अज्ञानता से भय, भय से भ्रांति, भ्रांति से भूल, भूल से गलत परिणाम और गलत परिणाम से असफलता और असफलता से दु:ख अर्थात अगर देखा जाए तो दु:ख का सबसे बड़ा कारण जो है, वो है अज्ञानता और इसको दूर करने तथा सही ज्ञान का मार्ग दिखने का काम एक ज्योतिष करता है। सही ज्ञान देने के लिए कई मार्ग हैं, जैसे- न्यूमरोलोजी (अंक-विज्ञान), सामुद्रिक शास्त्र (हस्त-रेखा) टैरो कार्ड, वास्तु और कुंडली।
कुंडली यानी जन्मपत्रिका से भविष्यवाणी करना सबसे पुरातन और सटीक विज्ञान माना जाता है। जातक की कुंडली उसकी जन्मतिथि, समय, स्थान के आधार पर बनाई जाती है। यद्यपि कई कारणों से जन्म समय में संशोधन की आवश्यकता हो जाती है। इसीलिए हर ज्ञानी ज्योतिष को यह मालूम होता है कि संशोधन कैसे किया जाता है।
भविष्यवाणी करने से पहले एक योग्य ज्योतिषी को जांच कर लेना चाहिए कि जातक की कुंडली सही है की नहीं। जांच करने से पहले जातक के जीवन और गोचर की मुख्य घटनाओं का मिलान कर लेना चाहिए। यदि मिलान सही हो तो कुंडली सही है और नहीं तो कुंडली में जन्म समय संशोधन की आवश्यकता है।
ज्योतिष में मान्य बारह राशियों के आधार पर जन्मकुंडली में बारह भावों की रचना की गई है। प्रत्येक भाव में मनुष्य जीवन की विविध अव्यवस्थाओं, विविध घटनाओं को दर्शाता है।
1. प्रथम भाव : यह लग्न भी कहलाता है। इस स्थान से व्यक्ति की शरीर यष्टि, वात-पित्त-कफ प्रकृति, त्वचा का रंग, यश-अपयश, पूर्वज, सुख-दुख, आत्मविश्वास, अहंकार, मानसिकता आदि को जाना जाता है।
2. द्वितीय भाव : इसे धन भाव भी कहते हैं। इससे व्यक्ति की आर्थिक स्थिति, परिवार का सुख, घर की स्थिति, दाईं आंख, वाणी, जीभ, खाना-पीना, प्रारंभिक शिक्षा, संपत्ति आदि के बारे में जाना जाता है।
3. तृतीय भाव : इसे पराक्रम का सहज भाव भी कहते हैं। इससे जातक के बल, छोटे भाई-बहन, नौकर-चाकर, पराक्रम, धैर्य, कंठ-फेफड़े, श्रवण स्थान, कंधे-हाथ आदि का विचार किया जाता है।
4. चतुर्थ स्थान : इसे मातृ स्थान भी कहते हैं। इससे मातृसुख, गृह सौख्य, वाहन सौख्य, बाग-बगीचा, जमीन-जायदाद, मित्र, छाती-पेट के रोग, मानसिक स्थिति आदि का विचार किया जाता है।
5. पंचम भाव : इसे सुत भाव भी कहते हैं। इससे संतति, बच्चों से मिलने वाला सुख, विद्या बुद्धि, उच्च शिक्षा, विनय-देशभक्ति, पाचन शक्ति, कला, रहस्य शास्त्रों की रुचि, अचानक धन-लाभ, प्रेम संबंधों में यश, नौकरी परिवर्तन आदि का विचार किया जाता है।
6. छठा भाव : इसे शत्रु या रोग स्थान भी कहते हैं। इससे जातक के शत्रु, रोग, भय, तनाव, कलह, मुकदमे, मामा-मौसी का सुख, नौकर-चाकर, जननांगों के रोग आदि का विचार किया जाता है।
7. सातवां भाव : विवाह सौख्य, शैय्या सुख, जीवनसाथी का स्वभाव, व्यापार, पार्टनरशिप, दूर के प्रवास योग, कोर्ट कचहरी प्रकरण में यश-अपयश आदि का ज्ञान इस भाव से होता है। इसे विवाह स्थान कहते हैं।
8. आठवां भाव : इस भाव को मृत्यु स्थान कहते हैं। इससे आयु निर्धारण, दु:ख, आर्थिक स्थिति, मानसिक क्लेश, जननांगों के विकार, अचानक आने वाले संकटों का पता चलता है।
9. नवां भाव : इसे भाग्य स्थान कहते हैं। यह भाव आध्यात्मिक प्रगति, भाग्योदय, बुद्धिमत्ता, गुरु, परदेश गमन, ग्रंथपुस्तक लेखन, तीर्थ यात्रा, भाई की पत्नी, दूसरा विवाह आदि के बारे में बताता है।
10. दसवां भाव : इसे कर्म स्थान कहते हैं। इससे पद-प्रतिष्ठा, बॉस, सामाजिक सम्मान, कार्य क्षमता, पितृ सुख, नौकरी व्यवसाय, शासन से लाभ, घुटनों का दर्द, सासु मां आदि के बारे में पता चलता है।
11. ग्यारहवां भाव : इसे लाभ भाव कहते हैं। इससे मित्र, बहू-जंवाई, भेंट-उपहार, लाभ, आय के तरीके, पिंडली के बारे में जाना जाता है।
12. बारहवां भाव : इसे व्यय स्थान भी कहते हैं। इससे कर्ज, नुकसान, परदेश गमन, संन्यास, अनैतिक आचरण, व्यसन, गुप्त शत्रु, शैय्या सुख, आत्महत्या, जेल यात्रा, मुकदमेबाजी का विचार किया जाता है।
किसी घटना के फलित होने या घटित होने के लिए हमें घटना के फलित होने का एक ही संगत घर नहीं देखना चाहिए अपितु प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभाव डालने वाले सभी घरों का अध्ययन भी करना चाहिए। किसी घटना की भविष्यवाणी करते समय अन्य घरों के प्रभाव भी विचारणीय हैं।