अब इन पत्तलों पर भी आधुनिकता की मार पड़ने लगी है। अब थर्माकोल और प्लास्टिक के पत्तल पत्तों से बने पत्तल को उसकी जगह से धीरे-धीरे बेदखल करते जा रहे हैं।
भारत में सदियों से विभिन्न वनस्पतियों के पत्तों से बने पत्तल संस्कृति का अनिवार्य हिस्सा रहे हैं। ये पत्तल अब भले विदेशों में लोकप्रिय हो रहा है भारत में तो कोई भी सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक उत्सव इनके बिना पूरा नहीं हो सकता था। इन समारोहों में आने वाले अतिथियों को इन पत्तलों पर ही भोजन परोसा जाता था। लेकिन अब ये पत्तल खत्म होने लगी हैं।
असंगठित क्षेत्र के पत्तल उद्योग से लाखों मजदूरों की आजीविका जुड़ी है। बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, झारखंड और राजस्थान जैसे राज्यों में भी अब पत्तों से बने पत्तलों का चलन धीरे-धीरे कम होने लगा है। यह शायद अकेला ऐसा उद्योग है जिस पर नोटबंदी की मार नहीं पड़ी है। यह कहना सही होगा कि यह उद्योग नोटबंदी नहीं बल्कि आधुनिकता की मार से परेशान है। ग्रामीण इलाकों में तो पत्तलों पर भोजन की परंपरा अब भी कुछ हद तक बरकरार है लेकिन शहरों में इसकी जगह कांच या चीनी मिट्टी की प्लेटों ने ले ली है। विभिन्न समारोहों में बुफे पार्टी का प्रचलन बढ़ने की वजह से भी पत्तों से बने पत्तल अप्रासंगिक होते जा रहे हैं।
इतिहास
भारत में पत्तल बनाने और इस पर भोजन करने की परंपरा कब शुरू हुई, इसका कोई प्रामाणिक इतिहास उपलब्ध नहीं है। लेकिन यह परंपरा सदियों से चली आ रही है। यह जान कर किसी को भी हैरत हो सकती है कि देश में किसी दौर में 20 हजार से ज्यादा किस्म की वनस्पितयों की पत्तियों से पत्तल बनते थे। लेकिन आधुनिकता की बढ़ती होड़ ने इस उद्योग को समेट दिया है। अब खासकर शहरी इलाकों में पत्तल पर भोजन की परंपरा दम तोड़ती जा रही है।
हमारे प्राचीन ग्रंथों में भी केले के पत्तल पर भोजन की परंपरा का जिक्र मिलता है। अब तो महंगे होटलों और रेस्तरां में भी प्लटों पर केले के पत्ते रख कर भोजन करने की परंपरा बढ़ रही है। यह जानना दिलचस्प होगा कि भारत में भले ही सदियों पुरानी यह परंपरा बदल रही हो, विदेशी इसे बड़े चाव से अपना रहे हैं। खासकर यूरोप के प्रमुख देश जर्मनी में तो पत्तलों पर भोजन की परंपरा काफी लोकप्रिय हो रही है। पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए वहां इसकी लोकप्रियता तेजी से बढ़ रही है और अब उसकी देखादेखी दूसरे यूरोपीय देश भी पत्तलों की ओर आकर्षित हो रहे हैं।
स्वास्थ्य विशेषज्ञ पत्तल की जगह प्लास्टिक और थर्माकोल से बनी प्लेटों में भोजन को स्वास्थ्य के प्रति नुकसानदेह बताते हैं। उनका कहना है कि डिस्पोजेबल थर्माकोल की प्लेट में खाना खाने से उसमें मौजूद केमिकल भोजन के साथ मिल कर पाचन क्रिया पर प्रभाव डालते हैं। इससे कैंसर की आशंका होती है। इसी तरह डिस्पोजेबल गिलास में मिलाए गए केमिकल का छोटी आंत पर प्रतिकूल असर पड़ता है।
लाभ
पत्तल पर भोजन के अनगिनत फायदे हैं। जिन पत्तों से पत्तल बनते हैं उनमें अनगिनत औषधीय गुण होते हैं। कहा जाता है कि पलाश के पत्तल में भोजन से सोने के बर्तन में भोजन करने का लाभ मिलता है और केले के पत्तल में भोजन से चांदी के बर्तन में भोजन का लाभ। खून की अशुधद्ता की वजह से होने वाली बीमारियों में पलाश के पत्तल पर भोजन को फायदेमंद माना गया है। पाचन तंत्र संबंधी रोगों में भी इस पत्तल पर भोजन की सलाह दी जाती है। सफेद फूलों वाले पलाश के पत्तों से तैयार पत्तल पर भोजन करने से बवासीर यानी पाइल्स के मरीजों को लाभ होता है। इसी तरह पैरालिसिस या लकवाग्रस्त मरीजों को अमलतास की पत्तियों से तैयार पत्तल में और जोड़ों के दर्द से परेशान मरीजों को करंज की पत्तियों से बनने वाले पत्तल में भोजन की सलाह दी जाती है। पीपल के पत्तल में भोजन मंदबुद्धि बच्चों के इलाज में कारगर साबित होता है।
विशेषज्ञों का कहना है कि पत्तलों पर भोजन स्वास्थ्य के लिए तो हितकर है ही, इससे पर्यावरण को भी कोई नुकसान नहीं पहुंचता जबकि प्लास्टिक और थर्माकोल की प्लेट आसानी से नहीं गलती। इससे पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंचता है। इसके अलावा इन पत्तलों को धोना नहीं पड़ता। इससे पानी व श्रम की बचत होती है। इनको बनाने में किसी किस्म के केमिकल का इस्तेमाल नहीं किया जाता। इससे स्वास्थ्य को किसी तरह के नकसान का कोई अंदेशा नहीं रहता। इन पत्तलों को इस्तेमाल के बाद किसी जगह गाड़ने पर खाद तैयार हो सकती है। एक पर्यावरण कार्यकर्ता सुनील छेत्री कहते हैं, "पत्तलों के इस्तेमाल से जहां नदियों को प्रदूषित होने से बचाया जा सकता है वहीं पर्यावरण को भी इससे कोई खास नुकसान नहीं पहुंचता क्योंकि पत्तों से बने पत्तल बहुत जल्दी गल जाते हैं। देश में इस उद्योग से लाखों लोगों की रोजी-रोटी चलती है।"
बचाने की पहल करे सरकार
पश्चिम बंगाल में शाल के पत्तों से बने पत्तल का कारोबार करने वालों ने सरकार से इस उद्योग को बचाने की मांग की है। उनकी दलील है कि पत्तल कीमत के लिहाज से सस्ते तो हैं ही, इन पर भोजन के अनगिनत फायदे भी हैं। भोजन के मामले में इसकी जगह वही है जो पैकेजिंग के मामले में जूट की है। इन कारोबारियों की दलील है कि जब सरकार जूट के इस्तेमाल को बढ़ावा देने का प्रयास कर रही है तो उसे पत्तल उद्योग को भी बचाने और बढ़ावा देने की पहल करनी चाहिए। ऐसा नहीं हुआ तो आधुनिकता की मार से यह सदियों पुरानी परंपरा धीरे-धीरे दम तोड़ देगी। पत्तल के थोक व्यापारी रमेश साव कहते हैं, "सरकार और सामाजिक संगठनों को देश की इस सदियों पुरानी दुर्लभ परंपरा को बचाने की दिशा में ठोस पहल करनी चाहिए।" उनकी दलील है कि इसके फायदों को ध्यान में रखते हुए विदेशों में इनका प्रचलन तेजी से बढ़ रहा है। लेकिन यह परंपरा अपने घर में ही दम तोड़ने पर मजबूर है।