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बकरा महँगाई का

व्यंग्य

हमें फॉलो करें बकरा महँगाई का
प्रदीप मिश्र
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लोगों ने बताया जो सामने खड़ी थी वह महँगाई थी। असल में मैं उसे पहचान नहीं पाया था। वह चीज जिसे बुजुर्ग याददाश्त कहते हैं, मेरे हिस्से में जरा कम ही पड़ी है। अब देखिए न मेरे करमदंड, मैं महँगाई को नहीं पहचान पाया।

ऐसा नहीं कि मैं कोई धन्ना-अफसर था कि महँगाई रहे न रहे मुझ कोई फर्क नहीं और मैंने जब से सरकारी नौकरी पाई तब से महँगाई की शक्ल तक नहीं देखी और इसी वजह से आज सामने खड़ी महँगाई मुझे पहचान नहीं पड़ रही है। अजी सिम्पल-सा मास्टर हूँ। महँगाई का अंतरंग साथी। शुरू से अंत तक जो सामने वाले के रंग में रंगा रहे वह अंतरंग कहलाता है, सो मैं भी महँगाई का अंतरंग हूँ।

हरेक मास्टर, महीने की शुरुआत से अंत तक या कहिए जीवन के प्रारंभ से उसके अंत तक, महँगाई के रंग में रंगा रहता है। फिर मास्टर होने के बावजूद मैं भूला कैसे महँगाई को? असल में महँगाई नाम का दर्द अब इतना गाढ़ा हो गया है कि इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वो है या नहीं। अब तो आदत हो चली है इस दर्द की। वह हम में अंदर तक समा गई है और मैं अहमक इसी वजह से अपनी इतनी नजदीकी को पहचान नहीं पाया।

बहरहाल, पहचान में आते ही मैंने महँगाई को गले से लगा लिया। घर आए दुश्मन को भी गले लगाने की परंपरा का निर्वाह जो करना था। फिर महँगाई की पहुँच तो मेरे जीवन में रसोईघर से लेकर मेरे वस्त्रालय, मूत्रालय, कार्यालय, पुस्तकालय, औषधालय, ...नामालूम कहाँ-कहाँ तक है। ऐसे नजदीकी को लिपटाने में कोई हर्ज नहीं था। मेरी बाँहों से छूटने के बाद बोली, 'कैसे हैं गुरुदेव आप?' मैं महँगाई के इस संबोधन से चौंका। वह मुझे गुरुदेव कह रही थी। मैंने कहा, 'देखो मैं किसी भी स्थिति में तुम्हारा गुरु नहीं हूँ और न ही तुम्हें मेरे गुरुत्व की जरूरत है। तुम्हारे गुरु तो अफसर और मंत्री हैं। बड़े सेठ और धनाढ्य हैं। मैं निर्धन तुम्हारा गुरु कैसे हो सकता हूँ?'

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-'फिर मैं आपको भैया से संबोधित करती हूँ। ...हाँ तो कैसे हैं भैया आप?' महँगाई बोली।

-'देखो मैं तुम्हारा भाई नहीं बन सकता...।' मैंने असहमति जाहिर की।

-'क्यों?'

-'भाई को बहन की हिफाजत करनी पड़ती है। और मैं तुम्हारी हिफाजत करूँ तो सारी दुनिया को कौन- सा मुँह दिखाऊँ? तुम्हारा भाई तो वही हो सकता है, जो तुम्हारी हिफाजत करे। तो हे देवी! सरकार और उसके संरक्षकों के अलावा तुम्हारा भाई और कोई नहीं हो सकता?'

-'फिर मैं आपको अपना पितातुल्य 'अंकल' बना लेती हूँ?'

-'अरे बावली तू मुझे मरवाने पर क्यों उतारू है? सारा जहाँ मेरे पीछे पड़ जाएगा। मारो साले को यही है महँगाई का चाचा... यही है... यही है... ना बिलकुल ना...', मैंने झल्लाकर इंकार किया।

-'फिर आप मेरे जेठ या देवर बन जाइए। उम्रदराज हैं इसलिए जेठ ही ठीक रहेगा....।'

-'पर जेठ या देवर की रिश्तेदारी तब बनती है, जब यह डिसाइड हो कि पति कौन है? ये सारे रिश्ते तो पति से निकलते हैं...।'

-'तो क्या आप मेरे पति बनना चाहते हैं?' महँगाई ने मुझे संदेह से देखा।

-'देखो मैं जिसका ऑन-रिकॉर्ड पति हूँ, उसी का ठीक से पति नहीं बन पाया। वही मुझे पति मानने में आनाकानी करती है। वो तो उसके पास कोई 'अल्टरनेटिव' नहीं है, वरना वह कब की उस 'अल्टरनेटिव' की हो चुकी होती। ....तो हे सुंदरी! मुझ सरीखा लीचड़ और निकम्मा इंसान तुझ सुंदरी से विवाह के सपने भी देखे तो उसे जीते-जी मास्टर की नौकरी मिले और मरने के बाद वह नर्क भोगे...।' मैं गिड़गिड़ाया।

-'फिर मैं आपसे कौन सा-रिश्ता कायम करूँ?' महँगाई बोली।

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मैंने कहा, 'हे देवी! मैं एक शिक्षक हूँ, पूरी तरह से तेरे अधीन। तू तो मुझे अपना बकरा बना ले...।'

-'बकरा...?' महँगाई अचरज से बोली।

-'हाँ बकरा। मुझे बकरा बनाने से फायदा यह होगा कि तू जब चाहेगी मुझे हलाल कर सकेगी। सारा जमाना मुझे महँगाई के बकरे के नाम से जानेगा। मेरी माँ चाहे जितनी खैर मनाए, मैं तेरे हाथों 'ईजीली' हलाल हो जाऊँगा। और यही रिश्ता ही उचित और विधिसम्मत भी रहेगा। मेरा-तेरा....।' मेरे सुझाव को महँगाई ने स्वीकार किया और उसने मुझे अपने बकरे के रूप में अपना लिया।

अब वह मुझे रोज ही हलाल कर रही है।

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