आम तौर पर तो यही मानते हैं कि सूंघने की क्षमता में इंसान का कुत्ते या चूहों से कोई मुकाबला नहीं। लेकिन अब अमेरिकी रिसर्चरों कहना है कि यह सदियों पुरानी मिथ्या धारणा है और कुत्ते की नाक इंसान जितनी ही तेज होती है।
अमेरिका की रटगर्स यूनिवर्सिटी के तंत्रिका विज्ञानी जॉन मैक्गान की रिपोर्ट 'साइंस' जर्नल में प्रकाशित हुई है। इसमें बताया गया है कि उन्होंने ऐसे सभी शोधों और ऐतिहासिक लेखों का विश्लेषण किया जिनसे इस भ्रांति को बल मिला था। भ्रांति यह कि सूंघने की क्षमता इंसानों के मुकाबले कुत्तों में ज्यादा होती है।
मैक्गान कहते हैं, "इतने लंबे समय से लोग यह दावे सुनते आए हैं लेकिन किसी ने भी रोक कर पूछा नहीं और इस पर सवाल खड़े नहीं किये। उन लोगों ने भी नहीं जिनका काम ही गंध पर काम करना है।" मैक्गान कहते हैं कि "सच तो यह है कि इंसान में सूंघने की क्षमता उतनी ही अच्छी है जितनी बाकी दूसरे स्तनधारियों जैसे रोडेंट (चूहों की प्रजाति) या कुत्तों की।"
अब तक माना जाता है कि इंसान की नाक करीब 10,000 अलग अलग तरह की गंध को पहचानने की क्षमता रखती है। लेकिन मैक्गान मानते हैं कि यह संख्या असल में दस खरब के आसपास होगी। साइंस जर्नल में लिखा गया है कि इंसानों की कमजोर घ्राण क्षमता के बारे में सबसे पहला सिद्धांत 19वीं सदी के एक मस्तिष्क विज्ञानी, सर्जन और मानवविज्ञानी पॉल ब्रोका ने दिया था।
सन 1879 के अपने लेख में ब्रोका ने लिखा कि इंसान के दिमाग में गंध के लिए जिम्मेदार क्षेत्र 'ओलफैक्ट्री एरिया' बाकी हिस्सों की अपेक्षा छोटा होता है, इसीलिए उसमें सूंघने की क्षमता कम होती है। इसी आधार पर उन्होंने सिद्धांत दिया कि इंसान अपनी मर्जी से जीने वाला जीव है और उसे जिंदा रहने के लिए जरूरी भोजन खोजने के लिए बाकी स्तनधारियों की तरह अपनी नाक पर निर्भर नहीं रहना पड़ता।
ब्रोका के इसी सिद्धांत से प्रभावित होकर ऑस्ट्रिया के तंत्रिका विज्ञानी और मशहूर साइकोएनेलिस्ट जिगमंड फ्रॉएड ने लिखा कि इंसानों में सूंघने की शक्ति कमजोर होने के कारण ही उन्हें मानसिक बीमारियां ज्यादा होती हैं। मैक्गान कहते हैं, "यह एक लंबी सांस्कृतिक मान्यता रही है कि एक तर्कसंगत व्यक्ति तभी होगा जब वो गंध से ज्यादा प्रभावित ना हो। गंध को जानवरों की प्रवृत्ति से जुड़ा माना जाता था।"
इंसान की ओलफैक्ट्री बल्ब मस्तिष्क के कुल हिस्से का केवल 0।01 फीसदी होता है जबकि चूहों में करीब दो फीसदी। लेकिन अगर असल आकार की तुलना करें तो वह चूहे के मस्तिष्क की तुलना में कहीं ज्यादा बड़ा है। जरूरी तथ्य यह है कि चाहे इंसान हो या दूसरा कोई भी स्तनधारी, दोनों के ओलफैक्ट्री बल्ब में न्यूरॉनों की संख्या बराबर होती है। अंतर यह है कि इंसान, चूहे या कुत्ते - अलग अलग गंधों के लिए कम या ज्यादा संवेदनशील हो सकते हैं।