sawan somwar

Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia

तमतमाती गर्मी की कूल-कूल यादें

जीवन के रंगमंच से

Advertiesment
हमें फॉलो करें जीवन के रंगमंच से
आदित्य भट्टाचार्य
ND
दिन तमतमाते और रातें बेचैन... ये किसी शायर की रूमानी लाइनें नहीं बल्कि गर्मी की कविता है। सूरज के तीखे तेवर जब घरों की दीवारों तक को झुरझुरी लाने लगते हैं तब अचानक ग्लोबल वॉर्मिंग पर डिस्कशन करते-करते आप खुद पर ही अनजाने में कहर भरी लानतें भेजने लगते हैं। फिर उठते हैं और बगीचे में सजाए ढेर सारे गमलों और पौधों की हरियाली पर नजर दौड़ाकर संतु‍ष्टि का अनुभव करने लगते हैं। अचानक घर में शोर उठता है -लाइट गई... और आपके मुँह से निकलता है-'अरे! फिर से।' गर्मी की ये तस्वीर आपको कुछ देखी-देखी सी लग रही होगी। जी हाँ... आखिर आप अपनी ही डायरेक्ट की हुई फिल्म जो देख रहे हैं।

चलिए थोड़ा फ्लैशबैक में चलते हैं। तब जब आम के पेड़ की घनी छाँह में सोते राहगीरों को किसी फाइव स्टार का सा सुख मिला करता था... जब घर के घुले हुए सत्तू की ठंडक किसी शानदार आइस्क्रीम का सा मजा देती थी... जब पसीने में लथपथ बच्चों के झुंड दिनभर नदी में छलाँग लगाकर छुट्टियाँ बिताया करते थे... जब नानी के किस्से और दादी की कहानियों के लिए इंतज़ार करते बच्चे सोचते थे...उफ... ये कमबख्त दिन कितना लंबा है...जब पेड़ पर बँधे जूट या टायर के झूले पर भी परमानंद की अनुभूति होती थी... जब पाँच पैसे की बरफ की कुल्फी भी खुद के रईस होने का प्रमाण लगती थी।

webdunia
ND
धीरे-धीरे सुविधाएँ बढ़ीं, विकास हुआ और हम आजकल स्वीमिंग पूल की सदस्यता रखते हैं... हम वो आइस्क्रीम खा सकते हैं जो टीवी पर शाहरुख खाता है...वो पावडर लगा सकते हैं जो हीरोइनों को बर्फ सी ठंडक पहुँचाता है... छुट्टियों के दिन चाहें तो हम किसी हिल स्टेशन पर गुजार सकते हैं...। लेकिन जिस तरह इतिहास खुद को दोहराता है, ठीक वैसे ही हम वापस लौटते हैं फिर से पेड़ों की छाँव में, छत पर छिड़काव कर ठंडक लाने, बर्फ का गोला खाने की ओर।

अचानक आपको याद आता है, अभी पिछले ही दिनों आपके पड़ोसी ने किसी नए फल का ज्यूस यह कहते हुए पिलाया था कि यह न्यूज़ीलैंड से आया है। पहले तो गर्मियों में फल के नाम पर ज्यादातर आम, तरबूज, खरबूज या शकर बाटी ही हुआ करती थी। जिसको खाना घर में एक बड़ा अनुष्ठान बन जाता था। आजकल बाजार में आम हर मौसम में मिलते हैं। इसके अलावा गर्मियों में लाल, हरे, पीले कई अनजान से फल भी आपको दुकानों में सजे दिखाई दे जाते हैं और पूछने पर दुकानदार ठसके से जवाब देता है-'फारेन के हैं।' आप उन 'फारेन' के फलों को खाकर संतुष्ट होना चाहते हैं लेकिन न जाने क्यों आम के रस के बगैर संतु‍ष्टि मिलती नहीं।

हमारे बड़े-बुजुर्गों ने मौसम के हिसाब से खानपान के कुछ नियम बनाए थे जिनमें से कई हम आज भी लागू करते हैं। मसलन रात के खाने में हल्का-फुल्का जैसे खिचड़ी या दलिया आदि खाना। रात का खाना जल्दी खा लेना और उसके बाद घूमने निकल पड़ना या बतियाना ताकि भोजन ठीक से पच सके। आज भी आइस्क्रीम, कुल्फी या फ्रूट चाट खाने के बहाने आपको शहरों में भी लोग परिवार सहित देर रात तक सड़कों पर घूमते मिल जाएँगे।

webdunia
ND
गर्मी यानी की छुट्टियाँ... स्कूल छूटने के इतने सारे सालों के बाद भी गर्मी के मौसम की अनुभूति नहीं बदली...। यह मौसम वैसा ही उल्लासभरा लगता है, जैसा बचपन में कभी लगा करता था। वसंत में झड़ते पत्तों और चलती बयारों के बीच जिस तरह से परीक्षा का तनाव होता था आज भी उस मौसम में वह महसूस होता है, वैसे ही हर गर्मी में बचपन एक बार फिर से हरिया जाता है। वे खुशनुमा दिन... छुट्टी और पूरा मजा... दिनभर बस धूप के ढलने की फरियाद होती।

शाम जैसे ही होती आसपास किलकारी गूँजने लगती। दिनभर घर में बंद रहने के बाद बच्चे सड़कों पर निकल पड़ते और शुरू हो जाती धमाचौकड़ी। अब फिर आया है... वह मौसम, लेकिन बहुत कुछ बदल गया है। मौसम विशेषज्ञ कहते हैं कि पिछले कुछ सालों में धरती का तापमान बढ़ा है, इसलिए गर्मी ज्यादा लगती है। धरती का तापमान क्यों बढ़ा है, इसके कारण भी वे बताते हैं। महसूस तो हम भी करते हैं कि गर्मी पहले की तुलना में ज्यादा पड़ने लगी है। हमें भी लगता है कि वे सही कहते हैं। तभी तो गर्मियाँ इतनी मुश्किल लगने लगी हैं। शीतल करने वाली तमाम यांत्रिक चीजों के बाद भी यह मौसम बहुत मुश्किल होने लगा है। पहले तो बिना इन सुविधाओं के भी गर्मी बड़ी मजेदार हुआ करती थी और आज... !

गर्मियों में पानी की किल्लत का हिसाब शहरों और गाँवों में अलग-अलग होता था, तो इसके निदान भी जाहिर है अलग-अलग ही होंगे...। गाँवों, कस्बों में नहाने और कपड़े धोने के लिए लोग जलस्रोतों पर जाया करते थे। घरों में बस पीने और छोटी-मोटी जरूरत भर का पानी जमा किया जाता था, नतीजा पानी की खपत कम होती थी और बर्बादी भी...। आजकल घरों में जितने बाथरूम हैं, उन सबमें पानी निर्बाध पहुँच रहा है, नतीजा पानी की खपत बढ़ी है और बर्बादी भी (हाँ, इसमें बढ़ती जनसंख्या भी एक कारक है)। गर्मी के दिनों में आती पानी की किल्लत के समाधान के लिए घरों में ही कुएँ, बोरवेल होते हैं, फिर भी पानी खुट जाए तो प्रशासन है ही... टैंकर चलते हैं, अब आपमें उससे पानी ले पाने का दम-खम हो तो...।

गर्मी के तपन भरे दिनों में सर्दी के बने मटकों के ठंडे पानी से आकंठ शीतलता उतरती थी। जेठ में तो मटकों को जूट के बारदानों से ढँक दिया जाता था, और दिनभर उसे पानी डालकर भिगोया जाता था, ताकि लगातार मिल रही ठंडक से पानी भी ठंडा होता रहे। अब ये सारी कवायद फ्रिज में रखी जाने वाली प्लास्टिक की पानी की बोतलों को भरने के लिए की जाती है। फिर घर के बड़े बुजुर्ग यह कहते सुनाई देते हैं कि 'भई, हमें तो मटके का ही पानी दो, ये फ्रिज का पानी प्यास नहीं बुझाता है।'

webdunia
ND
सबसे ज्यादा मजेदार समय गर्मियों में शाम से लेकर सुबह तक का होता था, जब सूरज ढल जाता और थोड़ी ठंडक होने लगती, तो घरों की छतें, आँगन, मोहल्ले के चबूतरे और बाजार सभी आबाद होने लगते थे, बाजार तो आज भी इस समय गुलजार होते हैं...। छतों और आँगनों को बुहारकर उस पर पानी का छिड़काव किया जाता और सूखने के बाद रात के लिए या तो खटिया लगती या फिर नीचे ही बिस्तर लग जाते। घर को ठंडा रखने के लिए भी तरह-तरह के उपाय किए जाते... पक्के घरों की छत को चूने से पोत दिया जाता। दरवाजों, खिड़कियों पर खस के टाट लगाए जाते और थोड़ी-थोड़ी देर में उन्हें भिगोया जाता... ठंडी, खुश्बूदार हवा आती रहती...। छुट्टियों की शाम को पीली, उदास रोशनी फेंकते बल्बों के साए में कभी कैरम तो कभी ताश के पत्ते और कुछ नहीं तो अंत्याक्षरी से रात में तब्दील कर दिया करते थे।

फिलहाल, वक्त बदला है तो कुछ परिवर्तन भी हुए हैं। कुछ अच्छे भी हैं..! हालाँकि गर्म‍ी भगाने वाले सारे उपाय मशीनी है। लेकिन बिजली बंद होते ही‍ हम फिर लौटते हैं, हाथ पंखे और मटकों की तरफ। है ना मजेदार बात!

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi