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पैसे पे क्यों मरती है.....

जीवन के रंगमंच से

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निर्मला भुराड़िया
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कभी-कभी कुछ मजेदार से संयोग घटित होते हैं। टीवी पर एक क्लिपिंग चल रही थी, जिसमें नोटों का भारी-भरकम हार पहनते हुए उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती दिखाई दीं। ठीक उसी वक्त कॉलोनी में किसी के घर के किसी निजी समारोह के तहत गूँजते लाउडस्पीकर पर गाने की आवाज आई, 'पैसा-पैसा करती है, पैसे पे क्यों मरती है।' खुलासा करने की जरूरत नहीं है कि गाने की लिंक कहाँ जाकर जुड़ गई।

उस क्षण यदि टीवी की आवाज बंद कर दी जाती तो उक्त गाना मानो मायावतीजी की क्लिपिंग के बैकग्राउंड में बजता! खैर इस हल्के-फुल्के संकेत को छोड़ें और थोड़े महीन विश्लेषण पर आएँ तो पैसे के फूहड़ प्रदर्शन की यह लिंक हमारे समाज में पैठी हुई प्रवृत्तियों से जुड़ती है। यह आडम्बर और फूहड़पन बहुत गहरे व्याप्त हैं। मायावती जैसे लोग तो सिर्फ वह फोड़ा है जो दिखाई देता है।

स्कूल के दिनों का एक चलन याद आता है। राखी के दूसरे दिन सामान्य मध्यमवर्ग के लड़के फुंदे वाली राखी या मोली बाँधकर आते थे, अगर कोई रईस लड़का अलग दिखाई देता था तो इसलिए कि उसकी राखी के धागे में सौ का कड़क नोट बिंधा होता था। इस नोट को दिखाने के लिए वह लड़का शर्ट की बाँह आधी मोड़कर, शान से हाथ को थोड़ा ऊपर उठाए घूमता था।

इसी तरह नोटों का हार भी किसी एक व्यक्ति के चमचों की ईजाद नहीं है नोटों की वर्षा करना, नोटों के हार पहनना, दहेज के गहने सजाकर प्रदर्शित करना, सिक्कों में तुलना, नोट का सेहरा बनाना जैसी चीजें प्रदर्शन के लिए होती रहती हैं, किसी एक नेता ने तो पूरी बेशर्मी से इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाया है। तमाम तरह का लाव-लश्कर, गाजा-बाजा, आडम्बर, दिखावा, फूहड़पन की हद तक भारतीय समाज में पैठा है।

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जब उद्योगपति लक्ष्मीनिवास मित्तल की बेटी की शादी हुई तो उसकी तड़क-भड़क का महिमामंडन करने में भारतीय मीडिया भी पगला गया था। उद्योगपति के गले में लटका नोटों का अदृश्य हार किसी को दिखाई नहीं दिया। जब किसी फिल्मी हस्ती की शादी होती है तब भी किसने कपड़े डिजाइन किए, उनकी कीमत क्या पड़ी, कौन-सा उपक्रम कितना महँगा था। कौन-से कार्यक्रम में योरप से कितनी महँगी नर्तकियाँ आई थीं, कौन-से महँगे डिजाइन ने दुल्हन का लिबास कितना महँगा बनाया। इन सब बातों का शानदार महिमामंडन चलता है।

हमारे यहाँ संत भी भगवा पहनकर सोने की कुर्सी पर बैठते हैं। कपड़ा न पहनने वाले साधु रोजमर्रा उपयोग की वस्तुओं की ससमारोह भव्य नीलामी करते हैं। भगवानों को महँगी केसर का स्नान करवाया जाता है। भक्तों में इस बात की होड़ रहती है कि किसने मूर्ति को कितने किलो आम का रस चढ़ाया।

अब तो नेताओं के लिए ब्लैक कमांडों का घेरा भी नोटों के हार की तरह ही शान का मामला है। एक-दूसरे से होड़ करते, आसमान चीरते नेताओं के कटआउट, स्वयं की तारीफों के पुल बाँधते, मुस्कुराकर हाथ जोड़ते नेताओं के बिल बोर्ड, साथ में खींसे निपोरते उनके चमचों की मुंडियाँ यह सब कुछ एक ही किस्म की फूहड़ता के अलग-अलग तरीके हैं।

इस सब फूहड़ता का सही जवाब यही हो सकता है कि आमजन इसे भव्यता का नाम न दे, फूहड़ता ही माने। आमजन भौंडे प्रदर्शन पर विस्मित, चकित, प्रभावित न हों बल्कि इसे हास्यास्पद मानें। यदि आमजन ने ऐसा किया तो एक मिनट में राजा जोकर बन जाएगा। जिनके पास है वह इस किस्म की फूहड़ता, जिनके पास नहीं है उनको भौंचक करने के लिए ही तो करते हैं। जब आमजन बात की नस समझ जाएगा और आडम्बर पर भौंचक ही नहीं होगा तो वे किसके लिए ये सब करेंगे?

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