हर देश की अपनी नीति और कायदे होते हैं, जो उस देश के शासक वर्ग द्वारा बनाए-बढ़ाए जाते हैं। प्रशासन तंत्र के विकास के साथ-साथ इनमें बदलाव आता रहा है। शासकों के बदलने से, उनकी सोच बदलने से नीतियों में बदलाव असामान्य न होकर बेहद सहज है।
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शासन के इसी सहज भाव को सहजता से लिया जाना चाहिए, मगर अक्सर शासन के इस रवैये से जनता असहज हो जाया करती है, फिर चाहे वह हमारा देश हो या विदेश। अभी हाल में हमारे देश में यह निर्णय लिया गया कि एफडीआई को खुली छूट दी जाए।
बारह क्षेत्रों की पहचान कर उनमें सीधे निवेश की छूट दी गई या कहीं-कहीं पचास प्रतिशत से उपर परमिशन देकर कार्य करने की छूट प्रदान कर दी गई। अब सहज भाव से लिए गए इस निर्णय पर जनता और मीडिया असहज हो गया है।
विपक्षी पार्टियों का तो काम ही सरकार के खिलाफ लामबंदी है। रचनात्मक विपक्ष का चलन हमारे यहां नहीं के बराबर है, क्योंकि जब पक्ष ही रचनात्मक माहौल नहीं दे रहा हो तो विपक्ष से इसकी उम्मीद व्यर्थ है।
सत्तापक्ष कुर्सी के कारण एक हैं वरना उसमें कई खांचे हैं, संतरे-सी सत्रह फांकें हैं। वह तो भला हो कि उनके ऊपर कड़क निगरानी की दो जोड़ी आंखें हैं जिसके कारण वे एक दिखाई देते हैं और एक इकाई में सिमटे-सिकुड़े हैं। वरना एकता के कई टुकड़े हैं।
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सरकार बड़ी समझदार होती है। अक्सर लोगों को यह भ्रम होता है कि सरकार ने फलां-फलां फैसला नासमझदारी से या बेवकूफीभरा ले लिया है। दरअसल, यह तात्कालिक सोच होती है, जो तात्कालिक प्रतिक्रिया से उपजता है।
सरकार धीरता-गंभीरता से हर बात सोचती है। उसके कई-कई दिमाग, कई-कई चेहरे, कई-कई पहलू देखते हैं, सोचते हैं, समझते हैं तब जाकर फैसले लिए जाते हैं। फिर लोगों का क्या? उन्हें तो केवल फैसले पर प्रतिक्रिया भर देना है। न तो उन्हें फैसला लेना है, न फैसले पर अमल करवाना है। केवल अकल थोड़े लगाना है।
सरकार को पहले फैसला लेकर सामूहिक स्वीकृति के साथ उस पर अमल करवाना है और उसके लिए अमल की महत्ता है, अकल की नहीं। अकल नहीं लगाई तो चल सकता है, मगर अमल नहीं हुआ तो सब व्यर्थ; रीति-नीति व्यर्थ, व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न; पूरा शासन-प्रशासन कठघरे में खड़ा हो जाएगा।
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सरकार की नीति गलत हो सकती है, पर नीयत कभी गलत नहीं होती। यही कारण है कि हम नीतिगत मुद्दों पर लगातार मार खाने के बाद, हर मोर्चे पर मात खाने के बाद भी स्थिर हैं, हमारी सरकार स्थिर है; यह तो जनता है- नासमझ है, गंभीर नहीं है; हर बात पर अस्थिर है, चंचल है, मचल जाती है, सरकार के लिए मुश्किलें पैदा कर देती हैं, कठघरे में घेरने की कोशिश करती है, मीडिया इनका साथ देता है, सारे विज्ञापन सरकार से बटोरता है फिर उसी से कठोरता से पेश आता है।
जनता को चाहिए सरकार का साथ दे, उसके कदम से कदम मिलाए, ताल से ताल मिलाए न कि गाहे-बगाहे सरकार के खिलाफ ताल ठोंके।
सरकार ने फिलहाल एफडीआई के लिए जो निर्णय लिया है तो जनता को तकलीफ है कि सारे ऐसे क्षेत्र खोल दिए गए, जहां विदेशी कंपनियां लगातार फायदा उठा ले जाएंगी। अब जनता को कौन समझाए कि जो कंपनियां व्यापार करने आएंगी, तो वो फायदा उठाने नहीं तो क्या घाटा उठाने आएंगी।
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अरे घाटा खाना ही उनका उद्देश्य होता तो यूरोप में क्या कमी थी। खूब उधार बांट-बांटकर वे पूरी उधार हो चुकी हैं। तब तो हमें उधार करने यहां आ रही हैं फिर इनसे हमारी भोली सरकार उद्धार की उम्मीद लगाए बैठी है। यही तो सरकारी सोच है, जो असरकारी नहीं होती।
जनता है कि गलतफहमी में जीती है। सोचती है कि विदेशी कंपनियां हमारे यहां आए और सुलभ शौचालय लगाए। हमारी गंदगी साफ करे, हमें शिक्षा दे, भिक्षा दे, पर्यावरण सहेजे, जंगल लगाए, सड़क बनाए, कुपोषितों को पोषण दे, हमारे पुरातात्विक स्थलों, स्मारकों को सहेजे यानी हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक ढांचे और ढांचागत सुधार में निवेश करे, सामरिक और आर्थिक विकास में सहयोगी न बनें।
इधर यूरोपियन देशों की सरकारें बाजारवाद के मारे पिटी-पिटाई बैठी हैं। उनके कल-कारखाने कल की बात हो रहे हैं, ऐसे में उनकी अर्थव्यवस्था पटरी पर लाने के उद्देश्य से वे एशिया की ओर देखती हैं तो भारत से बेहतर देश उन्हें मिलता नहीं है।
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इधर हमारी सरकार की कार जब सरपट दौड़ नहीं पाती तो वह उड़नखटोले में तब्दील हो जाती है। हवा में चलो, ट्रैफिक का झंझट कम, जाम में फंसने की दिक्कत नहीं, सबको उड़ते दिखते रहो। हवाई नीतियां बनाओ और उसी तारतम्य में अंतिम अस्त्र एफडीआई है।
बाहरी कंपनियां आएंगी तो एकबारगी बाजार चमक उठेंगे, गतिविधियां दिखेंगी, लंबे-चौड़े बजट और उनके अनुमान आंकड़े मीडिया में समाचार-पत्रों में छाए रहेंगे। वे उपभोक्ता को नए खेल से रिझाएंगे, बहलाएंगे, फंसाएंगे, फिसलाएंगे।
जिन्हें हमारे सामने कटोरा लेकर आना था, वे हमें कटोरा थमाकर चले जाएंगे। जो याचक रहते वो फायदा दे दो इंडिया (एफडीआई) की योजना में पाचक बनकर हमें पचा जाएंगे। हमने न्योत दिया है हमारे बाजार आपकी शर्तों पर, आपके लिए खोल दिए हैं। आइए, मुनाफा कमाइए- ले जाइए।
'अतिथि देवो भव:' की परंपरा में हमारा अतिथि हमारे लिए देवता के समान है इसीलिए आप आइए देवता, कृपा कीजिए, हम पलक-पावड़े बिछाएंगे। आगत का स्वागत करेंगे। मालूम होते हुए कि वे हमारी क्या गत करेंगे। हम फिर-फिर स्वागत करेंगे।
कुछ लोग इसे 'चक दे इंडिया' की तर्ज पर 'फट् दे इंडिया' (एफडीआई) भी कहते हैं या इसी अनुरूप और भी अर्थ निकालते हैं; निकालें उनके दिमाग हैं। उनका अपना सोच और शब्द चयन है। आप बस इतना समझ लें कि विकास विनाश लाता है या कहें कि विनाश नव विकास के लिए आता है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं।
हम एफडीआई के द्वारा विकास के रास्ते पर चल पड़े हैं। देशवासियों बधाई। कुछ जगह पचास प्रतिशत से अधिक निवेश पर विदेशी कंपनियों को परमिशन लेनी होगी और हमारे सरकारी तंत्र से परमिशन कैसे मिलती है, यह सब जानते हैं। यहां पर मंत्रियों, अफसरों के लिए, बिचौलियों के लिए फॉरेन इंट्रेस्ट या इंटरएक्ट (एफडीआई) शुरू हो जाएगा। यह हुआ ना कायदे का कायदा और सबका फायदा।
इकाई दहाई पे मत करो लड़ाई देश में आ रही विदेशी कमाई।
बधाई हो... बधाई...
देशी-विदेशी की अंखियां लड़ाई चूहे-मेंढकी की शादी-सगाई।