-प्रभाकर मणि तिवारी
पूरी दुनिया में मशहूर दार्जिलिंग और असम चाय का जायका जलवायु परिवर्तन की वजह से बिगड़ने लगा है। कई रिसर्च रिपोर्ट में तो यह बात सामने आई ही है, चाय के शौकीन भी अब इसकी तस्दीक करते हैं। सिलीगुड़ी की रहने वाली मोनिका बंसल की हर सुबह दार्जिलिंग चाय के एक कप के साथ शुरू होती है। बीते करीब 5 दशकों से यह उनकी दिनचर्या का अभिन्न हिस्सा है।
चाय की इन चुस्कियों में उन्हें फर्क महसूस होने लगा है। बंसल कहती हैं कि इस चाय में अब पहले जैसी बात नहीं रही। स्वाद और सुगंध में पहले के मुकाबले अंतर आ गया है। इस पर्वतीय इलाके के चाय बागान मालिक और विशेषज्ञ भी मोनिका की टिप्पणी से सहमत हैं। उनका कहना है कि बीते खासकर एक दशक के दौरान इलाके में मौसम का मिजाज जिस तरह बदला है, वह चाय की खेती के लिए आदर्श नहीं रहा। दार्जिलिंग में खास किस्म की चाय की पैदावार के लिए आदर्श मौसम होने के कारण ही अंग्रेजों ने इलाके में बागान चला कर इसकी खेती शुरू की थी।
दार्जिलिंग की चाय
दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र में स्थित 87 चाय बागानों सालाना 80-85 लाख किलो चाय का उत्पादन होता हैं। इलाके में इस उद्योग से 67 हजार लोगों को प्रत्यक्ष और करीब चार लाख लोगों को परोक्ष तौर पर रोजगार मिला है। देश के कुल चाय उत्पादन में दार्जिलिंग चाय का हिस्सा भले बहुत कम हो, पूरी दुनिया में इस चाय की भारी मांग है।
वर्ष 2011 में इसे जीआई टैग मिला था। इस पर्वतीय क्षेत्र में चाय की खेती 18वीं सदी के पूर्वार्ध में शुरू हुई थी। उस समय यह इलाका मौसम और मिट्टी के लिहाज से बेहतरीन चाय की पैदावार के लिए आदर्श था।
इस उद्योग से जुड़े लोगों का कहना है कि बदलते मौसम की वजह से पहले जहां साल में आठ महीने तक चाय की खेती होती थी वहीं अब यह समय घट कर छह महीने हो गया है। दार्जिलिंग दुनिया की अकेली ऐसी जगह है जहां चाय की पत्तियां साल में 4 बार तोड़ी जाती हैं। इसकी शुरुआत फर्स्ट फ्लश से होती है जो सबसे बेहतर चाय है। इसका ज्यादातर हिस्सा निर्यात होता है। हर फ्लश की चाय की गुणवत्ता और स्वाद एक-दूसरे अलग और अनूठा होता है।
मौसम का मिजाज बदला
दार्जिलिंग जिले के कर्सियांग स्थित दार्जिलिंग टी रिसर्च एंड डेवलपमेंट सेंटर के एक अध्ययन में कहा गया है कि बीते दो दशकों के दौरान इलाके में तापमान में 0.51 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी और सालाना बरसात में 152.50 मिमी और सापेक्ष आर्द्रता में 16.07 फीसदी की गिरावट ने चाय की गुणवत्ता पर प्रतिकूल असर डाला है।
इसके कारण चाय का उत्पादन भी घटा है। वर्ष 1994 में इलाके के बागानों में कुल 11.29 मिलियन किलो चाय पैदा हुई थी जो अब घट कर करीब आठ मिलियन किलो तक रह गई है। हालांकि इसके लिए कई और कारक भी जिम्मेदार हैं। लेकिन मौसमी बदलावों ने उत्पादन में गिरावट के साथ ही इस चाय के स्वाद और सुगंध को भी प्रभावित किया है, इस पर विशेषज्ञों में आम राय है।
टी रिसर्च एंड डेवलपमेंट सेंटर के वरिष्ठ वैज्ञानिक अधिकारी मृत्युंजय चौबे बताते हैं कि तेज हवाएं, देर तक जमी रहने वाली कोहरे की घनी परतों ओलावृष्टि और अनियमित बारिश ने बेहतर गुणवत्ता वाली चाय के उत्पादन को प्रभावित किया है। चाय की खेती के लिए 18 से 30 डिग्री सेल्सियस तक तापमान और 95 से 98 फीसदी तक सापेक्षिक आर्द्रता जरूरी होती है।
बारिश और तापमान का असर
चौबे बताते हैं कि चाय की खेती के लिए आदर्श तापमान 18 से 30 डिग्री सेल्सियस के बीच है। अगर यह 32 डिग्री से ऊपर या 13 डिग्री से नीचे आया तो चाय के पौधों पर बेहद प्रतिकूल असर पड़ता है। अनियमित बारिश ने समस्या को और गंभीर कर दिया है। जरूरत से ज्यादा या कम बारिश दोनों चाय के पौधों की सेहत के लिए नुकसानदेह है और इसका सीधा असर चाय की गुणवत्ता और स्वाद पर पड़ता है।
फिलहाल चाय शोध संस्थान मौसम के प्रतिकूल असर से निपटने के कारगर तरीकों की तलाश में जुटा है। टी बोर्ड के तहत इस शोध व विकास केंद्र के परियोजना निदेशक प्रह्लाद छेत्री बताते हैं कि हम मौसम के प्रतिकूल असर से निपटने के कारगर तरीके तलाश रहे हैं। सूखा सहने वाले पौधे, ऑर्गेनिक खेती और रसायनों की मात्रा कम करने जैसे तरीके कुछ हद तक कारगर साबित हो सकते हैं।
पर्वतीय क्षेत्र के बागान मालिकों के संगठन दार्जिलिंग टी एसोसिएशन (डीटीए) के सचिव कौशिक बसु बताते हैं, ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से तापमान में तेजी से उतार-चढ़ाव होता है। इसका सीधा असर चाय के उत्पादन और उसकी गुणवत्ता पर पड़ता है।
पेड़ों की कटाई और कीटनाशक
चार दशक से भी ज्यादा तक दार्जिलिंग के सबसे मशहूर चाय बागानों में से एक मकईबाड़ी टी एस्टेट के मालिक रहे राजा बनर्जी कहते हैं कि पर्वतीय इलाके में बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई ने समस्या को गंभीर बना दिया है। इससे कम बारिश की स्थिति में भी जमीन खिसकने की घटनाएं बढ़ी हैं।
राजा बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन की वजह से हिमालय के ग्लेशियरों को पिघलने की प्रक्रिया तेज होने की वजह से दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र में औसत तापमान लगातार बढ़ रहा है। इसका असर उत्पादन पर पड़ रहा है। इससे निपटने के लिए बागानों में कीटनाशकों का इस्तेमाल बढ़ रहा है जिसकी वजह से फसलें नष्ट हो रही हैं। उनके मुताबिक अगर समय रहते जलवायु परिवर्तन के असर से निपटने के ठोस उपाय नहीं किए गए तो दो सौ साल से भी ज्यादा पुरानी इस विरासत को तो नुकसान होगा ही, हजारों लोगों की रोजी-रोटी भी खतरे में पड़ जाएगी।
असम की चाय पर भी असर
दुनिया में चाय की कुल पैदावार की एक तिहाई भारत में होती है और इसका आधा हिस्सा असम और पूर्वोत्तर में होता है। मौसम के बिगड़ते मिजाज का असर दार्जिलिंग के साथ ही असम की चाय पर भी नजर आने लगा है। असम के जोरहाट स्थित एक चाय विशेषज्ञ सुमंत बरगोंहाई कहते हैं कि तापमान में होने वाले उतार-चढ़ाव और चाय की खेती के लिए जरूरी बरसात के पैटर्न में बदलाव का असर चाय की क्वालिटी पर नजर आने लगा है। इससे चाय बागान की मिट्टी पर भी प्रतिकूल असर पड़ता है और पानी को बांधे रखने की उसकी क्षमता कम हो जाती है।
वह बताते हैं कि ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण तापमान में उतार-चढ़ाव होता है। इसका सीधा असर चाय की खेती के लिए जरूरी बारिश की मात्रा पर पड़ता है। तापमान में वृद्धि के कारण मिट्टी के वाष्पीकरण की प्रक्रिया तेज होती है। स्थिर तापमान और नियमित बारिश का पैटर्न गड़बड़ाने की स्थिति में चाय की क्वालिटी और उसके उत्पादन पर प्रतिकूल असर पड़ता है।
कुछ समय पहले असम के चाय बागानों में हुए एक सर्वेक्षण में 77 फीसदी बागान प्रबंधकों और 97 फीसदी लघु चाय उत्पादकों ने माना था कि प्रतिकूल मौसम चाय की खेती के लिए एक गंभीर खतरे के तौर पर सामने आया है। लंबे समय तक बढ़ते तापमान या फिर बेमौसम आने वाली बाढ़ ने असम की चाय का जायका बिगाड़ दिया है।
असम के जोरहाट स्थिति टी रिसर्च एसोसिएशन ने चाय की खेती पर जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल असर से निपटने के लिए संबंधित इलाकों में ठोस कदम उठाने की सिफारिश की है। इसके तहत जल संसाधनों के प्रबंधन के साथ ही कीटनाशकों के इस्तेमाल पर नियंत्रण जैसे मुद्दों पर ध्यान देना जरूरी है। चाय बागानों को पानी के प्रबंधन के जरिए ऐसी प्रणाली विकसित की जानी चाहिए जिससे चाय के पौधों को पूरे साल जरूरत के हिसाब से पानी मिलता रहे।