हिंदी साहित्य में व्यंग्य को लेकर बहुत ज्यादा प्रयोग देखने को नहीं मिलते है और जो अभी तक हुए हैं, उनका भी सही से मूल्याकन नहीं हो पाया है। लेकिन फिर भी व्यंग्यकारों ने से एक अनोखा प्रयोग किया - व्यंग्य की जुगलबंदी।
इससे पहले इस प्रकार की जुगलबंदी ईश्वर शर्मा और लतीफ घोघी के द्वारा की जा चुकी थी। यह जुगलबंदी व्यंग्य के क्षेत्र में एक अनूठा प्रयोग था। लतीफ घोंघी और ईश्वर शर्मा ने व्यंग्य के नियमित स्तंभ के रूप में एक ही विषय पर व्यंग्य लिखे। उनको अमृत संदेश, रायपुर और अमर उजाला बरेली-आगरा अखबारों ने प्रकाशित किया। बाद में 1987 में सत्साहित्य प्रकाशन, दिल्ली ने इस जुगलबंदी को छापा।
इसबार व्यंग्य की जुगलबंदी के तहत चार लेखकों अनूप शुक्ल, निर्मल गुप्ता, रवि रतलामी और एम.एम.चन्द्रा ने एक साथ जुगलबंदी की। इस जुगलबंदी को एक साथ आप के सामने प्रस्तुत कर रहे हैं, ताकि इस प्रयोग के बारे में एक सही मूल्यांकन हो सके।
पहली जुगलबंदी - अनूप शुक्ल : मोबाइल
आज की दुनिया मोबाइलमय है। समाज सेवा के नाम पर सरकारें बनाने के काम से लेकर अपराध का धंधा करने वाले माफिया लोग मोबाइल पर इस कदर आश्रित हैं,कि इसके बिना उनके धंधे चौपट हो जाएं।
बिना मोबाइल का आदमी खोजना, आज के समय में कायदे की बात करने वाले किसी जनप्रतिनिधि को खोजने सरीखा काम है। जितनी तेजी से मोबाइल की जनसंख्या बढ़ी है उतनी तेजी से इन्सान के बीच के दूरी के अलावा और कुछ नहीं बढ़ा होगा। आज के समय में आदमी बिना कपड़े के भले दिख जाए, लेकिन बिना मोबाइल के नहीं दिखता। गरज यह, कि बिना आदमी के दुनिया का काम भले चल जाए, लेकिन बिना मोबाइल के आदमी का चलना मुश्किल है।
मोबाइल ने लोगों के बीच की दूरियां कम की हैं। झकरकटी बस अड्डे के पास जाम में फंसा आदमी, लंदन में ऊंघती सहेली से बतिया सकता है। भन्नानापुरवा के किचन में दाल छौंकती महिला अपने फेसबुक मित्र को कुकर की सीटी से निकली भाप की फोटो भेज सकती है। गरज यह कि दुनिया में घूमता-फिरता आदमी बड़े आराम से दुनिया को मुट्ठी में लिए घूम सकता है।
जितनी दूरियां कम की हैं, बढ़ाई भी उससे कम नहीं हैं इस औजार ने। आमने-सामने बैठे लोग अगर अपने-अपने मोबाइल में डूबे नहीं दिखते, तो अंदेशा होता है कि कहीं वे किसी और ग्रह के प्राणी तो नहीं। एक ही कमरे में बैठे लोगों के बीच अगर संवाद कायम नहीं है, तो इसका मतलब यही समझा जा सकता है कि उस कमरे में मोबाइल नेटवर्क गड़बड़ है।
मोबाइल ने बिना शर्मिंदगी के झूठ बोलना सुगम बनाया है। नाई की दुकान पर दाढ़ी बनवाता आदमी अपने को दफ्तर में बता सकता है। बगल के कमरे में बैठा आदमी अपने को सैकड़ों मील दूर होने की बात कहकर मुलाकात से बच सकता है। घंटी बजने पर फोन उठाकर बात करने की बजाए, तीन दिन बाद कह सकता है –" अभी तेरा मिस्डकाल देखा। फोन साइलेंट पर था। देख नहीं पाया।"
समय के साथ आदमी की औकात का पैमाना हो गया है मोबाइल। फोर्ड कार वाले आदमी को मारुति कार वाले पर रोब मारने के लिए, उसको बहाने से सड़क पर लाना पड़ता था। मोबाइल ने रोब मारने का काम आसान कर दिया है। आदमी अपनी जेब से एप्पल का नया आईफोन निकालकर मेज पर धरकर वहीं रुतबा काबिल कर सकता है, जो रुतबा गुंडे लोग बातचीत के पहले अपना कट्टा निकालकर मेज पर धरकर गालिब करते थे।
मोबाइल और इंसान समय के साथ इतना एकात्म हो गए हैं, कि एक के बिना दूसरे की कल्पना मुश्किल हो गई है। किसी आदमी को खोजना हो तो उसका फोन खोजना चाहिए। इंसान अपने फोन के एकाध मीटर इधर-उधर ही पाया जाता है।
मोबाइल के आने से दुनिया में बहुत बदलाव आए हैं। कभी अपने जलवे से मोबाइल की दुनिया का डॉन कहलावे वाले नोकिया के हाल, आज मार्गदर्शक मंडल सरीखे बस आदर देने लायक रह गए हैं। किलो के भाव मिलने वाले मोबाइलों से लेकर एक किले तक की कीमत वाले मोबाइल हैं आज बाजार में।
तकनीक की साजिश से खरीदते ही पुराना हो जाता है मोबाइल। सामने की जेब से अलमारी के कोने तक पहुंचने की यात्रा जितनी तेजी से पूरी करता है उतनी तेजी से बस नेता लोग अपना बयान भी नहीं बदल पाते।
मोबाइल का एक फायदा यह भी है कि इसके चलते देश की तमाम समस्याओं से देश के युवाओं का ध्यान हटा रहता है। वे मोबाइल में मुंडी घुसाए अपना समय बिताते रहते हैं। मोबाइल न हो तो वे अपनी मुंडी घुसाने के लिए किसी और उचित कारण के अभाव में बेकाबू हो सकते हैं।
मोबाइल कभी बातचीत के काम आते हैं। आजकल मोबाइल का उपयोग इतने कामों में होने लगा है कि बातचीत का समय ही नहीं मिलता। फोटो, चैटिंग, के अलावा लोग मारपीट के लिए अद्धे-गुम्मे की जगह अपने पुराने मोबाइलों पर ज्यादा भरोसा करने लगे हैं। टाइगर वुड्स की प्रेमिका ने वुड्स की बेवफाई की खबर पाने पर अपने मोबाइल का हथियार के रूप में प्रयोग करके इसकी शुरुआत की थी। ऐसा फेंक कर मारा था मोबाइल कि टाइगर वुड्स का दांत टूट गया था। भारत-पाक सीमा पर भी देश के पुराने मोबाइल इकट्ठे करके फेंककर मारे जा सकते हैं। अपना कूड़ा भी उधर चला जाएगा और जलवा भी कि हिदुस्तान इतना काबिल मुल्क है कि मारपीट तक में मोबाइल प्रयोग करता है।
किसी भी देशभक्त कथावाचक की दिली तमन्ना की तरह बस यही बताना बचा है मेरे लिये कि दुनिया में यह तकनीक भले ही कुछ सालों पहले आई हो लेकिन अपने भारतवर्ष में महाभारतकाल के लोगों को मोबाइल तकनीक की जानकारी थी। महाभारत की मारकाट के बाद पांडव जब स्वर्ग की तरफ गए थे, तो साथ में अपना कुत्ता भी ले गए थे। वास्तव में वह कुत्ता पांडवों का वोडाफोन मोबाइल था। पांच भाइयों की साझे की पत्नी की तरह उनके पास साझे का मोबाइल था। जब देवदूत युधिष्ठर को अकेले स्वर्ग ले जाने की कोशिश करने लगे, तो उन्होंने बिना कुत्ते के स्वर्ग जाने से मना कर दिया। अड़ गए। बोले-“ ऐसा स्वर्ग हमारे किस काम का जहां मेरा मोबाइल मेरे पास न हो। अंत में देवदूत युधिष्ठर को उनके मोबाइल समेत स्वर्ग ले गया।
महाभारत काल में सहज उपलब्ध मोबाइल तकनीक को हजारों साल चुपचाप छिपाए धरे रहे और इंतजार करते रहे कि जैसे ही कोई विदेशी इसको चुराकर मोबाइल बनाएगा हम फटाक से महाभारत कथा सुनाकर बता देंगे, कि जो तुम आज बना रहे हो वो तो हम हज्जारों साल पहले बरत चुके हैं।
महाभारत काल में सबसे पहले प्रयोग किए मोबाइल का हजारों साल बाद फिर से चलन में आना देखकर यही कहने का मन करता है-“ जैसे मोबाइल के दिन बहुरे, वैसे सबसे बहुरैं।“
दूसरी जुगलबंदी- स्मार्ट मोबाईल फोन और स्मार्टनेस
निर्मल गुप्ता
वह कतई स्मार्ट नहीं हो सकता, जिसके पास अपनी गर्दन को कमोबेश पैंतीस डिग्री पर मोड़, कंधे को उचका और उसके बीच अपने मोबाइल फोन को फंसा ट्रैफिक के सिपाही से आंखें चुराकर भरी सड़क पर, टूव्हीलर को दौड़ाने का कौशल नहीं आता। वे लोग जो तमाम प्रयासों के बावजूद इस चातुर्य को पाने में असफल हैं, वहीं इस मुद्दे पर सबसे अधिक नाक भौं सिकोड़ते हैं। इनके मन में इस तरह के कौशल संपन्न लोगों के प्रति सौतियाडाह टाइप की चिंता रहती है। नाकामयाब लोग ही अकसर बाय डिफॉल्ट चिंतक बनते हैं।
अमरीका से खबर आई है कि स्मार्टफोन से दिन भर चिपके रहने की आदत न केवल आंखों के लिए वरन गर्दन और रीढ़ की सेहत के लिए भारी पड़ सकती है। सिकुड़ी हुई नाकों को जब उन्हें इसका पता लगा, तो उनकी त्वरित प्रतिक्रिया आई, कि उन्हें तो यह बात पहले से ही पता थी। स्मार्ट लोगों ने कहा : हू केयर्स। नो रिस्क नो गेम। जिंदगी है खेल, कोई पास कोई फेल।
स्मार्टफोन अब महज संवाद का उपकरण नहीं रह गया है। इनके आकार प्रकार कीमत और गुणवत्ता के जरिए ही इसे धारण करने वाले का सोशल स्टेटस और स्मार्टनेस तय होती है। सिर्फ इतना ही नहीं, इसके सम्यक इस्तेमाल का सलीका ही धारक के व्यक्तित्व को आभामय बनाता है। इससे ही मित्र मंडली का निर्माण होता है। प्यार, दुलार, स्वीकार दुत्कार और चीत्कार अभिव्यक्त होता है। मित्रों को ब्लॉक करने का सुगम उपाय मिलता है। सिर्फ इतना ही नहीं आभासी दुनिया में सेलिब्रिटी स्टेट्स मिलता है। उन्हें देश दुनिया की पल पल की खबर रहती है और उनके हर पग की पदचाप सोशल साईट पर दर्ज होती जाती है। उनके कुत्ते को जुकाम होने की सूचना से लेकर, नुक्कड़ के पान वाले की बिटिया की गुड़िया के ब्याह की खबर सचित्र वायरल हो जाती है। जब वह जाकिर हुसैन के तबला वादन से लेकर बाबूलाल हलवाई की बालूशाही की रेसिपी तक पर विचार व्यक्त करते हैं, तो तीन सौ लाइक्स और सवा सौ कमेंट उनके सर्वगुण संपन्न होने की तुरंत पुष्टि कर देते हैं।
एक रिपोर्ट के मुताबिक मुल्क के स्मार्टफोन यूजर्स रोज तीन घंटे अठारह मिनट इसी तीन-तेरह में उलझे रहते हैं। उनके लगभग डेढ़ सौ बार फोन या मैसेज न आने पर भी घंटी का आभास होता है। वे बार-बार अपने फोन को निहारते हैं और उसांस लेकर खुद से कहते हैं – कोई न आया है कोई न आया होगा, मेरा दरवाजा हवाओं ने हिलाया होगा। इस जद्दोजहद में ये लोग इतनी अधिक हवा गहरी सांस के जरिए अपने भीतर भर रहे हैं, कि आशंका है कि यदि ऐसा ही चलता रहा तो एक दिन दुनिया में निर्वात कायम हो जाएगा।
न्यूयार्क के एक रिसर्च सेंटर द्वारा किए गए अध्ययन के अनुसार स्मार्टफोन स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरे पैदा कर रहा है। इस सूचना से स्ट्रीट स्मार्ट लोग अमरीका से बेहद खफा हैं। उनका कहना है कि यह मुआ अमरीका दूसरों की स्मार्टनेस इतना चिढ़ता क्यूं है। जब देखो किसी न किसी को धमकाता या बरगलाता रहता है। किसी पर वह आंख तरेरता है, तो किसी के सर को निशाना बना के अपने ड्रोन से मिसाइल दागता है।
वैसे भी आज के वक्त में तनी हुई रीढ़ और उठी हुई गर्वोन्मत्त गर्दन की जरूरत ही किसे है ?
तीसरी जुगलबंदी- रवि रतलामी : आपका मोबाइल ही आपका परिचय है!
आई एम डॉ. गुलाटी - एम.एम.एम.पी. - डॉ. गुलाटी ने अपने उसी गुरूर वाले अंदाज में अपना परिचय दिया।
एम.एम.एम.पी. मतलब?
एम.एम.एम.पी मतलब - मेरा मोबाइल ही मेरा परिचय है।
अच्छा, तो आपका मोबाइल कौन सा है?
इससे पहले कि डॉ. गुलाटी बड़े स्टाइल से, उसी गुरूर से अपना मोबाइल निकाल कर जनता को दिखाएं, ताकि जनता ठहाके लगा सके। जरा आप अपना मोबाइल चेक कर लें, क्योंकि अब आप भी जुदा नहीं हैं। डॉ गुलाटी की तरह ही, आपका मोबाइल ही आपका परिचय है।
एक जमाना था जब आदमी का परिचय भिन्न-भिन्न तरीकों से लिया-दिया जाता था। ऊपर-ऊपर से आदमी का परिचय प्राप्त करने के लिए कोई प्रकटतः, प्रत्यक्ष साधन उपलब्ध नहीं था। कोई धोतीबाज आदमी भी ब्यूरोक्रैट निकल सकता था, तो कोट-टाई डांटा हुआ आदमी ठेठ खेती-किसानी वाला भी हो सकता था। तब नाईकी और एडिडास के जूते और टिसॉट, पेबल की घड़ियां भी तो नहीं थे, जिनसे आदमी के व्यक्तित्व का अंदाजा लगाया जा सके। जब तक घुट-घुट कर आपसी परिचय का आदान प्रदान नहीं हो जाता था, ये कहना मुश्किल होता था कि यार, ये बंदा आखिर करता क्या है! पर आज?
आज आपके और सामने वाले के हाथों में एक अदद मोबाइल है ना इंस्टैंट परिचय पाने के लिए!
घुट-घुट कर एक दूसरे का परिचय देने लेने की जरूरत ही नहीं!
उदाहरण के लिए, यदि आपके हाथों में अभी भी एक अदद फीचर फोन है, तो आप इस सदी के सबसे बड़े तकनीकी तौर पर दलित, वंचित आदमी हैं। ठीक उसी तरह जैसे कि आज जो भी ईमानदार बचा है, तो वो इसलिए कि उसे मौका नहीं मिला होता है। तो आपको भी स्मार्टफोन का मौका नहीं मिला है, और आप भी मौका पड़ते ही एक अदद स्मार्टफोन की ओर छलांग लगाने को तैयार बैठे हैं। अथवा यह भी हो सकता है कि आप स्मार्टफोन से ऊबे-अघाए व्यक्ति हैं, जो सबकुछ छोड़छाड़ कर, अपना फेसबुक-ट्विटर प्रोफाइल हटा-मिटाकर सन्यास लेकर वापस फीचरफोन की दुनिया में वापस आ गए हैं - जिसकी कि संभावना नगण्य ही है। ये भी हो सकता है कि आपकी कंपनी में स्मार्टफोन बैन हो और आपको मजबूरी में सादे फीचरफोन लेकर चलने जैसी गांधीगिरी करनी पड़ रही हो!
यदि आपके हाथों में श्यामी, वनप्लस जैसे स्मार्टफोन है, तो यकीन मानिए, आप इस सदी के सबसे अधिक होशियार, मितव्ययी आदमी हैं, जो पैसे की कीमत समझते हैं, टेक्नोलॉजी की परख रखते हैं। इसके साथ ही, आप उन डंब अमरीकियों को चिढ़ा रहे होते हैं, जो उतने ही डंब एप्पल फोन को, जिसमें फीचर के नाम से ज्यादा कुछ नहीं होता है, और टेक्नोलॉजी में कोई पांच साल पीछे चल रहा है, दुगनी-तिगुनी कीमत देकर खरीदते हैं। आजकल वैसे भी, अमरीका में डंब और ट्रम्प का राइम बढ़िया चल रहा है, और उनके एप्पल से बाहर निकलने की संभावना कम ही है। इसलिए, भारत में एप्पल? ना बाबा ना! जो थोड़ा मोड़ा एप्पल किसी भारतीय के हाथ में दिखता है, तो वह या तो धोखा खाया भारतीय होता है या फिर अमरीकी-नुमा भारतीय। वैसे, मैं अपनी बात कहूं तो एक बार मैं भी धोखा खा गया था, और धोखा खाने के मामले में एक बात अच्छी यह है कि आमतौर पर आदमी बार-बार धोखा नहीं खाता।
यदि किसी के हाथ में (अब भी) विंडोज/लूमिया मोबाइल है, तो उसके व्यक्तित्व के बारे में पक्के तौर पर यह कहा जा सकता है कि वो इंटीग्रिटी के मामले में पक्का है। वह बड़ा ही पक्का विश्वासी आदमी होगा। वह आंख-कान मूंदकर जिस किसी पर विश्वास कर लेता होगा, उस पर मरते दम तक विश्वास करता होगा। विंडोज फोन मार्केट से बाहर हो गया है, चीजें उसमें चलती नहीं मगर फिर भी उसे जी जान से सीने से चिपकाए व्यक्ति के विश्वास, उसकी विंडोज के प्रति प्रतिबद्धता की प्रशंसा तो करनी ही होगी, मगर हमें इनसे अच्छी खासी हमदर्दी भी दिखानी चाहिए।
अब आते हैं लाइफ मोबाइल की ओर। आप कहेंगे कि सेमसुंग, एचटीसी, हुआवेई, जेडटीई, ब्लैकबेरी, नोकिया, एलजी, नैक्सस, मोटो, पैनासोनिक, सोनी, माइक्रोमैक्स, इंटैक्स, डाटाविंड आदि-आदि का क्या? ओप्पो! अरे, ये भी तो, अनगिनत में से एक मोबाइल ब्रांड है। आज आप कोई भी शब्द ले लें, उससे मिलता जुलता किसी न किसी कंपनी का कोई न कोई वर्जन का मोबाइल फोन मिल ही जाएगा। 33 करोड़ हिंदू देवी देवता की तरह मोबाइल ब्रांड और वर्जन भी इतने ही हैं। न एक कम न एक ज्यादा। यूं, ये सब आम जनता के मोबाइल हैं। मैंने आम आदमी जानबूझकर नहीं कहा, नहीं तो समस्या हो सकती थी। तो यह बाकी के सब मोबाइल आम जनता के आम मोबाइल हैं। अपवादों को छोड़ दें, तो कोई खास, विशिष्ट व्यक्तित्व नहीं। हमें क्या और चलताऊ ऐटीट्यूड युक्त। अधिकांशतः में यह बात लागू है - आपके फोन में लाखों ऐप्प इंस्टाल हो सकते हैं और हजारों फीचर हैं, मगर आप में से अधिकांश के लिए काम के केवल व्हाट्स्एप्प और फेसबुक हैं!
आम जनता के आम ऐप्प। बहुत हुआ तो ट्विटर बस। यकीन नहीं होता? अरे भाई, यकीन कर लो। और यह भी यकीन कर लो कि महज तीन टैप से सेटिंग में जाकर आप अपने फोन का इंटरफेस यानी भाषा हिंदी में बदल सकते हैं, और कीबोर्ड भी हिंदी में कर सकते हैं, अब बताएं? क्या आपके फोन की भाषा हिंदी है? क्या आपके फोन का कीबोर्ड असल हिंदी है कि गूगल ट्रांसलिट्रेशन वाली Ram से रामा लिखने वाली? हिंदी बेचारी आपके फ़ोन में उपेक्षित पड़ी है, और आप धकाधक हिंदी पखवाड़े में उपेक्षित हिंदी के बारे में रोमन में लेख पे लेख, स्टेटस पे स्टेटस मारे जा रहे हैं! इन आम मोबाइलों के स्क्रीन पर महज एक झलक मारने की देरी है. मोबाइल मालिक के आम व्यक्तित्व का पता आम हो जाता है!
हां, तो बात हो रही थी लाइफ-एलवाईएफ मोबाइलों की। हाल-फिलहाल डेटा का तमाम आग पानी इन्हीं मोबाइलों में तो आ रहा है। बेखौफ आप यह बात यकीन से कह सकते हैं, कि जिस किसी के पास भी वर्तमान में लाइफ़ मोबाइल है वो दुनिया के न सही, भारत के सबसे भाग्यशाली लोगों में से एक हैं। जिन्होंने पहले से इसे खरीदा हुआ है, जाहिर है वे भाग्यशाली होने के साथ-साथ बहुत बड़े वाले दूरदर्शी भी रहे हैं। अब यह अलग बात है कि यह अहोभाग्य केवल दिसंबर 2016 तक के लिए ही है।
चलिए, बहुत सी बातें हो गईं। अब तो आप कृपया बता दें कि आपका परिचय क्या है? ओह, नहीं, बस, आप यह बता दें कि आपका मोबाइल कौन सा है?
चौथी जुगलबंदी- एम एम चन्द्रा- हर मुद्दे को संसद बना दिया
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भारतीय संसद का भी कोई जवाब नहीं है। यह इतनी चरित्रवान जगह है, जिसको ऐरा-गैरा-नत्थू खैरा कहीं भी, कभी भी, अपनी छोटी-छोटी बातों से सम्मानित कर देता है- “यार तुम तो हर मुद्दे को संसद बना देते हो”। संसद एक पवित्र गाली है या गाली ही संसद जैसी बन गई है। संसद एक ऐसी संस्था है जो देश के सबसे गैर-गंभीर मुद्दों पर बहस करती और नए-नए मुद्दे पैदा करती है, जिसका किसी जीवित या मृत व्यक्ति से कोई वास्ता नहीं होता। समस्या का हल संसद नहीं चंदा देने वाली शक्तियों के लाभ हानि के आधार पर निर्भर होता है।
आज मोबाइल का होना न होना भारत की सबसे बड़ी समस्या बन गया। 2जी, 3जी, 4जी के आने के बाद भी देश की समस्त जनता त्राहिमाम-त्राहिमाम कर रही है। सामाजिक सेवा करने वाली एक मोबाइल कंपनी के आका ने, मोबाइल से अपने पाले हुए सांसद को मर्यादित भाषा में एकदम साफ-साफ शब्दों समझाया- “यदि कल आपने संसद में मोबाइल का मुद्दा नहीं उठाया, तो आपको परिवार कल्याण हेतु चंदा देने की प्राचीन प्रथा को बंद कर दिया जाएगा। नेताजी ने अपने आका की बात एक कान से सुनी और अपने चेले चपाटों के कान में देशभक्ति की एक दो घूंट दाल दी- “कल बाजारी देशभक्ति दिखाने के लिए संसद का ऐतिहासिक दिन है। मैं एक मुद्दा उठाऊंगा, आप लोग दूसरा मुद्दा उठाएं, इस तरह दो विपरीत मुद्दों का संघर्ष और लाभ की एकता बनी रहेगी। समर्थन करना और समर्थन जुटाना एक दम असली लगना चाहिए। मुद्दे पर इतना आक्रामक होना ताकि सभी घुम-फिरकर अपने ही मुद्दे तक सोचें। ध्यान रहे, संसद की बहस को एक खेल भावना की तरह से खेलना है। चतुर नेता वही जो अपने पाले में ही खेल खेले। दूसरों के पाले में खेलेंगे तो पिटाई अलग। अच्छा फोन रखता हूं, कल की तैयारी करो- कब, किसको, कितना बोलना है।
सांसद-1! अध्यक्ष महोदय आज आपके सामने एक ऐसा मुद्दा रख रहा हूं, जो पूरे भारत के लोगों की जरूरत ही नहीं बल्कि उनकी आन-बाण-शान बन गई है। देश की पहचान बन गई है, राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए जाल बन गई है यानि मोबाइल! मोबाइल! मोबाइल! अध्यक्ष महोदय नेटवर्क की कमी के चलते करोड़ों काल प्रतिदिन ड्राप हो रहे हैं। जिसकी वजह से भारत की जिंदगी ठहर-सी गई। इन पर लगाम लगनी चाहिए।
अध्यक्ष-! माननीय सांसद महोदय! आप अपनी भाषा पर लगाम लगाएं। यह कोई न्यायालय नहीं जहां किसी को सजा दी जाए। यहां सिर्फ सवाल पूछे जाते हैं या उनके जवाब दिए जाते हैं।
सांसद-2 अध्यक्ष महोदय! नेता जी नेटवर्क का मुद्दा उठाकर पूरे देश को भटका रहे हैं। असल में नेता जी मोबाइल कंपनियों को बचाना चाहते हैं। समस्या नेटवर्क की नहीं बल्कि मोबाइल तकनीकी की है, जिसे जानबूझकर छिपाया जा रहा है। देश को अच्छे मोबाइल की जरूरत है ताकि पूरा देश हर समय अपडेट रहे। यदि अच्छे मोबाइल होंगे, तो देश की बड़ी से बड़ी समस्या चुटकी में हल हो जाएगी, जैसे-गरीबी, बेरोजगारी, डेंगू, मलेरिया, चिकनगुनिया और आतंकवाद भी। मैं यह जरूर मानता हूं कि इस समस्या को राष्ट्रीय समस्या घोषित किया जाना चाहिए किंतु हमारे महान नेता जी तथ्यगत रूप में देश की अवाम से झूठ बोल रहे हैं।
यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की प्रतिनिधि सभा की आंखों में भी धुल झौंकने का काम कर रहे हैं। पहली बात तो यह कि भारत की भोली-भाली जनता को बिना बात इस गंभीर मुद्दे पर घसीट रहे हैं। जहां देश में 84 करोड़ लोग 20 रुपए रोज कमाते हों उन लोगों को इस राष्ट्रीय महत्त्व के मुद्दे पर घसीटना क्या इनको शोभा देता है? मोबाइल से इंटरनेट चलाने वाले लोगों की संख्या अभी भी पूरे देश में लगभग 16 करोड़ है, आधी आबादी आज भी एक वक्त भोजन करती है। एक लाख किसान प्रत्येक वर्ष आत्महत्या करते हैं। एक लाख महिलाएं गरीबी के चलते बच्चा जन्म देते समय ही मर जाती हैं। और तो और गर्मी सर्दी से भी हजारों लोग हर साल मर जाते हैं। इन लोगों का मोबाइल वाली राष्ट्रीय महत्त्व की समस्या से क्या लेना देना। मेरा तो बस इतना कहना है, कि इतने गरीब लोगों को इस मुद्दे अलग रखा जाएं।
संसद -1 ! यह बात ठीक है, हम अपने सभी विमर्शों से इन भोली भाली जनता को अलग कर देते हैं। और देश की 20% आबादी वाली असली जनता के बारे में बात करते हैं। 80% आबादी के लिए तो सिर्फ जुमले ही काफी हैं, वो भी चुनाव के लिए। महोदय डिजिटल इंडिया इस वर्ग की सबसे बड़ी जरूरत है। हम नहीं चाहते कि मध्यम वर्ग बिना मोबाइल के बिन जल मछली की तरह तड़पता रहे। आज देश के तमाम बुद्धिजीवियों के लिए भी मोबाइल का मुद्दा सबसे बड़ा है। गरीबी, बेरोजगारी, सांप्रदायिकता जैसे मुद्दों पर तो देशद्रोही बात करते हैं। हम मोबाइल पर बात करते हैं, मोबाइल से बात करते हैं। देश की तमाम समस्या अब सिर्फ मोबाइल से हल हो जाएगी। मोबाइल बेरोजगार को नौकरी दिलाएगा, टिकट बुक कराएगा, भूखे को खाना खिलाएगा, कहीं भी कभी भी पैसा जमा कराएगा। किसानों की फसलों को शेयर मार्किट में बेचेगा। देशभक्ति की धुन बजाएगाअ सीमा पार के दुश्मनों को भगाएगा, वीर पुरुषों को जगाएगा और नई क्रांति लायेगा यह मोबाइल क्रांति का दौर है। किसी शायर ने ठीक ही कहा "देश की ऊंचाई को मीनार से मत आंकिए असली हिंदुस्तान तो मोबाइल पे आबाद है।"
अध्यक्ष महोदय- ठीक है! ठीक है! मोबाइल और नेटवर्क दोनों जरूरी है। इनकी समीक्षा हेतु एक समिति गठित की जाएगी। कोई और महत्त्वपूर्ण मुद्दा हो तो बताएं, उस पर बात की जाए।
सांसद-3 अध्यक्ष महोदय! मोबाइल भारतीय लोकतंत्र का पांचवां स्तंभ है। इसलिए मोबाइल कंपनियों को बचाने के लिए जो ठोस कदम उठाए गए हैं, वे बहुत धीमी रफ्तार से हो रहे। इस राष्ट्रीय हित के मुद्दे पर भी बात होनी चाहिए।