अनेक वर्तमान साहित्यकारों को इस बात का मलाल रहता है कि उनका मूल्यांकन ठीक से नहीं किया गया। ठीक उसी असफल छात्र की तरह, जो अपने पिता से कहता है- 'मेरी कॉपी परीक्षक ने ठीक से जाँची नहीं, मैं चाहता हूँ कि फिर से मेरी उत्तर पुस्तिका का मूल्यांकन किया जाए।'
हमारे शहर में भी एक साहित्यकार रहते हैं। पार्षद के भाषण लिखकर देते हैं या फिर प्राथमिक शाला के सांस्कृतिक कार्यक्रम में सरस्वती वंदना लिखकर प्रथम श्रेणी की कुर्सी पर बैठकर कहते हैं- 'यह वंदना मैंने लिखी है।' हालाँकि जिन्हें बताते हैं उन्हें उस वंदना से कुछ भी लेना-देना नहीं होता है। वे तो अपनी लड़की का बूगी-वूगी देखने आए होते हैं। निरालाजी की वंदना को कोई अपना कहे, उससे ना निरालाजी को कोई अंतर पड़ रहा है, ना ही सरस्वतीजी को।
सो एक दिन हमारे कस्बे के सम्पादकजी ने हमसे कहा- 'जाकर किसी साहित्यकार का साक्षात्कार कर लाओ।'
'क्यों? क्या जरूरत पड़ गई है?' हमने चश्मे में से आँखें मटकाकर प्रश्न किया।
'इसलिए बंधु कि तुलसी जयंती आ रही है, कुछ उन पर लेख मिल जाएँगे और इसी बहाने साहित्यकार भी तर जाएँगे।'
'जो हुक्म मेरे आका' का उद्घोष करके हम साहित्यकार डिब्बा सोहागपुरीजी के घर जा पहुँचे। वे सिर में चमेली के तेल की मालिश करवा रहे थे। मुँह में पान, टूटी खटिया पर अधलेटे सुबह की धूप का आनंद ले रहे थे। हमारे आने का उद्देश्य सुनकर वे ऐसे उछले मानो बिच्छू ने डंक मार दिया हो। उन्होंने तत्काल सामने के ठेले से चाय का ऑर्डर दिया और तुरंत सिर की मालिश बंद करवा दी तथा ठीक से धोती करके बैठते हुए हमसे प्रश्न किया- 'आप कौन सी पत्रिका से हैं?'
' जी नहीं, मैं 'भूतों की आवाज' साप्ताहिक से हूँ।' हमने बताया।
वे हे... हे... करके हँसते हुए कहने लगे- 'बड़ा नाम सुना है हमने आपके साप्ताहिक का। एक बार मैं नेपाल गया था वहाँ भी देखने को मिला था।'
हमने सुना तो गदगद् हो गए। हालाँकि हमारा पेपर छप भी रहा है और देश की सीमा तोड़कर बाहर जा चुका, हमें पहली बार मालूम पड़ा था।
उन्होंने कहा- 'आप शौक से प्रश्न करें।'
हमने भी कागज-कलम उठा ली और सवाल किया, 'आपकी रचनाएँ कौन-कौन-सी पत्रिकाओं और समाचार-पत्रों में छपी हैं?'
वे थोड़ा सोचने की मुद्रा में आए और फिर कहने लगे, 'धर्मयुग, सारिका, दैनिक हिन्दुस्तान, दिनमान, गृहशोभा, नईदुनिया, हरिभूमि, नवभारत टाइम्स, कादम्बिनी, नवनीत, साहित्य अमृत, कथन, कथानक को छोड़कर लगभग सब में ही छपा हूँ।'
"इनमें क्यों नहीं छपे?"
'मेरी रचना का स्तर थोड़ा हाई है। या तो ये संपादक उसे समझ नहीं पाए या मैं उनके स्तर पर नीचे नहीं आ पाया', कहकर वे पुनः हिनहिनाए। फिर अपनी बात को जारी रखते हुए कहने लगे- 'फिर मित्र, मैंने विचार किया यदि हम इनमें छपने लगेंगे तो अन्य साप्ताहिक, अन्य लघु पत्रिकाओं का क्या होगा? अरे भैया हमारे कारण ही तो वे श्रेष्ठ हैं।'
'मैं कुछ समझा नहीं, कृपया स्पष्ट करेंगे...?'
'क्यों नहीं... क्यों नहीं...। देखो मित्र, हम छोटे समाचार-पत्र, लघु पत्रिकाओं में लिखते हैं जिसके चलते ही अन्य लोगों की पत्रिकाएँ स्वयं को बड़ी अनुभव करती हैं। अगर आसमान में बीस चाँद हों तो एक की भी पूछ ना हो। मित्र हमने पूरा आकाश उन्हें दे दिया, हम स्वयं को छोटा घोषित कर देते हैं जिससे वे बड़े हो जाएँ। आप ही निर्णय करो मित्र- बड़ा कौन है? मैं या वे लोग...?'
'अगला प्रश्न है- आपको आज तक कौन-कौन से सम्मान प्राप्त हुए हैं...?' हमने पूछा। तब तक चाय भी आ गई थी। हमने गिलास को मुँह में लगा लिया था। उन्होंने हमें ध्यान से देखा। अपने मन के क्रोध को पीते हुए कहा- 'नोबेल, बुकर, ज्ञानपीठ, साहित्य साधना, पद्मश्री जैसे सम्मानों को छोड़कर हमें काफी सम्मान मिले हैं। पिछले दिनों कल्लू पहलवान की लड़की के विवाह में हमने बिदाई लिखी थी, उसने हमें 11 रुपए देकर सम्मानित किया था। ऐसे कई सम्मान हमें मिल चुके हैं। आप विश्वास करें, मैं तो जन-जन का, लोककवि, कथाकार हूँ। आम जनता, मैदानी लोग, सड़क छाप मेरे विषय में चर्चा करते हैं, बस यही मेरी सफलता है। अब ऐसी कविता या गीत या अकहानी किस काम की जो किसी को समझ ही न आए। इसलिए मित्र, जनता ही मेरी पद्मश्री है...', कहकर वे फें... फें... करके हँस दिए।
'कृपया तुलसी जयंती पर कुछ तुलसीदास पर कहना चाहेंगे...?'
'अरे तुलसीदास कब खत्म हो गया...?' उन्होंने आश्चर्य से प्रश्न किया।
'अजी वे तो बरसों पहले स्वर्गवासी हो चुके हैं।'
'अच्छा वह...? मैं अपने तुलसीदास आटा चक्की वाले का समझा था। माफ करें, हाँ तुलसीदासजी बड़े भले-नेक इंसान थे। उनकी रामायण को आधार बनाकर अरुण गोविल ने राम का अभिनय किया था और उनको आधार बनाकर कई जासूसी सीरियल बन रहे हैं...', उन्होंने अपने ज्ञान से हमें उपकृत करते हुए कहा।
'आपकी कोई रचना पर टिप्पणी या कामना हो तो बताएँ ताकि उसे पाठकों तक पहुँचा सकें...', हमने अंतिम प्रश्न करते हुए खाली चाय का गिलास रखते हुए प्रश्न किया।
'हमें एक ही शिकायत है। हमारा आज तक ठीक से मूल्यांकन नहीं हुआ। यदि हमारी रचनाओं और हमारा मूल्यांकन हो जाता तो शायद हमारे शहर में साहित्य का नोबेल प्राइज आ जाता...।'
'इसके लिए आप किसको दोषी मानते हैं?'
' चयन समिति को जिसे मूल्यांकन करना नहीं आता है। वरना क्या कारण है कि हमें आज तक सम्मानित नहीं किया गया?'
कुछ देर वे सुस्ताने के लिए ठहरे, फिर कहने लगे, 'आप मेरी बात लाखों-करोड़ों लोगों तक पहुँचाएँ कि प्रत्येक रचनाकार का उचित मूल्यांकन होना चाहिए...।' हमने धन्यवाद दिया और लौट आए।