रूस और यूरोपीय संघ के मंगल पर रोवर भेजने का साझा कार्यक्रम एक ऐसा उदाहरण है, जहां रूस की बहुत अहम भूमिका है। आज रूस के हटने से पृथ्वी के हर महाद्वीप, जल और अंतरिक्ष में हो रहे वैज्ञानिक शोध पर असर पड़ेगा।
जलवायु विज्ञानियों को चिंता है कि बिना रूसी मदद के वे कैसे आर्कटिक के गर्म होने पर चल रहे महत्वपूर्ण शोध पर काम जारी रख पाएंगे? यूरोपीय स्पेस एजेंसी मंथन कर रही है कि बिना रूसी हीटिंग यूनिट के, वे कैसे लाल ग्रह मंगल तक अपना मार्स रोवर मिशन पहुंचाएं? क्या होगा दुनिया को कार्बन फ्री बनाने के लिए 35 देशों के फ्रांस में चल रहे उस साझा एक्सपेरिमेंटल फ्यूजन पावर रिएक्टर का, जिसके प्रमुख हिस्से रूस से आने हैं?
रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर के यूक्रेन में जंग छेड़ने के फैसले का मानवता के भविष्य के लिए जरूरी विज्ञान और शोध पर बुरा असर पड़ रहा है। शीत युद्ध के बाद विज्ञान ही वो पहला क्षेत्र था जो रूस और पश्चिमी देशों को पास लाया था। यूक्रेन पर युद्ध के बाद पश्चिमी देश रूस पर कड़ी कार्रवाई कर रहे हैं, और इस कार्रवाई की जद में वे वैज्ञानिक कार्यक्रम भी हैं जिनमें रूस शामिल है।
वैज्ञानिकों के मुताबिक, यह संबंध टूटने का बुरा असर दोनों तरफ होगा। जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याएं बिना आपसी सहयोग के प्रभावी साबित नहीं होंगी और जो वक्त बर्बाद होगा, वो अलग। रूसी और पश्चिमी वैज्ञानिक बीते कई सालों से एक दूसरे की विशेषज्ञता पर निर्भर रहे हैं।
यूरोपीय स्पेस एजेंसी का मंगल मिशन
यूरोपीय स्पेस एजेंसी के मार्स रोवर मिशन का उदाहरण ही ले लें। रूस इस परियोजना में बहुत संवेदनशील भूमिका निभा रहा था। रूस से सहयोग खत्म करने की वजह से इस साल प्रस्तावित लॉन्च टल गया है।
परियोजना में ग्रह के पर्यावरण को सूंघने, सैंपल इकट्ठा करने और जांचने के लिए इस्तेमाल हो रहे सेंसर रूस ही बना रहा था। अब उन्हें हटाना होगा। इसके अलावा रूस का रॉकेट लॉन्चर ही इस मिशन को लाल ग्रह तक पहुंचाने वाला था। अगर ये अलगाव लंबा चलता है तो यह मार्स रोवर साल 2026 तक अंतरिक्ष में नहीं पहुंच पाएगा।
एसोसिएटेड प्रेस के साथ एक इंटरव्यू में यूरोपियन स्पेस एजेंसी के निदेशक, जोसेफ आशबाखर ने कहा, "हमें इस सारे आपसी सहयोग(उपकरण वगैरह) को हटाना होगा। यह एक बहुत ही जटिल प्रक्रिया है। और मैं कह सकता हूं कि बहुत पीड़ादायक भी है।" उन्होंने कहा, "एक दूसरे पर निर्भरता एक स्थिरता लाती है और एक हद तक भरोसा भी।रूस के यूक्रेन पर हमला करने के बाद, यह वो चीज है, जो हम खोएंगे और अब हमने खो दिया है।"
रूसी कंपनियां बाहर
अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों के चलते रूस के साथ आधिकारिक सहयोग स्थापित करना लगभग असंभव हो गया है। साथ काम करने वाले वैज्ञानिक भले ही अच्छे दोस्त बन गए हों, लेकिन उनकी छोटी-बड़ी परियोजनाओं पर लगाम लग चुकी है।
यूरोपीय संघ ने शोध के लिए तय 95 अरब यूरो के बजट में रूसी कंपनियों और संगठनों को बाहर कर दिया है, पेमेंट रोक दी है और कहा है कि उन्हें कोई नया ठेका नहीं दिया जाएगा। जर्मनी, ब्रिटेन और दूसरे देशों की जिन परियोजनाओं में रूस की मौजूदगी है, उनसे पैसा और मदद वापस ली जा रही है।
शिक्षण संस्थानों में बदले हालात
वैज्ञानिक शोध के क्षेत्र में एक बेहतरीन अमेरिकी संस्थान मेसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलोजी ने रूस की राजधानी मॉस्को में मौजूद एक यूनिवर्सिटी से संबंध तोड़ दिए हैं। इसे बनाने में संस्थान ने कभी खुद मदद की थी। एस्टोनिया की सबसे पुरानी और बड़ी यूनिवर्सिटी- एस्टोनियन एकेडमी ऑफ साइंस भी अब रूस और बेलारूस के विद्यार्थियों को अपने यहां दाखिला नहीं देगी। इसके अध्यक्ष तारमो सूमीरे ने कहा, "हम बहुत सारा गति खोने के खतरे में हैं, जो हमारी दुनिया को बेहतर उपायों, बेहतर भविष्य की ओर जाती। वैश्विक तौर पर हम साइंस का केंद्र खोने की ओर हैं, जो नई और जरूरी जानकारी हासिल करना और इसे दूसरों तक पहुंचाना है।"
रूसी वैज्ञानिक भी इस दुखद अलगाव से लड़ने की तैयारी कर रहे हैं। रूसी वैज्ञानिकों और विज्ञान कर्मियों ने युद्ध का विरोध करती एक ऑनलाइन याचिका चलाई है, जिस पर 8 हजार से ज्यादर दस्तखत हैं। उन्होंने चेताया कि यूक्रेन पर हमला करके रूस ने खुद को अजब स्थिति में डाल लिया है। इसका मतलब है, "हम अपना काम बतौर वैज्ञानिक आराम से नहीं कर सकते, क्योंकि अपने विदेशी सहकर्मियों की पूर्ण सहयोग के बिना शोध करना असंभव है।"
इस बढ़ती अनबन के पीछे रूसी प्रशासन का हाथ भी है। यहां के विज्ञान मंत्रालय ने वैज्ञानिकों को सलाह दी है कि वे 'वैज्ञानिक जर्नलों में प्रकाशित होने की चिंता ना करें क्योंकि उन्हें वैज्ञानिकों के काम के लिए पैमाने की तरह अब इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है।'
समाचार एजेंसी एपी को भेजे एक ईमेल में मॉस्को में स्थित स्पेस रिसर्च इंस्टीट्यूट के अग्रणी भौतिक विज्ञानी और एक्सो मार्स रोवर प्रोजेक्ट में शामिल रहे लेव जेलेनई ने स्थिति को दुखद बताया है। उन्होंने कहा कि रूसी वैज्ञानिकों को सीखना होगा कि इस अक्षम कर देने वाले माहौल में काम कैसे करना है।
35 देशों का साझा कार्यक्रम अधर में
इसके अलावा कई बड़ी परियोजनाओं का भविष्य भी अधर में लटका है। फ्रांस में 35 देशों के सहयोग से चल रहा आईटीईआर फ्यूजन एनर्जी प्रोजेक्ट का भविष्य भी साफ नहीं है। रूस इसके साथ संस्थापक सदस्यों में से है। यहां रूस के सेंट पीटर्सबर्ग में टेस्टिंग के लिए रखे गए एक विशाल सुपरकंडक्टिंग मैगनेट का इंतजार भी हो रहा है। यह अब इस प्रोजक्ट को मिल पाएगा या नहीं, अभी साफ नहीं हो पाया है।
डार्क मैटर की खोज में जुटे यूरोपीयन न्यूक्लियर रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन (सीईआरएन) में भी 1000 से ज्यादा रूरी वैज्ञानिक काम कर रहे हैं। इसके निदेशक योआखिम मनिच ने कहा कि प्रतिबंध रूसी सरकार तक ही होने चाहिए, रूसी सहकर्मियों के लिए नहीं। संगठन ने रूस का ऑब्जर्बर स्टेटस जरूर खत्म किया है, लेकिन किसी भी रूसी वैज्ञानिक को नहीं हटाया गया है।
रूसी विशेषज्ञता की कमी खलेगी
बाकी क्षेत्रों में भी रूसी विशेषज्ञता की कमी खलेगी। लंदन के इंपीरियल कॉलेज में प्रोफेसर एंड्रियन मक्सवर्दी कहते हैं कि पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र पर हो रहे शोध में जो पैमाइश रूस में बने उपकरण कर पाते हैं, वो पश्चिमी देशों में बने उपकरण नहीं कर पाते। मक्सवर्दी खुद रूस से मिलने वाले 25 करोड़ साल पुराने साइबेरियाई पत्थर की जांच करना चाहते थे। अब उन्हें यह पत्थर मिलने की उम्मीद नहीं है।
जर्मनी के वातावरण विज्ञानी मार्कुस रेक्स ने कहा कि 2019-20 में साल भर लंबा चला अंतरराष्ट्रीय मिशन बिना दमदार रूसी जहाजों के पूरा नहीं हो सकता था। बर्फ के बीच रूसी जहाजों ने ही उन तक खाना, ईंधन और जरूरी सामान पहुंचाया था।
रेक्स के मुताबिक, यूक्रेन हमले के बाद यह 'बहुत करीबी सहयोग' थम गया है। और भविष्य में भी जलवायु परिवर्तन के लिए हो रहे बदलावों के लिए यह झटका है। उन्होंने कहा, "इससे विज्ञान को नुकसान होगा। हम चीजें खोने जा रहे हैं। जरा नक्शा निकालिए और आर्कटिक को देखिए। आर्कटिक में कोई भी काम का शोध करना बहुत मुश्किल है अगर आप वहां की बड़ी सी चीज को दरकिनार करते हैं तो। वो चीज रूस है। आर्कटिक बहुत तेजी से बदल रहा है। वो इंतजार नहीं करेगा कि हम अपने राजनैतिक संघर्ष निपटा लें या दूसरे देशों हर हमला करने के मंसूबे पूरे कर लें।"