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बिहार की राजनीति में क्यों हैं इतनी कम महिलाएं

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, गुरुवार, 29 अक्टूबर 2020 (11:15 IST)
रिपोर्ट मनीष कुमार, पटना
 
बिहार में किसी भी चुनाव में जीत-हार का निर्णायक फैसला देने में सक्षम महिलाओं को आखिरकार विधानसभा में प्रतिनिधित्व क्यों नहीं मिल रहा? राजनीतिक दल उन्हें उम्मीदवारों की सूची में भी यथोचित हिस्सेदारी नहीं दे रहे।
 
महिलाओं को पंचायतों और नगरपालिकाओं में 50 प्रतिशत आरक्षण के प्रावधान के बावजूद बिहार की राजनीति में उन्हें बराबरी की हिस्सेदारी नहीं मिली है। स्थानीय निकायों में आरक्षण की व्यवस्था के तहत 2006 से अब तक करीब 2,00,000 महिलाएं चुनीं गईं, जो राज्य की करीब 8,000 स्थानीय निकायों में आज आधे से अधिक का सफल संचालन कर रही हैं।
 
लेकिन विधानसभा के संदर्भ में इनकी स्थिति ठीक इसके विपरीत है। 28 अक्टूबर, 2020 से शुरू होने वाले विधानसभा चुनाव को देखें तो साफ है कि राजनीतिक दलों द्वारा महिलाओं को 30 प्रतिशत उम्मीदवारी भी नहीं दी गई है। 243 सीटों पर होने वाले चुनाव के लिए 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' का नारा देने वाली राष्ट्रीय पार्टी भाजपा ने अपने हिस्से की 108 सीटों में से महज 13 सीट पर महिलाओं को प्रत्याशी बनाया है जबकि भाजपा के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ रही जनता दल यूनाइटेड ने अपने हिस्से की 115 सीटों में से 22 सीटों पर महिला उम्मीदवार खड़े किए हैं।
 
प्रमुख विपक्षी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल ने 144 में 16 सीटों पर तथा इनकी सहयोगी कांग्रेस ने अपने कोटे की 70 सीट में महज 7 पर महिलाओं को टिकट दिया है, वहीं 134 सीटों पर लड़ रही लोक जनशक्ति पार्टी ने 23 और सीपीआई ने 19 में महज 1 सीट पर महिलाओं पर भरोसा जताया है। जाहिर है, महिलाओं को 30 फीसदी सीट किसी पार्टी ने नहीं दी है। इससे पहले 2015 में भाजपा ने 157 सीटों में 14, जदयू ने 101 में 10, राजद ने 101 में 10, लोजपा ने 42 में 4, कांग्रेस ने 38 में 4, बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने 228 में 17, वामपंथी दलों ने 239 में 12 सीटों पर महिला उम्मीदवार खड़े किए थे। रही बात 2015 के विधानसभा चुनाव में महिलाओं की जीत की तो 28 महिलाएं चुनाव जीतने में सफल हुई थीं। इनमें जदयू की 9, राजद की 10, भाजपा की 4, कांग्रेस की 4 व 1 निर्दलीय थीं जबकि चुनाव मैदान में कुल 278 महिलाएं जोर-आजमाइश के लिए उतरी थीं, वहीं अगर विधानसभा में महिला सदस्यों की संख्या देखी जाए तो 2010 में यह 34 थी, जो 2015 में घटकर 28 हो गई, जो क्रमश: 14 व 11.5 फीसदी रहा।
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महिला वोटरों का टर्नआउट पुरुषों से अधिक
 
वाकई, ये आंकड़े चिंताजनक हैं। वह भी उस परिस्थिति में जब राज्य में महिला वोटरों का टर्न आउट पुरुषों की तुलना में अधिक है। 2010 में महिलाओं का वोटिंग प्रतिशत 54.49 था जबकि पुरुषों का 51.12 रहा। इसी तरह 2015 में 60 फीसदी से ज्यादा महिलाओं ने वोटिंग में भाग लिया जबकि पुरुषों का मतदान प्रतिशत सिर्फ 53 रहा। जबकि 2010 में मतदान का प्रतिशत 52.67 तथा 2015 में 56.66 था।
 
वोटिंग प्रतिशत में इतने अंतर पर समाजशास्त्र के व्याख्याता वीके सिंह कहते हैं कि कहीं-न-कहीं सरकारी योजनाओं से मिलने वाला लाभ इसका एक प्रमुख कारण है। नीतीश सरकार ने महिलाओं के हित में कई फैसले लिए हैं। शराबबंदी की भी इसमें अहम भागीदारी है। इससे सरकार व महिलाओं दोनों ने एक-दूसरे की ताकत को पहचाना। वहीं पुरुषों के बढ़ते पलायन से भी यह गैप ज्यादा हुआ है और पलायन की क्या स्थिति है, यह तो लॉकडाउन के दौरान प्रवासियों की वापसी से जाहिर है।
 
नीतीश सरकार की छात्राओं को साइकल-पोशाक देने की घोषणा तो अहम थी ही, 2015 में जब उन्होंने शराबबंदी को लागू करने का वादा किया तो महिलाओं ने उनकी झोली में जमकर वोट डाले। इसका ही नतीजा था कि नीतीश की अगुवाई वाले महागठबंधन को 2015 में 243 में 178 सीटें मिलीं।
 
समाजशास्त्री रमेश रोहतगी कहते हैं कि महिलाएं अब यह समझने लगी हैं कि उन्हें किसे वोट देना है और किसे नहीं। स्थानीय निकायों में मिले 50 प्रतिशत आरक्षण से राजनीति में उनकी भागीदारी बढ़ी है। इन निकायों में महिलाएं अच्छी-खासी संख्या में काबिज हैं। इसी आरक्षण ने उत्प्रेरक का काम करते हुए चुनाव लड़ने और जीतने की संख्या में खासा इजाफा किया है। स्थानीय निकाय महिलाओं के लिए राजनीति में ट्रेनिंग का काम कर रहे हैं। यही वजह है कि इस बार भी कई महिला मुखिया विधानसभा चुनाव लड़ रहीं हैं।
 
भोजपुर जिले के जगदीशपुर विधानसभा क्षेत्र से बतौर जदयू उम्मीदवार चुनाव लड़ रहीं दावन पंचायत की मुखिया सुषुमलता कुशवाहा कहती हैं कि मुखिया रहते मैंने बहुत कुछ सीखा है। अगर आप जमीनी स्तर पर काम कर चुके होते हैं तो आपको ऊपरी स्तर पर काम करने में काफी सहूलियत होती है। आपका विजन क्लीयर होता है। वहीं मधुबनी जिले की पीरोखर पंचायत की मुखिया मंदाकिनी चौधरी का कहना है कि मुखिया के चुनाव में जीत ने मुझे गरीबों-पिछड़ों के लिए और काम करने को प्रोत्साहित किया है। मैं प्रचार में विश्वास नहीं करती, मेरा काम बोलेगा।
 
आधी हिस्सेदारी की मांग हुई तेज
 
जाहिर है, महिलाएं सजग हो रही हैं। जागरूकता का आलम यह है कि 'शक्ति' नामक एक स्वयंसेवी संगठन के बैनर तले महिलाओं ने पंचायत चुनाव के बाद अब राजनीतिक दलों से विधानसभा चुनाव में 50 प्रतिशत हिस्सेदारी की मांग शुरू कर दी है। इनका कहना है कि जब 50 फीसदी महिला वोटर हैं तो 11 प्रतिशत महिला विधायक क्यों? इसी कड़ी में बिहार विधानसभा चुनाव के मद्देनजर बीते सितंबर माह में 'सेल्फी विद अस' कैंपेन के तहत 25 पार्टियों को आंकड़ों के साथ मांगपत्र भेजा गया। दावा है कि विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े करीब 35 लाख लोगों ने इस अभियान को अपना समर्थन दिया है। जानकार बताते हैं कि बिहार में बीते 68 साल में महज 277 महिलाएं ही विधायक बन पाई हैं। 90 प्रतिशत सीटों पर पुरुषों का कब्जा रहा है।
 
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स की एक रिपोर्ट के अनुसार 2006 से 2016 के बीच संपन्न लोकसभा, विधानसभा या विधान परिषद के चुनावों में कुल 8,163 प्रत्याशियों में केवल 610 यानी 7 फीसदी ही महिलाएं थीं। एक राजनीतिक दल के नेता नाम नहीं प्रकाशित करने की शर्त पर कहते हैं कि महिला उम्मीदवारों की जीत की संभावना एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। इसी वजह से पार्टियां इन्हें प्रत्याशी बनाने से हिचकती हैं। समान परिस्थितियों में भी महिलाओं के विजयी होने की संभावना पुरुषों के मुकाबले कम ही रहती है।
 
वहीं लोजपा की संगीता तिवारी कहती हैं कि चुनाव में महिलाओं का वोट तो सभी पार्टियों को चाहिए, लेकिन आधी आबादी को उनकी संख्या के अनुपात में टिकट देने में सभी कंजूसी करते हैं। राजनीति शास्त्र की रिटायर्ड प्रोफेसर डॉ. वंदना कहती हैं कि पितृसत्तात्मक समाज कहीं-न-कहीं इसमें बड़ी रुकावट है। पुरुष इतनी आसानी से अपने हाथों से नियंत्रण जाने देना पसंद नहीं करेंगे इसलिए वाजिब भागीदारी मिलने में समय तो लगेगा ही।
 
60 फीसदी युवा व महिला वोटर
 
1957 में अविभाजित बिहार में हुए चुनाव में 30 महिलाएं विधानसभा पहुंची थीं। 1962 में यह संख्या 25 और 1967 में 6 हो गई और फिर इसके बाद 2000 तक आंकड़ा 20 से कम ही रहा जबकि विभाजन के बाद 2005 के चुनाव में मात्र 3 महिलाएं ही जीत सकीं। फिर 2010 में 25 और 2015 में 28 महिलाएं विधायक बनने में सफल रहीं।
 
इस बार होने वाले विधानसभा चुनाव में मतदाताओं की कुल संख्या 7.29 करोड़ है जिनमें महिला वोटरों की संख्या 3.44 करोड़ तथा पुरुष वोटरों की संख्या 3.85 करोड़ है। इन वोटरों की कुल संख्या में युवाओं व महिलाओं की संख्या 60 प्रतिशत से ज्यादा है। जाहिर है, जिनकी ओर इनका रुझान होगा, उसका पलड़ा भारी हो जाएगा। यही वजह है कि इस बार भी हरेक राजनीतिक दल के घोषणा पत्र में युवाओं व महिलाओं के कुछ-न-कुछ खास है और सभी इन्हें लुभाने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं। किंतु टिकट के बंटवारे से यह स्पष्ट है कि जिन महिलाओं पर पार्टियों ने भरोसा किया है, वह जीत की संभावनाओं को देखते हुए ही।
 
इस बार भाजपा ने जमुई से पूर्व केंद्रीय मंत्री दिग्विजय सिंह की पुत्री व मशहूर निशानेबाज श्रेयसी सिंह, बेतिया से रेणुदेवी व नरकटियागंज से रश्मि वर्मा को टिकट दिया है वहीं राजद ने सीतामढ़ी के परिहार से सिंहवाहिनी पंचायत की चर्चित मुखिया रितु जायसवाल, सहरसा से पूर्व सांसद लवली आनंद जबकि जदयू ने गया के अतरी से मनोरमादेवी, खगड़िया से पूनम यादव व कांग्रेस ने मधेपुरा जिले के बिहारीगंज से दिग्गज नेता शरद यादव की पुत्री सुभाषिणी यादव को चुनाव मैदान में उतारा है। जाहिर है इन सबों की जीत की संभावना प्रबल है।
 
महिला वोटरों की संख्या और इनके वोट प्रतिशत की तुलना में इस बार भी महिलाएं आखिरकार ठगी ही गईं। सामाजिक कार्यकर्ता रुबीना बेगम कहती हैं कि महिला, दलित, मुस्लिम व पिछड़े सभी दलों के घोषणा पत्र का अहम हिस्सा होते हैं किंतु चुनाव के बाद सब इसे भूल जाते हैं। जब तक नीति-निर्धारकों में महिलाओं की संख्या नहीं बढ़ेगी तब तक स्थिति में सुधार की कल्पना करना बेमानी है। धीरे-धीरे ही सही, चुनावों में महिला प्रत्याशियों की संख्या बढ़ी है, जो एक सकारात्मक संकेत है।

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