रिपोर्ट शिवप्रसाद जोशी
मध्यप्रदेश में कांग्रेस सरकार पर मंडराते खतरे के बीच पार्टी का एक बड़ा संकट राज्य इकाइयों की कलह और अंदरुनी खींचतान का भी है। मध्यप्रदेश हो या राजस्थान, कांग्रेस में नए और पुराने का संघर्ष तीव्र और निर्णायक हो उठा है।
कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष राहुल गांधी ने 13 दिसंबर 2018 को मध्यप्रदेश के 2 दिग्गजों कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के हाथों में हाथ डाले, हंसते-मुस्कुराते अपनी एक तस्वीर, लियो तोलस्तोय के इस कथन के साथ ट्वीट की थी- 'दो सबसे शक्तिशाली योद्धा होते हैं- धैर्य और समय'। लेकिन साल पूरा होते होते दोनों ही क्षीण हो चुके हैं।
कमलनाथ सरकार का समय संकट में है और सिंधिया का धैर्य टूट चुका है। मध्यप्रदेश की राजनीति में अपनी कथित उपेक्षा और अवहेलना से तंग आकर उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह से मुलाकात कर चुके हैं और तेज अटकलें हैं कि किसी भी वक्त वे केंद्र में मंत्री बनाए जा सकते हैं और साथ में राज्यसभा सांसद।
230 सीटों वाली मध्यप्रदेश विधानसभा में कांग्रेस का आंकड़ा 114 का है। 4 निर्दलीय, 2 बीएसपी और 1 सपा विधायक का समर्थन भी सरकार को हासिल है। 2 सीटें रिक्त हैं। 22 विधायकों की कांग्रेस से इस्तीफा देने की घोषणा के बाद विधानसभा में शक्ति परीक्षण अवश्यंभावी है और स्पीकर का रोल एक बार फिर सबसे अहम हो जाने वाला है।
कमलनाथ ने नाराज विधायकों को मनाने के लिए सभी मंत्रियों का इस्तीफा करा लेने का दांव चला है। उन्हें और 'संकटमोचक' दिग्विजय सिंह को यकीन है कि सरकार किसी भी कीमत पर नहीं गिरेगी। इस बीच बीजेपी और कांग्रेस दोनों के विधायक सुरक्षित ठिकानों में भिजवा दिए गए हैं और भागमभाग बेतहाशा है।
बुरे दिनों में पार्टी से किनारा
लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी का कहना है कि अच्छे और बुरे दिन आते-जाते रहते हैं इसलिए जब पार्टी कमजोर हो तो उसे छोड़ देना ईमानदारी की बात नहीं है। इस वक्तव्य में नैतिकता की दुहाई और पार्टी की दुर्दशा की चिंता तो दिखती है लेकिन उन कारणों और उनके समाधान की भावना परिलक्षित नहीं होती, जो पार्टी को अंदर से कमजोर कर रही हैं।
हो सकता है कि इन समकालीन बिखरावों में ही आजाद भारत की सबसे पुरानी पार्टी का आगामी वजूद भी बन रहा हो। फिलहाल तो कांग्रेस का नजारा यह है कि युवा नेता उपेक्षित महसूस कर रहे हैं कि बूढ़े क्षत्रपों ने पार्टी पर कब्जा जमाया हुआ है। केंद्रीय आलाकमान भी सुस्त-सा नजर आता है। राहुल गांधी लोकसभा चुनावों में हार के बाद अध्यक्ष पद छोड़ चुके हैं और सोनिया गांधी के पास वापस पार्टी की बागडोर है।
कांग्रेस में इस समय नए बनाम पुराने की लड़ाई अपने सबसे तीखे दौर में है। मध्यप्रदेश इसकी मिसाल है और अब राजस्थान में भी सुगबुगाहटें तेज हैं, जहां मुख्यममंत्री अशोक गहलोत के सामने युवा नेता और उपमुख्यमंत्री और राज्य संगठन और सरकार में अपनी कथित अनदेखी से विचलित सचिन पायलट एक बड़ी चुनौती बनकर खड़े हैं।
कई मौकों पर पायलट अपनी नाराजगी जाहिर कर चुके हैं। राहुल गांधी ने समझौते के लिए वहां भी काफी पसीना बहाया था। राजस्थान विधानसभा की 200 सीटों में से कांग्रेस के पास 101 सीटें हैं। बीएसपी, सीपीएम जैसे दलों और 13 निर्दलीयों के साथ सरकार के पास 125 सीटों का बहुमत है। मुख्यमंत्री गहलोत अपने राजनीतिक कौशल से अभी तक अपनी सरकार को सुरक्षित बनाए रखने में सफल हैं लेकिन आने वाले दिनों में और मध्यप्रदेश की राजनीतिक अस्थिरता के बाद राजस्थान में ऊंट कब किस करवट बैठे, कहना कठिन है।
सत्ता से नजदीकी की होड़
2014 के लोकसभा चुनावों में हार के बाद आधा दर्जन पूर्व केंद्रीय मंत्री, 3 पूर्व मुख्यमंत्री, राज्य कांग्रेस के 4 मौजूदा और पूर्व अध्यक्ष पार्टी छोड़ चुके हैं। ओडिशा में गिरधर गमांग और श्रीकांत जेना, गुजरात में शंकर सिंह वाघेला, तमिलनाडु में जयंती नटराजन, कर्नाटक में एसएम कृष्णा, यूपी में बेनीप्रसाद वर्मा और रीता बहुगुणा जोशी और हरियाणा में वीरेंद्र सिंह और अशोक तंवर, असम में हेमंत बिस्वा सरमा, अरुणाचल प्रदेश में पेमा खांडू, मणिपुर में मुख्यमंत्री एन. वीरेन सिंह, महाराष्ट्र में नारायण राणे जैसे प्रभावशाली नेता पार्टी छोड़ने वालों में हैं।
कर्नाटक जैसे कई राज्यों में गुटबाजी के चलते पार्टी अध्यक्ष के पद खाली पड़े हैं। आंध्रप्रदेश जैसे राज्य में तो कांग्रेस कमोबेश खत्म होने के कगार पर है, जहां उसके नेता या तो वाईएसआरसीपी, टीडीपी या बीजेपी में चले गए हैं। कोई राज्य ऐसा नहीं, जहां कांग्रेस इस्तीफों, बिखराव और कलह से मुक्त हो।
राज्यों में जीत के बावजूद कांग्रेस में शक्ति का संचार नहीं हो पा रहा है तो जाहिर है इसकी वजह आला दर्जे की अंदरुनी खींचतान के अलावा लोकसभा में लगातार 2 बड़ी पराजयों का सघन दर्द भी है। पार्टी हिन्दूवादी राजनीति से चोट खाकर संभली नहीं है और उसके नेताओं को समझ नहीं आ रहा है कि कांग्रेस की चिर-परिचित राजनीति जारी रखें या बीजेपी का जवाब देने के लिए नरम हिन्दुत्व की राजनीति के रास्ते चलें।
जहां जीत मिल रही हैं वहां लालसाएं और महत्वाकांक्षाएं लपलपा रही हैं, जीत के लाभ में हिस्सेदारी की मांग बढ़ती जा रही है। दूसरी ओर पार्टी में अलग अलग ऊंचाईयों से प्रमुख नेताओं के बयान आते हैं। कार्यकर्ता भ्रमित हैं और दुविधा में हैं।
उन्हें प्रेरित करते रह सकने वाली अगर जीत ही होती तो हाल की जीतों से पार्टी को और एकजुट दिखना चाहिए था। साफ है कि हौसला-अफजाई के बुनियादी तत्वों का अभाव है, दिशा देने वाली शक्तियां क्षीण हैं। यहां तक कि हाल के नागरिक लड़ाइयों और स्वत:स्फूर्त आंदोलनों में भी कांग्रेस अलग-थलग ही नजर आती है। इस समय कांग्रेस और विपक्षी दलों की थकान देश की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं पर भारी पड़ रही है।