्जा मुख्य आयुक्त से बढ़ाकर उपराज्यपाल का कर दिया गया। 21 जनवरी, 1972 को मणिपुर को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला और 60 निर्वाचित सदस्यों वाली विधानसभा का गठन कर दिया गया।
 
लेकिन स्थानीय लोगों के मन में अलगाव की भावना अब भी जस की तस है। यही वजह है कि पूर्वोत्तर में सबसे ज्यादा उग्रवादी संगठन इसी राज्य में सक्रिय हैं। केंद्रीय बलों के खिलाफ स्थानीय लोगों में भारी नाराजगी की वजह से कभी महिलाओं के नंगे प्रदर्शन तो कभी सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम के विरोध में यह छोटा-सा राज्य अक्सर बड़ी-बड़ी सुर्खियां बटोरता रहा है।
 
राजनीतिक पर्यवेक्षक एल. मनींद्र सिंह कहते हैं, 'भारत में विलय और मणिपुर की संप्रभुता का मुद्दा लोगों के मन में गहरे बसा है। यही वजह है कि तमाम संगठन अक्सर इस मुद्दे को उछालते रहते हैं।' सिंह का कहना है कि केंद्र सरकार ने भी समझौते पर लोगों के मन में बनी धारणा को दूर करने का प्रयास करने की बजाय अलगाव की इस भावना को बढ़ावा ही दिया है। ऐसे में यह समस्या यदा-कदा सिर उठाती रहेगी।

रिपोर्ट प्रभाकर, कोलकाता

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