पुल गिरा है कोई पहाड़ नहीं गिरा, जो इतनी आफत कर रखी है। रोज ही तो दुर्घटनाएं होती हैं, अब सबका रोना रोने लगे तो हो गया देश का विकास। और विकास तो कुरबानी मांगता है। खेती का विकास बोले तो किसानों की आत्महत्या, उद्योगों का विकास बोले तो मजदूरों की छटनी, तालाबंदी। सामाजिक विकास बोले तो भीड़ उन्माद और सांस्कृतिक विकास बोले तो प्राचीन सामंती विचारों थोपना। आधुनिकता का विकास बोले तो मुनाफे में सब कुछ तब्दील कर देना।
भला विकास विरोधी, देश विरोधी लोगों को ये बात कहां समझ आती है ! उन्हें तो बस मुद्दा चाहिए हो हल्ला करने के लिए। भला कैसे समझाया जाए कि पुल और पहाड़ की त्रासदी में सरकार और कंपनियों का हाथ नहीं है, ये सब तो भगवान की मर्जी है।
और फिर सरकार तो आती जाती है। आज ये है कल वो थी। लेकिन देश का विकास कभी नहीं रुकता, क्योंकि सरकार और कंपनी में अच्छा गठजोड़ है। ये तो देश की सेवा या लोगों की सेवा बड़ी मुस्तैदी और ईमानदारी से कर रहे थे। 2 साल के प्रोजेक्ट को 7 साल बढ़ाया गया, ताकि बढ़ती मंहगाई के साथ कमाई और सरकार के हिस्से से अपने-अपने घर का विकास सुनिश्चित हो सके।
सिर्फ यहीं बंटवारे का काम बड़ी ईमानदारी से नहीं होता, बल्कि पुल बनाए ही इसलिए जाते हैं ताकि पुल बार-बार बनते रहें। इस बार एक छोटी-सी गलती हो गई। पुल हम देश के विकास के लिए सिर्फ कागजों में बनाते थे, पुनर्निर्माण के लिए पैसों का बंटवारा करते थे। एक पुल दिखाने के चक्कर में, ये दिन देखने पड़ गए।
रही बात मजदूरों की तो मैंने पहले ही बता दिया कि कोई भी विकास कुरबानी मांगता है। वैसे भी मरने वाले लोग जिंदा ही कब थे। जहां भी विकास होता है अपना खून-पसीना बहाने के सिवा उनके पास है ही क्या? वहीं अपनी झोपड़ी बनाकर यहां से वहां भटकते ही रहते हैं। जिंदा रहने और बेहतर जिंदगी की तलाश में उन्हीं सड़कों, इमारतों और पुलों पर मर जाते हैं।
ये कोई अनोखी घटना तो नहीं...बच्चे भूखे मर रहे हैं.... किसान मर रहे हैं.... नौजवान मर-मार रहे हैं...संवेदनाएं मर रही हैं, जिज्ञासाएं मर रही हैं, तर्क मर रहा है। आज पुल गिरा, कल किसी ने आत्महत्या कर ली, परसों खदान गिरी, यहां इमारत गिरी, वहां छत धंसी। यह सब तो होता रहता है। ये तो प्रकृति का नियम है, एक न एक दिन तो सबको जाना ही है। सबकी मौत उसके ही हाथ में होती है।
हम उन मजदूरों की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करेंगे। भगवान उनकी आत्मा को शांति दे, ताकि मरने के बाद वो हमें न सताएं। जीते जी तो हमें बख्शा नहीं, कभी हड़ताल, कभी तालाबंदी तो कभी काम न मिलने का रोना। किस-किस की सुनें? बाहर कोई हादसा हो तो वहां जाओ सहानुभूति दिखाने।
किसी के शोर मचाने का कोई तुक नहीं। अगर देश के विकास में देशी-विदेशी कंपनियों से लेकर मंत्री-संतरी तक हजारों-लाखों करोड़ों रुपए का बंटवारा होता है। उसमें भी उन्हें एक दो लाख देना बहुत कठिन काम है। फिर भी उनकी क्षति पूर्ति के लिए मुआवजे तो बांट ही दिए हैं, घरवालों को सहानुभूति दिखा दी है। लाखों मिल गए और क्या चाहिए। अरे इतना तो जिंदगी भर भी नहीं कमा पाते। और फिर पुल ही तो गिरा है पहाड़ नहीं ...जो पूरी की पूरी आबादी तबाह हुई हो।....पहाड़ पर तो हजारों कंपनियां काम कर रही थीं यहां सिर्फ एक।
फर्क करो भाई, सबको एक तराजू में मत तोलो... वहां की सैकड़ों कंस्ट्रक्शन कंपनियां बेकसूर निकली थीं। पुल बनाने वाली कंपनी भी बेकसूर है...और कसूरवार! देखना हर बार की तरह कोई न कोई निम्न श्रेणी का ही कर्मचारी होगा। बाकी सब के सब दूध के धुले हैं। पूरा सिस्टम एक दम ऊपर से नीचे तक गंगा जल की तरह पवित्र है। अगर ऐसे में कोई घटना हो तो सिर्फ एक व्यक्ति ही दोषी होना चाहिए। सभी को दोषी ठहराया तो किसी की भी खैर नहीं।