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सहजता

जीवन के रंगमंच से...

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शैफाली शर्मा

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अपेक्षाएँ, शिकायतें, प्रेम जताना, रूठ जाना, मनाना ये सब रिश्तों की जरूरतें हैं, लेकिन एक वस्तु और है, जिसके बिना रिश्तों के सफर में अड़चनें बढ़ जाती हैं, और वह है सहजता।

हम कई बार भावनाओं में इतने डूब जाते हैं कि समाज के साथ तालमेल नहीं बैठा पाते। समाज के नियम जलते हुए अंगारे से लगने लगते हैं और प्रेम आग का दरिया। अकेला मन, किसी साथी की जुदाई, तन्हाई, यादें और मौन, इतना असहज कर देते हैं कि हम भीड़ में होने के बावजूद खुद को भीड़ से अलग महसूस करते हैं। इस असहजता को बेचैनी का नाम देकर भरी धूप में भटकना अच्छा लगने लगता है।

और ऐसा प्यार या दोस्ती में ही नहीं, तब भी होता है, जब जीवन में परिस्थितियाँ विपरीत हो जाती हैं। तब मन साक्षी बन जाने के बजाय मुनीम बन जाता है, जो उस समय पिछले सारे दु:खों का हिसाब-किताब सामने रख देता है। और वो भी रिश्वतखोर मुनीम, जिसे जब तक बहला देने वाली कोई चीज न दी जाए, वो फायदे कम और नुकसान ज्यादा दिखाता है

आप इसे चाहे असहजता कह लें या बेचैनी, मन की व्यथा एक जैसी होती है। निरर्थक प्रयासों के असफल परिणाम के समान। बिखरी हुई इच्छाओं को समेटने और व्याकुलता को स्थिरता तक लाने में मन थक जाता है, रात चाँद से घने बादलों को हटाने में निकल जाती है। रात को बिस्तर पर बिखरे सवालों को पूरी तरह समेट नहीं पाते और सुबह अपनी किरणों की असहजता का कारण पूछती चली आती है।
  हम कई बार भावनाओं में इतने डूब जाते हैं कि समाज के साथ तालमेल नहीं बैठा पाते। समाज के नियम जलते हुए अंगारे से लगने लगते हैं और प्रेम आग का दरिया। अकेला मन, किसी साथी की जुदाई, तन्हाई, यादें और मौन, इतना असहज कर देते हैं।      


ऐसे में मन के पास कोई जवाब नहीं होता, सिर्फ साथ होता है स्थिर मस्तिष्क का, जिस पर हमारा ध्यान नहीं जाता। हम मन की अस्थिरता में ही उलझे रहते हैं।

इस बार एक नया अनुभव प्राप्त कीजिए। हर बार अस्थिर मन का साथ देने के बजाय मस्तिष्क का साथ दीजिए। मस्तिष्क को मन से जीत जाने दीजिए। और यह मुमकिन है तब, जब हम यह सोच लें कि जिस कारण से मन विचलित है उसके अस्तित्व को आप उसी तरह स्वीकार कर लें जैसे बीमार होने पर आप बीमारी को स्वीकार कर लेते हैं, यह सोचकर कि शरीर है बीमारी तो लगी रहेगी और कुछ दिनों में दूर भी हो जाएगी। बजाय इसके कि हम उस बीमार शरीर के साथ मन को भी बीमार कर लें और डिप्रेशन में चले जाएँ।

बीमार मन की एक ही दवाई है वो है सहजता जो सिर्फ एक ही वैद्य के पास है और वो है आपका मस्तिष्क। तो जब मन बीमार पड़ जाए तो किसी और के पास जाने की जरूरत नहीं, खुद के पास लौट आइए।

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