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टाइटेनिक का अंत : राजनीतिक व्यंग्य

आदित्य

हमें फॉलो करें टाइटेनिक का अंत : राजनीतिक व्यंग्य
टाइटेनिक फिल्म देखी है ना, वो याद है जब बत्तियां गुल होती है। कुछ लोग निकल चुके होते हैं और कुछ इस बात के इंतजार में है कि मौत या मदद में से जिसे भी आना हो जल्दी आ जाए। द अनसिंकेबल शिप, वह जहाज जो डूबेगा नहीं। विशाल इतना कि इतना बड़ा जहाज पहले कभी बना नहीं था, जिसने यात्रा की शुरूआत में ही इतिहास रच दिया। भव्य, विशाल और ऐतिहासिक।

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जिन्होंने इसे देखा कहा, जहाज हो तो ऐसा, इसे कहते हैं जहाज, और इसे कहते हैं जहाज का चलना।

फिर यूं हुआ कि उन लोगों को जिन्होंने इस पर और इसके खेवनहार पर भरोसा करते हुए खुद को निश्चिंत कर लिया था, उनके सामने अचानक तथ्य आने लगे कि इतना भरोसा ठीक नहीं था। न उतने लाइफ जैकेट रखे गए जितने रखे जाने थे और न ऐसे लोग ही नौकरी पर रखे गए जो अपनी जिम्मेदारी को जिम्मेदारी की तरह लेते हों।

बड़े-बड़े दावों और वादों के सहारे उसे उस यात्रा पर ले आया गया था जिसमें जहाज और खेवनहार बेहद संजीदा होने थे लेकिन हकीकत यह थी कि पूरा ही स्टाफ अंटागाफिल(नशे में चूर) था और हर किसी को इस बात की चिंता थी कि उसकी रम का स्टॉक कम तो नहीं है और उसके खाने के लिए आज की डिश क्या होंगी। बाहर नजर रखने वाले भी इसी अंदाज में थे कि इस न डूबने वाले जहाज के लिए क्या सुरक्षा की चिंता करनी है, मस्त रहो और जितना ज्यादा हो मजे कर लो। क्या पता इस यात्रा के बाद जहाज का कैप्टन दूसरे दौर में नौकरी पर रखे न रखे।

कैप्टन खुद एक सुविधाजनक कमरे में बंद। न यात्रियों से मिलने की कोई गुंजाइश और न ही अपने साथी स्टाफ से कोई संवाद की संभावना। कैप्टन जब उस सुविधाजनक कमरे में नींद से जागे तभी कोई फरमान जारी कर दे और वही पत्थर की लकीर बन जाए। जहाज तक कुछ छोटी-बड़ी लहरें टकराए तो चिंता की कोई बात नहीं थी, तूफानी हवाएं भी आती-जाती रहीं लेकिन न किसी ने चिंता की और न किसी ने संमदर का नजारा ही लेना उचित समझा। हर नॉटिकल मील के साथ जहाज के स्टाफ की यह निश्चिंतता बढ़ती गई और जो यात्री या तो बेखबर थे या कुछ कर सकने की स्थिति से दूर थे क्योंकि बीच समंदर में लाइफ जैकेट्स की चिंता करना या स्टाफ को नींद से जगाना इनके बस में कैसे होता? लिहाजा उन्होंने इसे यात्रा के खतरे में शामिल तय पाया और इस खतरे के साथ आगे बढ़ते जाने को अपनी नियती मान लिया।

काली रात, बीच समंदर, नीचे सतह की थाह नहीं और आसपास कोई किनारा नहीं। शराब में डूबा लापरवाह कैप्टन, मस्त और खुद में ही व्यस्त स्टाफ, न डूबने वाले विशालकाय जहाज की खतरनाक गति और जहाज में बैठे वे यात्री जो भरोसे के सहारे लंबी यात्रा पर निकल आए थे।

अचानक परिदृश्य बदल गया। वह जहाज जिसे अनसिंकेबल कहा गया था वह कुछ ही समय में समंदर के आगोश में समा जाने वाला था। लापरवाही की अति के बाद अब स्टाफ अपनी जान बचाने की जद्दोजहद में लगा है लेकिन बचना नामुमकिन। वो िन्हें आने वाले खतरे की सूचना देनी थी, अब खुद जान को खतरे में महसूस कर रहे हैं। वो जिन्होंने कभी नीचे की उद्दाम लहरों की चिंता नहीं की, अब वह हर लहर के मिजाज को पढ़ने की कोशिश में थे।

कोशिश, कि जितना भी हो टकराते हुए ग्लेशियर से बच जाएं लेकिन अब इन लहरों से लड़ना असंभव सा हो चुका था। क्योंकि जब इन्होंने राह बनाई तब इस अकड़फूं जहाज ने चिंता नहीं की, दंभ था न डूबने वाले तमगे का। दंभ था भव्यता का, विशालता और ऐतिहासिक होने का। अब जब यह सब खत्म हो गया है तब याद आ रही है सारी लापरवाहियां, सारी खुदगर्जियां, और सारे स्वार्थ... और याद आ रहा है वह शेर जिसमें शायर कहता है--

परदा जब गिरने के करीब आता है,
तब कहीं जाकर कुछ खेल समझ में आता है

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