एक शोध में यह पुष्टि हुई है कि बिहार के कई जिलों के पानी में यूरेनियम मौजूद है। खतरनाक स्तर तक इस रेडियोधर्मी पदार्थ की मौजूदगी कहीं किसी भयावह खतरे का संकेत तो नहीं है!
आयरन, फ्लोराइड व आर्सेनिक की मानक से अधिक मात्रा बिहार में, खासकर बक्सर से लेकर भागलपुर तक गंगा नदी के किनारे बसे जिलों के भूजल में पहले से मौजूद है। कई इलाकों के लोग इसका कुप्रभाव भी झेल रहे हैं। सरकार हर घर तक शुद्ध पेयजल पहुंचाने के उपाय भी कर रही है।
किंतु, बिहार की राजधानी पटना के फुलवारीशरीफ स्थित महावीर कैंसर संस्थान, यूनाइटेड किंगडम (यूके) की यूनिवर्सिटी ऑफ मैनेचेस्टर, ब्रिटिश जियोलॉजिकल सोसाइटी व आईआईटी खड़गपुर व रूड़की तथा नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी, उत्तराखंड द्वारा संयुक्त रूप से डेढ़ साल तक किए गए शोध में राज्य के भूगर्भीय जल में यूरेनियम की मौजूदगी का पता चला है।
करीब दस जिलों में इसकी मात्रा मानक से अधिक पाई गई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक के अनुसार पानी में इसकी मात्रा 30 माइक्रोग्राम प्रति लीटर (एमपीएल) से अधिक नहीं होनी चाहिए, किंतु राज्य के इन जिलों में पानी में यूरेनियम की मात्रा 50 एमपीएल से अधिक मिली। सुपौल जिले के सैंपल में तो 80 एमपीएल तक यूरेनियम पाया गया।
बिहार राज्य प्रदूषण नियंत्रण परिषद के अध्यक्ष तथा महावीर कैंसर संस्थान के शोध प्रभाग के विभागाध्यक्ष डॉ। अशोक कुमार घोष के अनुसार बिहार के भूजल में खासकर आर्सेनिक की मात्रा का ही पता लगाया जा रहा था लेकिन फिर तय किया गया कि कुछ अन्य खनिजों का भी पता लगाया जाए।
इसी विचार के साथ 2018 में संयुक्त रूप से शोध शुरू किया गया। यह कार्य अभी चल रहा है। विदित हो कि भारत के केंद्रीय विज्ञान व प्रौद्योगिकी मंत्रालय तथा ब्रिटेन के नैचरल इन्वॉयरन्मेंट रिसर्च काउंसिल ने शोध का 50-50 फीसद खर्च उठाया है।
बिहार राज्य प्रदूषण नियंत्रण परिषद के अध्यक्ष डॉ। अशोक कुमार घोष, महावीर कैंसर संस्थान के अरुण कुमार और यूनिवर्सिटी ऑफ मैनचेस्टर के डेविड पोल्या व लाउरा ए रिसर्चड्स की शोध में अग्रणी भूमिका रही है। इस सिलसिले में राज्य के सभी 38 जिलों में 273 जगहों से हैंडपंपों (चापानल) समेत विभिन्न स्रोतों के जरिए 46 हजार से भी अधिक ग्राउंड वॉटर सैंपल लिए गए।
शोध के दौरान ज्ञात हुआ कि राज्य के सुपौल, पटना, सिवान, गोपालगंज, सारण (छपरा), नवादा और नालंदा जिले के पानी में यूरेनियम की मात्रा मानक से काफी अधिक है। इसके अलावा गया, जहानाबाद तथा औरंगाबाद से भी लिए गए सैंपल में भी यूरेनियम पाया गया।
जहां आर्सेनिक कम वहां यूरेनियम ज्यादा
शोध के दौरान एक दिलचस्प तथ्य सामने आया है कि जहां के पानी में यूरेनियम की मात्रा अधिक थी, वहां आर्सेनिक या तो नहीं मिला या कम मिला। इसके उलट, जिस सैंपल में आर्सेनिक की अधिक मात्रा मिली वहां यूरेनियम नहीं पाया गया।
नालंदा, नवादा, सारण, सिवान व गोपालगंज जिले के पानी में आर्सेनिक की मात्रा कभी नहीं मिली। इन जिलों के सैंपल में मानक से अधिक यूरेनियम मिला है। डॉ। अशोक घोष कहते हैं, सेंट्रल ग्राउंड वॉटर बोर्ड ने भी हाल में ही बिहार के भूजल में यूरेनियम की मौजूदगी की पुष्टि की है। अब यह शोध का विषय है कि भूजल में यूरेनियम आखिर कहां से आ रहा है। इससे पहले आज तक राज्य के ग्राउंड वॉटर में यूरेनियम नहीं पाया गया था। पता लगाना होगा कि यह जियोजेनिक है या फिर एंथ्रोपोजेनिक।''
यह भी पता लगाने की कोशिश की जाएगी कि जहां यूरेनियम मिला है, वहां इसके खदान की तो संभावना नहीं है। गंगा और सोन नदी के तटवर्ती इलाके खासकर गंगा के दक्षिणी हिस्से में इसकी मात्रा अधिक पाई गई है। वहीं उत्तरी हिस्से में आर्सेनिक की मात्रा अधिक है। विदित हो कि अविभाजित बिहार के सिंहभूम जिले के जादूगोड़ा में यूरेनियम पाया जाता था। यह इलाका विभाजन के पश्चात झारखंड में चला गया है।
यूरेनियम के कारण कैंसर?
वैसे तो वॉटर प्यूरीफायर की व्यापक रेंज उपलब्ध है, किंतु आम तौर पर घरों में लगाए जाने वाले प्यूरीफायर से यूरेनियम को साफ नहीं किया जा सकता है। यह भी जरूरी नहीं है कि प्यूरीफायर सभी मिनिरल्स को साफ कर दे। इसलिए पीने के पानी को लेकर काफी सतर्क होना जरूरी है।
इंदिरा गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान के सीनियर यूरोलॉजिस्ट डॉ. निखिल चौधरी बताते हैं, यूरेनियम किडनी को सर्वाधिक प्रभावित करता है। पानी में यूरेनियम का पाया जाना काफी चिंताजनक है। इस परिणाम से इस अवधारणा को बल मिलना स्वाभाविक है कि किडनी फेल होने के जिन 30 फीसद मामलों में कारण का पता नहीं चल पाता है, उनकी वजह कहीं यूरेनियम तो नहीं है।''
वहीं कैंसर रोग विशेषज्ञ डॉ. एस के झा के अनुसार यूरेनियम लीवर को नुकसान पहुंचाने के साथ गॉल ब्लैडर की समस्या का भी बड़ा कारण बन सकता है। हाल के दिनों में जिस तरह से गंगा व सोन नदी के किनारे वाले इलाके में कैंसर तथा गॉल ब्लैडर के मामले बढ़े हैं, उसका कारण यूरेनियम हो सकता है।
भूगोलवेत्ता कंचन सिन्हा कहती हैं, पृथ्वी की बनावट के कारण यह काफी हद तक संभव है कि झारखंड के उन इलाकों से जहां यूरेनियम की मौजूदगी है, वहां से यह कालांतर में बिहार के भूगर्भीय जल में समावेशित हुआ हो। वैसे यह तो शोध का विषय है।''
फूड चेन में भी आर्सेनिक
साल 2003 में सबसे पहले राज्य के भोजपुर जिले में पानी में आर्सेनिक के होने का पता चला था। इसके बाद 2007 में व्यापक पैमाने पर किए गए अध्ययन में पटना, खगड़िय़ा, मुंगेर, बक्सर, भागलपुर, कटिहार, सारण, वैशाली, समस्तीपुर, भोजपुर तथा बेगूसराय समेत 11 जिलों के भूजल में आर्सेनिक होने की बात सामने आई थी।
आज राज्य के 22 जिलों के पानी में आर्सेनिक पाया जाता है तथा 90 लाख से अधिक लोग इससे प्रभावित हैं। नालंदा व नवादा दो ऐसे जिले हैं, जहां कभी आर्सेनिक नहीं पाया गया, वहां यूरेनियम पाया गया है। ये दोनों जिले गंगा के किनारे भी नहीं हैं।
वहीं एक अन्य शोध से पता चला है कि बिहार में केवल पेयजल में ही आर्सेनिक मौजूद नहीं है, बल्कि फूड चेन खासकर चावल, गेहूं और आलू में भी यह मौजूद है। यहां तक कि कच्चे चावल की तुलना में पके हुए चावल में आर्सेनिक की अधिक मात्रा पाई गई। इसलिए पेयजल की गुणवत्ता के साथ-साथ सिंचाई के पानी की भी गुणवत्ता पर भी ध्यान देना जरूरी है।
रिपोर्ट : मनीष कुमार, पटना