सर्पीली व्यवस्था के विषैले नाग
दिल्ली के भीतर ही एक दिल्ली और है। यहाँ सामान्यजन नहीं, वरन असामान्य व्यवस्थाएँ रहती हैं। ‘अंग्रेजों के जमाने के’ वास्तुशिल्पी ल्यूटन द्वारा रचित नॉर्थ ब्लॉक, साउथ ब्लॉक, संसद भवन इत्यादि आज खंडहर हो चुकी भारतीयता को मुँह चिढ़ाते हुए सीना ताने खड़े हैं। सत्य तो यह है कि अंग्रेजी व्यवस्थाओं के प्रतीक ये भव्य प्रासाद स्वयं नहीं खड़े हुए, अपितु खड़े किए गए हैं। इनकी आधारशिलाओं को मजबूती प्रदान करती हैं दीमक की बाँबियां और विषैले सर्पों के बिल। ये दीमक और सर्प विषैली व्यवस्थाओं को तो सुदृढ़ बनाए रखती हैं, पर देश को खोखला कर देती हैं। विडंबना देखिए, जिन सिद्धांतों, नीतियों एवं व्यवस्थाओं के विरुद्ध सेनानियों ने विप्लव किया, स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात हमने उन्हीं व्यवस्थाओं को निर्लज्जता से अंगीकृत किया है और उसके दुष्परिणाम सभी के समक्ष हैं।
व्यवस्थाओं के इन स्मारकों के भीतर प्रवेश करने के अपने कुछ नियम हैं। सर्वप्रथम, आपके शरीर के पृष्ठ भाग में गले से लेकर गुदा तक स्थित मेरूदंड की समस्त 33 हड्डियां, जो कभी आपके मस्तक को झुकने नहीं देती हैं, को एक-एक कर के गलाना होगा ताकि आप रेंगने वाली सरीसृप प्रजाति में रूपांतरित हो जाएँ। फिर रेंगकर इन जटिल व्यवस्थाओं के जाल में सुलभता से प्रवेश कर सकते हैं।
दूसरा, अपनी चमड़ी को मोटा करें ताकि कोई भी घटना आपको प्रभावित न कर सके। और यही नहीं, आप में अवसरों को देखते हुए केंचुली बदलने की भी क्षमता होनी चाहिए। जिन सर्पों में औरों को निगलने की क्षमता होती है, उनके फन और भी बड़े होते हैं। ये विषैले सर्प और दीमक समाज के लिए अभिशप्त भी हैं और दुर्भाग्य से, स्वीकृत भी।
यहाँ देखिए, इस व्यवस्था के पाताल लोक में नाना प्रकार की प्रजाति के तुच्छ जीव-जंतु हैं। टोपीधारी नेता, तिलकधारी बाबा, कुछ पुलिस की वर्दी में, कुछ जज और वकील के चोगे में, कुछ अधिकारियों की सूरत में तो कुछ पत्रकारों की सीरत में। किसी के मुँह में चांदी की चम्मच है और किसी के फन पर मणि। हर एक अपनी स्वार्थी व्यवस्था पर कुंडली मारकर बैठा है। ये आपस में एक-दूसरे को निगल भी जाते हैं और समय आने पर एक-दूसरे की पीठ भी सहलाते हैं। दूरदृष्टिदोष से पीड़ित ये सभी स्वार्थी अपने ही द्वारा रचाए तंत्र में फल-फूल रहे हैं।
आगे पढ़ेंगे? संभालकर पढ़िएगा श्रीमन्, तंज कस रहा हूं, चुभेगा। हम व्यवस्था को सर्प की उपाधि देकर तंत्र में व्याप्त समस्त समस्याओं और कुरीतियों का ठीकरा जिनके सर फोड़ रहे हैं, वे आखिर हैं कौन? और आए कहां से हैं? किसी दिव्य, पौराणिक दैत्य लोक से? नहीं, वे इसी समाज की उत्पत्ति हैं। हमारे बीच से ही। हमने ही इन साँपों को जन्म दिया और समय-समय पर दूध भी पिलाया है। अधिकारों की चेष्टा रखते हुए जब हम कर्तव्यों को कूड़ा समझकर फेंक देते हैं, तभी एक नए सपोले का जन्म होता है। आपकी अकर्मण्यता ही इनके विष के स्रोतों को जन्म देती है।
सच बताना, अगर स्वयं कर चोरी करते हैं, तो किस मुंह से भ्रष्टाचार का विरोध करेंगे। अगर कचरा डालकर नदियों को नाला बनाएँगे तो किस नगर निगम अधिकारी से प्रश्न पूछेंगे? बेतरतीब गाड़ी चलाकर, सड़क पर जाम लगाएँगे तो क्या यातायात अधिकारी को तलब कर पाएँगे? जब आप व्यवस्था को स्वयं के स्वार्थ के लिए तोड़ेंगे तो तंत्र बिखर जाएगा। जब आप कहते हैं कि अधिकारी, मीडिया सब खरीद लिया गया है तो वे कौन हैं, जो बिक गए? उन्होंने क्यों अपने मेरूदंड को गलाकर गरदनें झुका दीं?
बदलना स्वयं को ही पड़ेगा। कोई और आकर आपकी व्यवस्था नहीं सुधारेगा। पर हाँ, अगर तंत्र नहीं सुधरा तो कई ईस्ट इंडिया कंपनी इस देश पर आज भी नजरें लगाए बैठी हैं। अपने भीतर इस छुपे हुए साँपों का फन कुचलने का समय आ गया है, विश्वास रखिए व्यवस्था और तंत्र स्वयं ही ठीक हो जाएगा।
(लेखक मैक्स सुपर स्पेशियलिटी हॉस्पिटल, साकेत, नई दिल्ली में श्वास रोग विभाग में वरिष्ठ विशेषज्ञ हैं)
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