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कबूतरबाजी का मक्का बना चेन्नई

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, शनिवार, 7 अप्रैल 2018 (17:24 IST)
हर दिन जबरदस्त पोषण वाली खुराक, तकनीक की मदद से ट्रेनिंग और कलाबाजी का अभ्यास। चेन्नई को "कबूतर रेस का मक्का" यूं ही नहीं कहा जाता। चलिए कबूतरों की इस दुनिया में।
 
दक्षिण भारतीय राज्य तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई में कबूतर की रेस का सीजन चरम पर है। कबूतर पालकों और दर्शकों के लिए यह साल का सबसे अहम समय है। करीब डेढ़ हजार किलोमीटर तक कबूतर उड़ाने के लिए एक बड़े नेटवर्क की जरूरत पड़ती है। उड़ान भरने वाले कबूतरों के लिए जगह जगह पर भोजन और पानी का इंतजाम करना पड़ता है।
 
भारत के 7,000 कबूतर पालकों में से करीब आधे चेन्नई में रहते हैं। शहर को कबूतरों की रेस का मक्का भी कहा जाता है। जनवरी से अप्रैल तक चलने वाली रेस के दौरान अलग अलग किस्म की प्रतियोगिताएं होती हैं, जिनमें हिस्सा लेने वाले कबूतर 200 से 1,400 किलोमीटर तक उड़ान भरते हैं। पहले सबसे लंबी उड़ान की सीमा 1,850 किलोमीटर थी। पशु अधिकार संगठनों की मांग पर इतनी लंबी उड़ान को बंद कर दिया गया।
 
अप्रैल में रेस निर्णायक मोड़ पर आ जाती है। लंबी उड़ान भरने के बाद जो कबूतर सबसे पहले वापस लौटेगा, उसे ब्रीडिंग के लिए कई मादाएं मिलेंगी, पुरस्कार मिलेगा और उसके मालिकों को सम्मानित किया जाएगा।
 
चेन्नई में कबूतरबाजी में हिस्सा लेने वाले करीब दो दर्जन क्लब हैं। हाल के समय में इन क्लबों के बीच प्रतिस्पर्धा के साथ साथ सहयोग भी बढ़ा है। क्लब एक दूसरे के साथ जानकारी भी साझा करते हैं।
 
यूरोप के कुछ हिस्सों में भी कबूतरों की रेस काफी लोकप्रिय है। लेकिन इस खेल की शुरुआत 1940 के दशक में कोलकाता में हुई। 1970 के दशक में कबूतरबाजी बेंगलुरू पहुंची और फिर 10 साल के भीतर चेन्नई। कबूतरों की रेस बाकायदा नियम कायदों से होती है। इंडियन रेसिंग पिजन एसोसिएशन (आईआरपीए) इसके लिए आधिकारिक संस्था हैं। संस्था को अंतरराष्ट्रीय मान्यता भी मिली है।
 
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आईआरपीए के अध्यक्ष इवान फिलिप के मुताबिक भारत में रेस के लिए कबूतर पालने वालों की संख्या हर साल 10 से 20 फीसदी बढ़ रही है। अब साल में दो बार रेस कराने की योजना बन रही है, ताकि युवा और बुजुर्ग कबूतरों को अलग अलग मौके दिए जाएं। फिलिप कहते हैं, "हमारा अपना कबूतरों की रेस का ओलंपिक भी है, जो दो साल में एक बार होता है। अगला ओलंपिक 2019 में पोलैंड में होगा।" दूसरे देश के कबूतरबाजों के साथ जानकारी साझा करने और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आयोजनों को बेहतर बनाने के लिए दो दिन की वर्ल्ड कांग्रेस भी होती है।
 
वक्त के साथ कबूतरबाजी के तरीकों में बड़ा बदलाव आया है। स्टार खिलाड़ियों की तरह अब कबूतरों की फिटनेस का ख्याल रखा जाता है। उन्हें पोषक खुराक दी जाती है, कबूतरों को ट्रेन करने के लिए तकनीक का सहारा भी लिया जा रहा है। ब्रीडिंग के तरीके भी बेहतर किए जा रहे हैं।
 
फिलिप कहते हैं, "एक समय था जब चेन्नई में कबूतरों की दौड़ को सिर्फ ऑटोरिक्शा वालों या दिहाड़ी मजदूरों से जोड़कर देखा जाता था।" लेकिन इस बीच डॉक्टर, वकील, कारोबारी, इंजीनियर और नेता भी कबूतरों की रेस में सक्रिय होने लगे हैं। वैसे इस खेल के जरिए बहुत ज्यादा पैसा अब भी नहीं कमाया जा सकता है। विजेता कबूतर को अब भी करीब 5,000 रुपये का नगद इनाम मिलता है, जबकि रेस के लिए कबूतरों को तैयार करने में हर महीने करीब 8,000 रुपये का खर्चा आता है।
 
मोहनकृष्णन नामी कबूतरबाज हैं। 2017 में उनके कबूतर ने लंबी दूरी की उड़ान प्रतियोगिता जीती थी। इस बार वह अपने तीन कबूतरों को 1,000 किलोमीटर उड़ाना चाहते हैं। 150 कबूतरों पर मोहनकृष्णन महीने में करीब 8,000 रुपए खर्च करते हैं। पेशे से इंजीनियर मोहनकृष्णन कहते हैं, "मैं सभी को पका हुआ मक्का, मूंगफली, सफेद कच्चा मक्का, कई तरह का अनाज, दालें, ज्वार और बाजरा खिलाता हूं। हर सुबह मैं उन्हें थोड़ा तेल भी देता हूं ताकि वे ताकतवर बनें और लंबी दूर तक उड़ सकें।"
 
डॉयचे वेले ने जब मोहनकृष्णन से कबूतरों की ट्रेनिंग के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि सबसे अहम जुलाई से सितंबर का समय होता है। इस दौरान कबूतर अपने पुराने पंख गिराते हैं और उनके शरीर में नए पंख आते हैं। अगर इस दौरान बढ़िया ट्रेनिंग हो तो नए पंख मजबूत बनते हैं और कबूतर बेहतर कलाबाजी के लिए भी तैयार हो जाते हैं। इसके बाद समय समय पर मोहनकृष्णन अपने कबूतरों को पांच से 120 किलोमीटर उड़ाते रहते हैं।
 
कबूतरों का जीवनकाल आमतौर पर 15 साल का होता है। करीब चार से पांच साल तक उनका शारीरिक प्रदर्शन रेस के लिहाज से चरम पर होता है। रेस जीतने वाले कबूतरों का ब्रीडिंग में इस्तेमाल कर बेहतर जीन पूल भी बनाया जा रहा है। मोहनकृष्णन के मुताबिक अनुभवी कबूतरबाज कबूतर की आंख, पंखों का आकार, शरीर, फर और पैर देखकर अंदाजा लगा लेते हैं। लेकिन रेस के दौरान कभी कभी मायूस करने वाले पल भी आते हैं। कबूतर जब वापस नहीं लौटता तो मालिक परेशान हो जाते हैं। कबूतरों के लिए खतरे को कम से कम करने पर चेन्नई के क्लब लगातार काम कर रहे हैं।
 
वासुदेवन श्रीधरन/ओएसजे 

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