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अपेक्षाएं ही दुख का कारण हैं

जीवन के रंगमंच से

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विभा नरगुन्दे
ND
संसार में कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं होगा, जिसे कभी न कभी, किसी न किसी से कोई अपेक्षा नहीं रही होगी। मानव जीवन में सभी को अपेक्षाएं रहती हैं, लेकिन अपेक्षा का बदला उपेक्षा किसी को न मिले। ऐसा कदाचित ही होता है। जब व्यक्ति की अपेक्षाएं पूर्ण हो जाती हैं तो वह आनंदित हो जाता है, लेकिन जब उसकी अपेक्षाएं भंग होती हैं अथवा पूरी नहीं होती है तो वह अंदर से टूट जाता है

उसे आघात लगता है, वह पीड़ित हो जाता है। यह जरूरी नहीं कि व्यक्ति की सारी अपेक्षाएं पूर्ण हों ही। साथ ही मानव के लिए यह भी संभव नहीं है कि अपेक्षाएं रखे ही न। अपेक्षाओं के बूते पर ही तो वह आगे बढ़ता है। अपेक्षाओं के अभाव में जीवन व्यर्थ है। अपेक्षाएं मन का मोह है। चाहे व्यक्ति की अपेक्षाएं पूरी न हों, परन्तु वह अपेक्षा रखता जरूर है। अपेक्षा भंग होने की पीड़ा सहना उसकी नियति है। माता-पिता बच्चों से, बच्चे माता-पिता से, पति, पत्नी से, पत्नी, पति से, गुरु, शिष्य से, शिष्य, गुरु से, दोस्त को दोस्त से अपेक्षाएं रहती ही हैं।

भगवान से बिना अपेक्षाओं के जीवन सहज नहीं रह पाता है। अगर अपेक्षाएं पूर्ण नहीं होती हैं तो अपेक्षाओं के भंग होने का दर्द भी मानव को सहना ही होगा। उसके पास इतनी शक्ति का होना जरूरी है कि वह अपेक्षा भंग की पीड़ा सह सके। इसी सहनशक्ति के आधार पर उसकी सच्ची ताकत और उसके मानव जीवन की सार्थकता साबित होती है।

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