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लिव इन की ओर बढ़ता भारत

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, सोमवार, 9 दिसंबर 2013 (12:05 IST)
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भारत में लिव इन रिश्ते को सुप्रीम कोर्ट ने पाप या अपराध मानने से इंकार किया है। कोर्ट ने पुरुषों के साथ रह रही महिलाओं और उनके बच्चों को कानूनी संरक्षण देने का रास्ता निकाले जाने की पहल भी की है।

सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक, 'लिव इन रिलेशनशिप (सहजीवन) न अपराध है और न ही पाप।' शहरी युवाओं के एक वर्ग को यह खूब भा रहा है। आधुनिक जीवन शैली के मुरीद यूवाओं की पसंद बन रहे लिव-इन रिश्ते के लिए कोर्ट का निर्णय मील का पत्थर माना जा रहा है।

बढ़ रही है स्वीकार्यता : लिव इन को अपनी आजादी के रूप में देख रही युवा के बीच पिछले कुछ वर्षों से इस रिश्ते की लोकप्रियता और स्वीकार्यता बढ़ी है। खास तौर पर बीपीओ और सॉफ्टवेयर कंपनियों में काम करने वाले युवाओं के बीच यह रिश्ता तेजी से पांव पसार रहा है। मुंबई में एक सॉफ्टवेयर कम्पनी में काम कर रहे हितेश का कहना है कि वे खुद तो इस रिश्ते में कभी नहीं रहे पर उनके कई सहकर्मियों के बीच इस तरह का रिश्ता है।

एक कॉल सेंटर में काम कर रहे तुषार को लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद लिव इन रिश्ते की सामाजिक स्वीकार्यता बढ़ेगी। तुषार का यह भी कहना है कि इस रिश्ते की बढ़ती लोकप्रियता में सिर्फ प्यार की भूमिका ही नहीं बल्कि आर्थिक कारणों की भी भूमिका है।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत करते हुए मंगेश कहते है कि जब दो लड़के एक साथ रह सकते हैं और अपनी चीज़े साझा कर सकते हैं तो लड़कियों के साथ रहने में क्या बुराई है। इंजीनियरिंग की पढाई कर रहे मंगेश कहते हैं, "लिव इन को प्यार या विवाह के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए।" उनके मुताबिक यह रिश्ता आपसी सहमति के जरिये सेक्स एवं अन्य जरूरतों को पूरा करता है।

फिल्मों ने दिया बढ़ावा : समाज शास्त्रियों और शिक्षा शास्त्रियों का मानना है कि लिव इन की बढ़ रही स्वीकार्यता में हिंदी फिल्मों का विशेष योगदान है। प्रोफेसर अरुण कुमार कहते हैं कि फिल्में हमेशा से युवाओं को प्रभावित करती रही हैं। आजकल के युवा भी फिल्मों से बहुत प्रभावित हैं। इन फिल्मों में लिव इन रिलेशनशिप को महिमा मंडित किया जाता है।

उषा नायक लिव इन रिलेशन को सामाजिक और नैतिक रूप से गलत बताते हुए कहती हैं, "यह रिश्ता अंततः महिलाओं का शोषण करने वाला साबित होगा।" दो किशोर बेटियों की मां उषा नायक के अनुसार स्वतंत्रता की चाह में लड़कियां इसे शौक से स्वीकार कर लेती हैं लेकिन उन्हें यह नहीं मालूम कि यह रिश्ता सीधे-सीधे पुरुषों को उनका शोषण करने का अवसर प्रदान करता है।

ऋतू शर्मा का कहना है कि अदालत के फैसले के बाद भी लिव इन में रहने वाली लड़की को समाज स्वीकार नहीं करेगा। अगर उसका लिव इन पार्टनर उससे शादी नहीं करता तो नए जीवनसाथी ढूंढने में दिक्कत आ सकती है क्योंकि समाज के लिए यह रिश्ता अनैतिक ही है।

हार्डवेयर इंजीनियर प्रदीप पटेल अभी 24 साल के है और शादी के लिए मानसिक और आर्थिक रूप से तैयार हैं। उनका कहना है, "वे उस लड़की से कभी विवाह नहीं करेंगे जो पहले लिव इन रिलेशन में रह चुकी हो।" प्रदीप को लगता है कि इस तरह के रिश्ते न केवल गलत हैं बल्कि इससे विवाह जैसी संस्था को भी धक्का पहुंचेगा। ऋतू के अनुसार लिव इन रिलेशन में रह रही लड़कियां अपने पार्टनर के प्रति भले ईमानदार हों, पर पुरुष सिर्फ उनका इस्तेमाल ही करते हैं।

महानगर की संस्कृति : भारत में लिव इन के ज्यादातर मामले महानगरों में पाये जाते हैं। अरुण कुमार कहते हैं कि काम या पढ़ाई के लिए घर से दूर रह रहे युवाओं के बीच अक्सर इस तरह के रिश्ते बनते हैं। इसकी मुख्य वजह भावनात्मक सहयोग की जरूरत होती है। फ्लैट कल्चर होने और बढ़ती मंहगाई की वजह से ऐसे जोड़ों को बड़े शहरों में साथ रहने में कई फायदे होते हैं। वे आगे कहते हैं कि इस रिश्ते के टूटने पर भावनात्मक रूप से उबरना काफी मुश्किल है क्योंकि इसमें परिवार की भूमिका न के बराबर होती है।

देश में सबसे ज्यादा लिव-इन जोड़े बैंगलोर में रहते हैं। सॉफ्टवेयर हब के रूप में अपनी पहचान बना चुके इस शहर में देश के अलग-अलग जगहों से आकर नौकरी करने वाले युवक-युवतियों की संख्या काफी ज्यादा है। घरों से दूर रह रहे इन युवाओं के बीच प्यार का पनपना और फिर साथ रहना सामान्य बात है। वैसे बैंगलोर ही वह शहर है जहां लिव इन रिलेशन के नाम पर धोखे के सबसे ज्यादा मामले सामने आये हैं।

समाजशास्त्रियों का यह भी ख्याल है कि, लिव इन रिलेशन में रहने वाली महिला को सुप्रीम कोर्ट के फैसले से ज्यादा फायदा होगा क्योंकि इन रिश्तों का खामियाजा उन्हें और इस रिश्ते से उत्पन्न उनकी संतान को ही भुगतना पड़ता है। केवल मौज़ मस्ती के लिए लिव इन रिलेशन में रहने वाले पुरुषों के लिए सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला निश्चित तौर पर एक झटका है। भले ही लिव इन रिलेशन को लेकर समाज दो भागों में बंटा हो पर इससे प्रभावित महिलाओं और बच्चों को संरक्षण दिए जाने की आवश्यकता को सभी स्वीकार करते हैं।

रिपोर्ट :विश्वरत्न, मुंबई
संपादनः मानसी गोपालकृष्णन

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