उत्तर प्रदेश और कश्मीर में गैंग रेप के मामलों के बाद जिस तरह का माहौल बना है, उसमें शासकीय जिम्मेदारी और मानवीय संवेदना का पूरा ह्रास दिखता है। अपराधों की ऐसी अनदेखी भारत के लोकतांत्रिक ढांचे को झकझोरने की ताकत रखता है।
कानून का शासन लोकतंत्र की बुनियाद है। लेकिन जब राजसत्ता समाज और देश पर कानून का शासन लागू करने का अपना दायित्व निभाने के बजाय स्वयं कानून के शासन की जड़ों पर कुठाराघात करने पर तुल जाए, तब लोकतांत्रिक व्यवस्था के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लग जाता है। केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद से ही पिछले चार सालों में अनेक ऐसी घटनाएं देखने में आईं हैं, जब अपराधी अपना काम करते रहे और कानून के रखवाले मूक दर्शक बने देखते रहे।
अब स्थिति में एक भयावह बदलाव यह आया है कि राजसत्ता और सत्तारूढ़ पार्टी स्वयं अपराधियों के पक्ष में खड़ी हो गई है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने खिलाफ 27 आपराधिक मुकदमे वापस ले लिए हैं और पूर्व केंद्रीय मंत्री स्वामी चिन्मयानंद के खिलाफ बलात्कार के मुकदमे को वापस लिए जाने की सिफारिश की है।
लेकिन अब स्थिति इससे भी अधिक भयावह होकर अगले चरण में पहुंच चुकी है। पिछले दिनों जम्मू कश्मीर के कठुआ और उत्तर प्रदेश के उन्नाव में जिस तरह से अपराधियों और बलात्कारियों के पक्ष में सत्तारूढ़ पार्टी के नेता, कार्यकर्ता और समर्थक खुले आम प्रदर्शन कर रहे हैं, उससे पता चलता है कि मानवीय संवेदना की जगह राजनीतिक स्वार्थ ने ले ली है और राजसत्ता निष्पक्ष भाव से कानून के अनुसार काम करने के बजाय खुल कर अपराधियों का साथ दे रही है।
ऐसे में आम नागरिक के लिए कहां से न्याय मिलने की उम्मीद की जाए? दिसंबर 2012 में जब पूरे देश की अंतरात्मा को निर्भया बलात्कार कांड ने झकझोर दिया था, तब विपक्ष की भूमिका निभा रही भारतीय जनता पार्टी की नेता सुषमा स्वराज ने बलात्कारियों को फांसी की सजा दिए जाने की मांग की थी। लेकिन अब विदेशमंत्री का पद संभाल रही वही सुषमा स्वराज अपने होंठ सिये बैठी हैं।
उन्नाव में एक भाजपा विधायक पर बलात्कार का आरोप लगाने वाली युवती और उसके पिता ने थक-हार कर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के सरकारी आवास के सामने आत्मदाह की कोशिश की। उसके बाद पीड़िता के पिता को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और पुलिस की हिरासत में उसकी मृत्यु हो गयी। लेकिन विधायक कुलदीप सेंगर को अभी तक गिरफ्तार नहीं किया गया है। पुलिस हिरासत में मौत होने के बाद चार पुलिसकर्मियों को निलंबित करने की औपचारिकता निभा दी गयी है।
कठुआ में जो हुआ है, वह मानवता को शर्मसार करने के लिए काफी है। मुस्लिम बकरवाल समुदाय की आठ साल की बच्ची आसिफा को एक मंदिर में बंद करके कई दिन तक उसके साथ पुजारी, उसके रिश्तेदारों और पुलिसकर्मियों ने बलात्कार किया और अंततः उसकी हत्या कर दी। तीन माह तक जब पुलिस की टालमटोल चलती रही, तो मजबूर होकर बकरवाल समुदाय के लोगों ने विरोध प्रदर्शन शुरू किया। तब जांच क्राइम ब्रांच को सौंपी गई।
अब इस बच्ची का मुकदमा लड़ रही महिला वकील को खुद अन्य वकील ही धमकी दे रहे हैं, वे अदालत में धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं, एक हिंदुत्ववादी संगठन और भाजपा के नेता एवं कार्यकर्ता मिलकर जुलूस निकाल रहे हैं और इसे बलात्कार और हत्या के बजाय हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक मुद्दा बनाने पर तुले हैं।
जहां उत्तर प्रदेश में भाजपा दो-तिहाई बहुमत पाकर सत्ता में है, वहीं जम्मू-कश्मीर में वह महबूबा मुफ्ती की सरकार में साझीदार है। इस घटनाक्रम से पूरे विश्व में संदेश जा रहा है कि सत्ता में आने के बाद भाजपा के लिए न मानवीय मूल्यों का कोई अर्थ है, न ही लोकतंत्र का। उसके लिए केवल उसके तात्कालिक राजनीतिक स्वार्थ ही सर्वोपरि हैं। एक तरफ सत्ता का यह नग्न प्रदर्शन जारी है, तो दूसरी ओर दलित और अन्य उत्पीड़ित तबकों के भीतर भी आक्रोश बढ़ता जा रहा है क्योंकि इस व्यवस्था के भीतर न्याय मिलने की उन्हें भी जो उम्मीद थी, वह लगातार कम होती जा रही है।
इस स्थिति को देखते हुए अनेक लोगों को यह आशंका होने लगी है कि क्या अनेक संस्कृतियों, धर्मों और समुदायों के साथ हजारों साल की अवधि में भारतीय समाज का जो संश्लिष्ट ताना-बाना बना है, वह आने वाले वर्षों में छिन्न-भिन्न हो जाएगा? क्या एक समुदाय को दूसरे के खिलाफ खड़ा करने की राजनीति और राजसत्ता का पक्षपातपूर्ण आचरण देश को अंततः दुर्भाग्यपूर्ण गृहयुद्ध में तो नहीं धकेल देंगे? जो भी हो, आने वाले दिनों के बारे में बहुत आश्वस्ति नहीं होती।