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उस पानी से आप हाथ नहीं धोएंगे, जिसे इस गांव के लोग पीते हैं!

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DW

, शुक्रवार, 17 मई 2024 (07:52 IST)
स्वाति मिश्रा झारखंड के रुसुजरा गांव से
झारखंड के इस गांव में बीमार होने पर खटिया पर लाद कर अस्पताल ले जाते हैं, लेकिन ये बड़ी दिक्कत नहीं है। पथरीले रास्ते से लंबी चढ़ाई के बाद इतना गंदा पानी मिले कि हाथ धोने का भी मन ना करे, तब पता चलता है दिक्कत क्या है।
 
सरकार हो कि हम लोगों का मुखिया हो, या विधायक हो, या जिला परिषद हो कि पंचायत समिति, हम लोगों को किसी से मतलब नहीं है। जिस आदमी को हम लोग बनाए, वो हम लोगों को नहीं बना पा रहा है, तो हमें उनसे क्या मतलब? हम कुछ लोगों से पहले ही कह चुके हैं कि कोई इलेक्शन में यहां आकर हम लोगों से समझौता किया, तो खरीदेंगे बाजार से 10 रुपये वाला बम और आधे रास्ते में जलाकर फेंकेंगे बेटा लोग पर।
 
28 साल के गोपाल मुंडा बहुत नाराज हैं। शासन, प्रशासन, स्थानीय प्रतिनिधि… सब लोगों से बेहद गुस्सा हैं वो। गोपाल शुरू में मुझ पर भी नाराज हुए, मुझे ताना देने लगे क्योंकि उन्होंने मुझे "सरकारी आदमी” समझ लिया।
 
गांव तक अब भी नहीं पहुंची सड़क
झारखंड की राजधानी रांची से करीब 60-70 किलोमीटर दूर अनगड़ा प्रखंड में, पक्की सड़क खत्म होने के भी कई किलोमीटर आगे जंगल में आदिवासियों का एक गांव है, रुसुजरा। जो रोड आपको यहां पहुंचाती है, उसे ठीक-ठीक कच्ची सड़क भी नहीं कहा जा सकता। कहीं खड़ी चढ़ाई, कहीं ढलान, बजरीली-पथरीली मिट्टी पर एक कामचलाऊ राह सी बनी है।
 
आप जेठ-बैसाख की तीखी धूप में हांफते-रुकते पैदल यहां पहुंच तो सकते हैं, लेकिन बरसात में इतनी सहूलियत भी नहीं होती होगी। गांव से बहुत पहले ही आपकी चारपहिया जवाब दे जाएगी। मोटरसाइकिल आ सकती है, लेकिन शर्त ये कि चलाने वाला इस इलाके में रचा-बसा हो। उसे भी बेहद सावधानी से धीरे-धीरे बाइक चलानी होगी, बिना किसी को पीछे बिठाए।
 
पानी लाने की मुसीबतें : रुसुजरा ग्राम का नवाड़ी टोला गोपाल का घर है। ग्रामीण बताते हैं कि इस टोले में करीब 15 घर हैं, जिनमें लगभग 100 लोग रहते हैं। जनवरी 2024 तक 18 साल की होलिका कुमारी भी यहीं रहती थीं। उस महीने की शायद 2 तारीख थी (शायद इसलिए कि गांव वालों को पक्के से दिन याद नहीं), जब रोज की तरह होलिका सिर पर अल्मुनियम का घड़ा लेकर पानी भरने गईं। पानी भरकर घर आते हुए खड़ी चढ़ाई पर उनका पांव फिसला।
 
नजदीकी अस्पताल करीब 16 किलोमीटर दूर जोन्हा में है, गांव को आने वाली सड़क का हाल आप पढ़ ही चुके हैं। होलिका कुमारी को खटिया पर लिटाकर अस्पताल ले जाने की कोशिश हुई, लेकिन वो नहीं बच पाईं। इस बारे में बताते हुए होलिका के भाई गोपाल मुंडा रुआंसे हो जाते हैं। हमें उनकी नाराजगी का कारण समझ आता है।
 
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पानी और सड़क का सपना : ग्रामीण बताते हैं कि बीमारों को खटिया पर ही ले जाया जाता है, लेकिन गांव के लोग पास में अस्पताल ना होने को अपनी सबसे बड़ी परेशानी नहीं मानते। उनकी चाहत निहायत बुनियादी है। पीने का पानी और ऐसी सड़क, जिस पर बरसात में भी आया-जाया जा सके, रात-बिरात जरूरत पड़ने पर गाड़ी आ सके।
 
यहां ग्रामीणों के पानी की हर जरूरत का एक ही पता है। गांव के आखिरी घर से आधा किलोमीटर से कुछ ज्यादा ही दूरी पर एक छोटा सा कुंड है। उसमें नहा रहे छोटे बच्चों की कमर तक नहीं डूबी थी, इससे अंदाजा मिलता है कि करीब डेढ़ फुट पानी होगा। इसी में लोग नहाते हैं, बरतन धोते हैं, कपड़े साफ करते हैं।
 
यह कोई बहती धार नहीं है कि साबुन, मिट्टी और बाकी गंदगी बहकर धुल जाए। ये एक हौदी जैसा स्रोत है, जिसमें ठहरा हुआ पानी है। इससे बमुश्किल 10-15 मीटर दूर एक और कुंड है। इसका पानी भी पर्याप्त गंदा है, प्यास से जान ना जा रही हो तो आप इसका पानी पीने की हिम्मत नहीं करेंगे। गांववाले इसी कुंड का पानी पीते हैं।
 
महिलाओं की ये मेहनत कहां दर्ज होती है? : गांव की लड़कियां और महिलाएं पानी भरने के लिए दिन में चार-पांच चक्कर लगाती हैं। ध्यान रखना जरूरी है कि इस कुंड से गांव जाने वाला रास्ता सीधी चढ़ाई का है। धूप में वहां आते-जाते हुए मैं पसीने से नहा गई थी, जबकि मेरे सिर पर पानी से भरा कोई घड़ा भी नहीं था।
 
जहां-जहां पानी की दिक्कत है, पानी के लिए कई किलोमीटर जाने की मजबूरी है, उन जगहों पर ज्यादातर लड़कियों-महिलाओं पर ही यह अतिरिक्त बोझ बढ़ता है। इस श्रम का क्या हिसाब है? यह मेहनत कहां दर्ज हो रही है?
 
गांव में एक बूढ़ी अम्मा मिलीं। उन्हें अपना नाम नहीं पता। नजर बहुत कमजोर हो चुकी है। उन्होंने अपनी भाषा में जो कहा, उसका सार ये था कि जब से ब्याह कर इस गांव आई हैं, पानी के लिए यही जतन देख रही हैं। जब वो यह बता रही थीं, तब कुछ महिलाएं पास में खड़ी थीं। कुछ लड़कियां और बच्चियां भी थीं। मैं एक साथ तीन पीढ़ियों को देख रही थी, जिनके जीवन का एक लंबा समय पानी जुटाने में खर्च हो रहा है।
 
महिलाएं बात करने से हिचक रही थीं। बहुत पूछने पर निशा देवी ने कहा कि पानी के लिए आने-जाने में बहुत थकान हो जाती है। यह बात बड़े सरल तरीके से लजाते-मुस्कुराते हुए कही गई।  विपत्ति देवी उसी कुंड से लाए पानी से आंगन के छोर पर बरतन मांजती मिलीं। दोपहर का खाना निपट चुका था। उन्होंने जो कहा, उसका अनुमान आप सहज लगा सकते हैं। आप कल्पना कर सकते हैं कि उन्होंने क्या ख्वाहिश जताई होगी।
 
पानी की उपलब्धता ना होने के नुकसान इतने ही नहीं हैं। लड़कियों की पढ़ाई पर भी असर पड़ रहा है। पहली से पांचवीं क्लास तक की पढ़ाई के लिए स्कूल पास में हैं। उससे आगे छठी से 10वीं तक के लिए स्कूल टांटी में है, जो करीब नौ किलोमीटर दूर है। ग्रामीणों ने बताया कि अधिकतर बच्चे वहां भी पैदल ही आते-जाते हैं। गोपाल मुंडा बताते हैं कि एक तो घर के काम, ऊपर से पैदल जाने की विवशता, ऐसे में लड़कियां रोज इतनी दूर स्कूल नहीं जा पाती हैं।
 
उम्मीद के नाम पर वोट देते हैं : गोपाल मुंडा के पास बताने के लिए बहुत कुछ है। वह अनायास ही सामने पठार की ढलान की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, 'जून-जुलाई में बरसात होगी, तो वहां फसल लगाएंगे। बिना बरसात कुछ नहीं होता। पानी बरसेगा तो कुंड भी भरेगा। वरना तो जैसे पानी के बिना मछली तड़प कर मर जाती है, वैसे ही हम भी मर जाएंगे।'
 
ग्रामीण बताते हैं कि यहां ज्यादा पैदावार नहीं होती। एक फसल निकाल पाते हैं साल में। मुख्य फसलों में धान, बाजरा और मड़ुआ हैं। कमाई का एक और प्रमुख साधन मजदूरी है। कोई रांची कमाने जाता है, तो कोई उससे भी आगे दिल्ली तक। मिट्टी के घरों की कतार के बीच एक नए बने हरे रंग के पक्के मकान के आगे से गुजरते हुए पता चला कि इस घर का मालिक दिल्ली कमाने चला गया, उसी कमाई से उसने घर बनवाया है।
 
इन इलाकों को देखकर महसूस होता है कि विकास का साइज एक्स्ट्रा स्मॉल है। ये इतना संकरा है कि प्रदेश की राजधानी के 100 किलोमीटर की परिधि में भी सड़क और पानी जैसी बेहद बुनियादी सुविधाएं अब तक नहीं पहुंच पाई हैं। वंचित वर्ग आगे बढ़ने और जीवनस्तर सुधारने के लिए शिक्षा से भी आस नहीं लगा सकता क्योंकि उच्च शिक्षा अब भी उनकी पहुंच से बहुत दूर है। रोजगार के नाम पर भी अप्रशिक्षित श्रम के साथ बड़े शहरों में पलायन का विकल्प बचता है।
 
मैं लौटते वक्त फिर से लोकसभा चुनाव का जिक्र छेड़ती हूं। गोपाल मुंडा कहते हैं कि वो वोट देने जरूर जाएंगे। फिर खुद ही वजह बताते हुए कहते हैं, 'हर बार बस उम्मीद के नाम पर वोट देते हैं, कि क्या पता इस बार हमारा काम हो ही जाए।'
 
वापसी के रास्ते में एक चौक पर दुकान से ठंडे पानी की बोतल खरीदी। पीते हुए गोपाल मुंडा की बात याद आई, 'रांची जाते हैं, तो कभी-कभी बहुत प्यास लगने पर पानी की 20 रुपये वाली बोतल खरीदते हैं। उस पानी का स्वाद कितना अच्छा होता है! हमारे गांव के गड्ढे के पानी का स्वाद उससे एकदम अलग है!'

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