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खरीदारी कराने के लिए दिमाग में झांकती कंपनियां

हमें फॉलो करें खरीदारी कराने के लिए दिमाग में झांकती कंपनियां
, मंगलवार, 26 दिसंबर 2017 (11:31 IST)
आप अपने नए जूतों पर पैसा क्यों खर्च करेंगे? या फिर कीमती स्मार्टफोन पर? कंपनियां आपके अवचेतन मन तक अपनी पहुंच बना कर उन पर असर डालने को आतुर हैं ताकि आपकी जेब से पैसे निकाले जा सकें।
 
उपकरणों के सहारे नजरों की हलचल को पकड़ना, कंप्यूटर से आपके चेहरे का ऐसा नक्शा तैयार करना जिसमें क्षण भर के लिए भी आई चमक या गुस्सा दर्ज हो, और ऐसे सेंसर जो दिमाग की गतिविधियां जान सकते हैं, इन सब का इस्तेमाल कर कंपनियां लोगों की भावनाओं तक पहुंच कर अपने लिए जानकारी जुटा रही हैं।
 
पहले विज्ञापन कंपनियां अपने प्रचार अभियान की सफलता का पता लगाने के लिए कंज्यूमर सर्वे का सहारा लेती थीं लेकिन इस तकनीक की अपनी सीमाएं हैं। डिजिटल मार्केटिंग एजेंसी आईसोबार की वाइस प्रेसिडेंट जेसिका अजूले कहती हैं, "ऐसा नहीं कि लोग आपको बताएंगे नहीं लेकिन वास्तव में वे यह नहीं बता सकते कि वे यह फैसला क्यों कर रहे हैं।"
 
नई तकनीकें यह जान चुकी हैं कि हमारी खरीदारी के फैसले विवेक और भावना दोनों से संचालित होते हैं। रिसर्च यह भी दिखाता है कि दिमाग अलग अलग स्तरों से जानकारी लेता है।
 
मार्केट रिसर्च फर्म इप्सोस में न्यूरो एंड बिहेविएरल साइंस बिजनेस की चीफ एग्जिक्यूटिव एलिसा मोसेस बताती हैं कि ये रिसर्च, "हमें अलग अलग तरह की भावनाओं को पकड़ने में मदद करते हैं और उनके आधार पर हम सेकेंड दर सेकेंड उत्पन्न होने वाली भावनाओं को सूक्ष्म स्तर पर जान कर उन्हें पहचान सकते हैं। लोग नहीं बता पाएंगे कि तीसरे दृश्य ने मुझे परेशान किया या फिर यह कि सातवें दृश्य को देख कर मैं रोमांचित हो उठा लेकिन उनके चेहरे की कोडिंग के जरिए हम यह जान सकते हैं।"
 
नई तकनीकें यह पता लगाने में मदद कर सकती हैं कि ब्रांड अपने प्रतिद्वंद्वियों की तुलना में बढ़त बनाए हुए हैं या नहीं और विज्ञापनों में किस चीज को प्रमुखता देनी है इसका पता भी लगाया जा सकता है। इन तकनीकों का इस्तेमाल दूसरे उद्योगो में भी हो रहा है जैसे कि रिटेल जहां अमेजॉन के दौर में ग्राहकों को लुभाने के लिए नए नए तरीकों का इस्तेमाल हो रहा है। मोसेस कहती हैं, "आखिरकार चेतना और अवचेतन के बीच एक रस्साकशी चलती है। किसी चीज को खरीदने के लिए आपको एक जागरूक फैसला करना होता है।"
 
इनमें से कुछ तकनीकों का पहली बार इस्तेमाल 1970 के दशक में हुआ लेकिन अब उनका इस्तेमाल ज्यादा होने लगा है क्योंकि उपकरण बेहतर हो गए हैं। आई ट्रैकिंग टेस्ट में तकनीक से लैस चश्मे के साथ कैमरे का इस्तेमाल होता है जो किसी व्यक्ति के टीवी देखते समय या फिर किसी स्टोर में किस चीज पर कितनी देर निगाहें टिकी रही, यह दर्ज कर लेता है।
 
इसे दूसरी तकनीकों के साथ जोड़ा जा सकता है जैसे गैल्वेनिक स्किन रिस्पांस जिसमें किसी व्यक्ति के हाथ में लगे सेंसर पसीना आने को पकड़ लेते हैं या फिर इलेक्ट्रोएनसेफैलोग्राफी जिसमें सिर पर लगे सेंसर के जरिए दिमाग में होने वाली हलचल दर्ज हो जाती है।
 
टीविटी हेल्थ ने बुजुर्गों के लिए बनाए गए प्रोग्राम "सिल्वर स्नीकर्स" के लिए इनमें से कई तकनीकों का इस्तेमाल किया। आईसोबा ने इसके लिए 1000 से ज्यादा बुजुर्गों को तेजी से बदलती ढेर सारी तस्वीरें और कसरत के बारे में कुछ शब्द दिखा कर उनका रिस्पांस जमा किया। इसके आधार पर बनी रिपोर्ट में कहा गया कि ज्यादातर लोग कसरत को इसलिए अहम मानते हैं क्योंकि यह उन्हें सक्षम बनाता है और समर्थ बनाता है।
 
यह खोज अहम थी क्योंकि टीविटी ने इसके आधार पर ही मार्केटिंग का अभियान तैयार किया। इसमें लिविंग लाइफ वेल भी था जिसमें अपनी उम्र को मात देते बुजुर्ग दिखाए गए। जैसे कि एक दादा जैसा शख्स छोटे से बच्चे को अपनी पीठ पर बिठा कर करसत करते नजर आते हैं। इन विज्ञापनों ने औरों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया।
 
एनआर/एके (एएएफपी)
 

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