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व्यंग्य रचना : प्रौढ़ शिक्षा केंद्र और राजनीति के अखाड़े

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अमित शर्मा

स्कूल और कालेजों को शिक्षा का मंदिर कहा जाता है। मंदिर इस देश की राजनीति को बहुत भाते हैं, फिर चाहे वो इबादत के हों या शिक्षा के। शिक्षा के मंदिरो में राजनैतिक दल जितनी आसानी से घुस जाते हैं उतनी आसानी से तो अवैध बांग्लादेशी भी भारत में नहीं घुस पाते हैं। नेताओं को हर जगह देरी से पहुंचने की आदत होती है और इसका अभ्यास वो शिक्षाकाल से ही करते हैं।




डॉक्टर-इंजीनियर बनने वाले छात्र 22-23 की उम्र में ही डिग्री पाकर कॉलेज से निकल जाते हैं, लेकिन नेता बनने का ख्वाब पाले हुए छात्र कालेज में सरकारी सब्सिडी का उपयोग (सत्यानाश) करते हुए कई पंचवर्षीय योजनाओं के सफल क्रियान्वयन तथा उम्र के कई बसंत का सफलतापूर्वक अंत करने के बाद ही कालेज छोड़कर राजनीतिक परिदृश्य में पहुंचते हैं।
 
देश में कई "शिक्षा मंदिर" सरकारी मदद रूपी प्रसाद से "प्रौढ़ शिक्षा केंद्र" का  काम कर रहे हैं। क्योंकि जिस उम्र के विद्यार्थी इन संस्थानों में पढ़ रहे हैं उस उम्र में एक "सामान्य" इंसान अपने बच्चों को पढ़ाता हैं। जिन लोगों को देश का करदाता होना चाहिए था वो कॉलेजों के भोजनालय में अनाज के दुश्मन बने हुए हैं और "पताका-बीड़ी" पीते हुए क्रांति की ध्वजा पताका लहरा रहे हैं। भूमि अधिग्रहण कानून पर घिरी सरकारों को इन "प्रौढ़ विद्यार्थियों" को धन्यवाद देना चाहिए क्योंकि इनके कॉलेज में रहने से सरकारों को इनके लिए प्रौढ़ शिक्षा केंद्र या वृद्धआश्रम बनाने के लिए अलग भूमि आवंटित नहीं करनी पड़ रही हैं।
 
इनमे से ज्यादातर छात्र वर्षों तक पीएचडी करते हुए दिखते हैं, भले ही ये समाज के भले के लिए कोई खोज करें या न करें, लेकिन टैक्सपेयर्स के पैसों पर बोझ जरूर बने रहते हैं। इनकी किताबों के पेज से लेकर फेसबुक पेज तक सब "स्पॉन्सर्ड" होते हैं। वैसे ये स्वभाव से स्वाभिमानी होते हैं। कभी किसी का उधार नहीं रखते सिवाए कॉलेज की कैंटीन वाले को छोड़कर। कॉलेज छोड़कर समाज पर ये जो "उपकार" करते हैं, उसे राजनीति में आकर किए गए "अपकार" से "सेटऑफ" कर लेते हैं।  
 
ये विद्यार्थी अपने हाथो में मेंहदी लगाने की उम्र में कॉलेज में आते हैं और बालो में मेंहदी लगाने की उम्र तक बने रहते हैं। वैसे इन विद्यार्थियों की वजह से देश और समाज तो "सफर" करता ही है, परंतु जब ये खुद कहीं "सफर" करते हैं तो ये तय नहीं कर पाते हैं की इन्हें किराए में छूट, छात्र के रूप में लेनी है या फिर सीनियर सि‍टीजन के रूप में। कुछ छात्र तो इतने प्राचीन हो जाते हैं, कि उनके घर वालों को किसी भी शुभ अवसर पर बड़ों का आशीर्वाद लेने के लिए कॉलेज आना पड़ता हैं। इन छात्रों को भले ही कभी डिग्री मिले या ना मिले लेकिन पुलिस की "थर्ड डिग्री" बहुत बार मिल चुकी होती हैं। ये नौकरी मांगने की उम्र में एक आजाद देश में आजादी मांगते रहते है।
 
जब ऐसे प्रौढ़ शिक्षा केंद्र राजनीति का अखाड़ा बन जाते हैं, तो आंतकवादी की फांसी भी शहादत बन जाती है और राष्ट्रविरोधी नारे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता। ऐसा नहीं है कि ये प्रौढ़ शिक्षा केंद्र केवल सरकार से मदद लेते ही हैं, ये सरकारी कार्यक्रमों को बढ़ावा देने में मदद भी करते हैं। इनकी वजह से ही "मेक इन इंडि‍या" प्रोजेक्ट अपने शुरुवाती चरण में ही सफल होता दिख रहा है। पहले हम "सीमापार" से राष्ट्रद्रोह आयात करते थे, लेकिन अब तड़ीपार लोग इसे देश के अंदर ही निर्मित करने लगे हैं। राष्ट्रद्रोह के लिए अब हमें अपने पड़ोसियों का मुंह नहीं ताकना पड़ता। इस मामले में देश आत्मनिर्भरता की तरफ कदम बढ़ा चुका है। "स्किल इंडि‍या" के तहत इन केंद्रों के छात्रों ने बाहर से आने वाले आतंकवादियों को कड़ा कम्पि‍टीशन दिया है।
 
सीमा पर शहीद होने वाले देशभक्त जवानों के शरीर को तिरंगे से ढंका जाता है,  लेकिन देश में रहकर देश के खिलाफ ही नारे लगाने वालों के द्रोह को "फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन" से ढंका जा रहा है, जो भले ही दिखती नहीं हो लेकिन आदमी की औकात से भी ज्यादा फैला के उपयोग में लाई जा सकती हैं। मतलब हम चीज को ढंक कर छुपा सकते हैं, सिवाए गरीबी और भुखमरी के ।
 
हम "वसुधैव-कुटुंबकम' की अवधारणा को मानने वाले हैं इसलिए देश के टुकड़े-टुकड़े करने के नारे हमें विचलित नहीं करते। क्योंकि हमारे कितने भी टुकड़े क्यों ना हो जाए, हर टुकड़ा रहेगा तो उसी "अखंड भारत" का अंश। हम नारेबाजी से प्रभावित होने वाले लोग नहीं हैं, इसलिए "भारत की बर्बादी" के नारे लगाने वालों पर हंस कर हम सोचते हैं कि जब देश के नेता ये काम अच्छे से कर रहे हैं तो किसी यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स को इसमें पड़ने की क्या जरूरत है। 
 
हमारा मानना है की नारों से देश के "वारे-न्यारे" नहीं होते हैं और ना ही बंटवारे होते हैं। हम दुनिया को संदेश देना चाहते हैं कि हम "आउट ऑफ द बॉक्स" सोच वाले हैं। क्योंकि "अपना देश जिंदाबाद वाले नारे तो सभी लगाते हैं "शत्रु पडोसी जिंदाबाद" के नारे लगाने का दम केवल हम ही दिखा सकते हैं। हमने विश्व  को शून्य दिया था और अंत में हम इसी में विलीन हो जाएंगे। 

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