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खतरे में दुनिया भर में आदिवासी समुदाय

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, शुक्रवार, 10 अगस्त 2018 (11:14 IST)
संसाधनों के लिए अंतरराष्ट्रीय भूख की वजह से आदिवासी समुदायों के इलाके नष्ट होते जा रहे हैं। विश्व आदिवासी दिवस के मौके पर कार्यकर्ताओं ने चेतावनी दी है कि दुनिया की मानवीय विविधता खोने का खतरा है।
 
 
दुनिया भर में रहने वाले 37 करोड़ आदिवासी और जनजाति समुदायों के सामने जंगलों का कटना और उनकी पारंपरिक जमीन की चोरी सबसे बड़ी चुनौती है। वे धरती पर जैव विवधता वाले 80 प्रतिशत इलाके के संरक्षक हैं लेकिन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लोभ, हथियारबंद विवाद और पर्यावरण संरक्षण संस्थानों की वजह से बहुत से समुदायों की आजीविका खतरे में हैं। ग्लोबल वॉर्मिंग का असर हालात को और खराब कर रहा है।
 
 
जनजातियां विभिन्न तरह की हैं। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार वे 90 देशों में फैली हैं, 5,000 अलग अलग संस्कृतियां और 4,000 विभिन्न भाषाएं। इस बहुलता के बावजूद या उसकी वजह से ही उन्होंने एक तरह के संघर्ष झेले हैं, चाहे वे ऑस्ट्रेलिया में रहते हों, जापान में या ब्राजील में। उनका जीवन दर कम है, गैर आदिवासी समुदायों की तुलना में स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच कम है। उनकी आबादी दुनिया की 5 प्रतिशत है लेकिन गरीबों में उनका हिस्सा 15 प्रतिशत है।
 
 
जमीन से वंचित
सर्वाइवल इंटरनेशनल की फियोना वॉटसन ने डॉयचे वेले को बताया कि विभिन्न समुदायों की सबसे बड़ी चुनौती ये हैं कि उनकी पुश्तैनी जमीन खोती जा रही है। "दुनिया भर में आदिवासी लोगों का पर्यावरण के साथ निकट रिश्ता है। उनकी आजीविका के लिए जमीन अहम है, लेकिन उनका प्रकृति से आध्यात्मिक रिश्ता भी है।"
 
 
औपनिवेशिक काल में जमीनों को हड़पने का जो सिलसिला शुरू हुआ वह आज भी जारी है। विवाद और हिंसा की वजह से भी उनकी जमीन हड़पी जा रही हैं और वे रिफ्यूजी बन रहे हैं। कई बार सरकारें आदिवासी इलाकों में वहां रहने वाले लोगों की परवाह किए बगैर बांध बनाने या सड़क बनाने का फैसला लेती हैं। वॉटसन कहती हैं, "आदिवासी समुदायों को अक्सर पिछड़ा माना जाता है और इसका इस्तेमाल सरकारें और बहुराष्ट्रीय कंपनियां विकास के नाम पर उनकी जमीन का अधिग्रहण करने के लिए करती हैं।"
 
 
ब्राजील की मिसाल
एक मिसाल दक्षिणी ब्राजील का गुआरानी समुदाय है जिन्हें पशुपालन और गन्ने की खेती के लिए उनकी जमीन से खदेड़ दिया गया है।वॉटसन बताती हैं कि इस समुदाय में आत्महत्या की दर दुनिया में सबसे ज्यादा है और उस इलाके की जैव विविधता पूरी तरह खत्म हो गई है। विडंबना ये है कि पर्यावरण संरक्षण संस्थाएं भी आदिवासी समुदायों से पूछे बिना उन इलाकों को संरक्षित इलाका बनवा रही हैं, जहां वे सदियों से रहते आए हैं।
 
 
आदिवासी अधिकारों पर एशिया में भी विवाद हो रहा है, जहां दुनिया की 70 प्रतिशत आदिवासी आबादी रहती है। आदिवासी मामलों के अंतरराष्ट्रीय कार्यदल के अनुसार मलेशिया का बजाऊ लाउट ग्रुप बंजारा समुदाय है जो आजीविका के लिए समुद्र पर निर्भर है। जहां वे मछली पकड़ रहे थे वह इलाका 2004 में तून सकारान मरीन पार्क बना दिया और 2009 से वहां मछली मारने पर पाबंदी है। ऑस्ट्रेलिया के वोलोनगोंग यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन के अनुसार इससे उनके पोषण और खाद्य सुरक्षा पर असर पड़ा है।
 
 
स्वनिर्णय का अधिकार
इसलिए वॉटसन कहती हैं कि आदिवासी समुदायों के लिए खुद फैसले लेने का अधिकार बहुत मायने रखता है। "ये फैसला करने का अधिकार कि वे कैसे जीना चाहते हैं, इसकी अक्सर उपेक्षा की जाती है और इससे गंभीर समस्याएं पैदा हो रही हैं।" अभी तक अंतरराष्ट्रीय तौर पर इस पर भी सहमति नहीं है कि आदिवासी की क्या व्याख्या है। इस शब्द का इस्तेमाल 2007 में संयुक्तराष्ट्र की घोषणा में किया गया और तब से दुनिया भर में आदिवासी समुदाय दिखने लगे हैं।
 
 
न्यूजीलैंड में माओरी समुदाय बहुत ही सक्रिय हो गया है। ऑकलैंड यूनिवर्सिटी के जॉन मैककाफरी के अनुसार माओरी भाषा के कोर्स पूरे देश में बहुत लोकप्रिय हो गए हैं। कनाडा में भी आदिवासियों के मामलों पर मीडिया में नियमित रिपोर्ट दी जाती है और वे राष्ट्रीय बहस का हिस्सा हैं। ये उदाहरण दिखाते हैं कि दुनिया भर में आदिवासी समुदायों के साथ गहन संबंध संभव हैं। सरकारों को आदिवासी समुदायों और जनजातियों के महत्व को स्वीकार करना होगा और उनके साथ बातचीत कर भविष्य का रास्ता तय करना होगा।
 
 
रिपोर्ट: अमांडा कूलसन ग्रासनर/एमजे
 

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