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नगीना और अस्मिता

जीवन के रंगमंच से...

हमें फॉलो करें नगीना और अस्मिता

शैफाली शर्मा

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नगीना और अस्मिता उस घर की सबसे कम उम्र की सदस्य, शायद 4 या 5 साल की, चेहरे पर सहमी हुई-सी मुस्कान, आँखों में खोज का समन्दर। इतनी कम उम्र में इतने विशाल शब्द देना उनकी मासूमियत के साथ मजाक करना हो सकता है, लेकिन जब तक उन दोनों की उम्र और बुद्धि के बीच फासला ज्यादा है तब तक तो ठीक है, लेकिन जिस दिन उम्र और बुद्धि के बीच फासला कम हो जाएगा उस दिन क्या? जिस दिन अपने अस्तित्व और पहचान के लिए उनके जहन में सवाल उठने लगेंगे उस दिन...?

मैं बात कर रही हूँ उस घर की जहाँ पर एक साथ तीस बच्चे रहते हैं, कुछ शारीरिक रूप से अपंग, कुछ मानसिक रूप से। ऐसे एक नहीं, हर शहर में कई घर मिल जाएँगे, उन्हें अनाथ आश्रम कहना मुझे अच्छा नहीं लगता। अनाथ तो वो होते हैं, जिनके माता-पिता नहीं, कोई सगा नहीं और इनमें से कइयों के तो पिता भी हैं, लेकिन नशे में धुत किसी सड़क के किनारे पड़े होंगे या लाचार माँ लोगों के घर के बर्तन माँजकर अपने बच्चों को पाल रही होगी।

अस्मिता सबसे छोटी है और चार बच्चों में उसे पालना उस अकेली माँ के लिए मुश्किल है, सो इस घर में आ गई। नगीना के माता-पिता दोनों नहीं रहे। रिश्तेदार यहाँ छोड़ गए। मैं अकसर नहीं जाती थी वहाँ क्योंकि उनको देखने के बाद मुझसे अपने ही आँसू नहीं रुकते, तो मैं उनके चेहरे पर मुस्कुराहट कैसे लाती?
  भरा हुआ मन और आँखों में पानी लेकर लौट आई, उनसे ज्यादा मेरी आँखों में लाचारी थी। मैं कितना दे सकती हूँ, क्या दे सकती हूँ। जिन्दा रहने के लिए जितना जरूरी होता है, वह तो कैसे भी जुटा लिया जाता है, लेकिन जान क्या केवल शरीर में होती है?      


एक घर, जैसा भी हो उनका अपना है, सोने-उठने, खाने-पीने के कुछ नियम हैं, स्कूल जाते हैं, पढ़ाई भी करते हैं, बस कोई एक हाथ ऐसे बच्चों के सिर पर होता है और कई हाथ मदद के लिए। ऐसे में हमारी ओर से एक समूह (साथिया) गया कुछ जरूरत की वस्तुओं के साथ जितना जिससे बन पड़ा। उन सब वस्तुओं में सबसे महत्वपूर्ण था समय। जिसने जितना समय दिया, उन्हें प्यार दिया, अपनापन दिया...जितना जिससे बन पड़ा सब दिया, और शायद साथ में एक एहसास भी कि यह समाज का वह हिस्सा है, जो आम लोगों से अलग है... जिनको आम बच्चों से ज्यादा प्यार और सहानुभूति की जरूरत है।

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भरा हुआ मन और आँखों में पानी लेकर लौट आई, उनसे ज्यादा मेरी आँखों में लाचारी थी। मैं कितना दे सकती हूँ, क्या दे सकती हूँ। जिन्दा रहने के लिए जितना जरूरी होता है, वह तो कैसे भी जुटा लिया जाता है, लेकिन जान क्या केवल शरीर में होती है? उस मन का क्या, उन आँखों का क्या जिसमें खोज का समन्दर है, जो अभी शांत है, लेकिन उम्र के साथ जिसमें उफान आने की आशंका ज्यादा है

उन्हें एक ऐसा हाथ भी चाहिए जो रोटी, कपड़ा और मकान के साथ भावनात्मक आधार भी दे सके, जो समय-समय पर उनके अस्तित्व और पहचान के लिए उठते सवालों का जवाब दे सके, जो उन्हें आश्रित नहीं आश्वासित बना सके...कि सिर्फ शरीर को ही नहीं मन को भी पूरी जीवटता से जिन्दा रखना है।

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