प्रिय मित्र बॉनी,
नमस्कार।
आशा है सानंद होंगे। मैं तुम्हें अपनी पीएचडी का किस्सा आज बता रहा हूँ। पीएचडी डिग्री प्राप्त करना वास्तव में एक यात्रा है। इस यात्रा के अनेक चरण हैं। इसका प्रारंभिक बिंदु है : विद्यार्थी द्वारा उपयुक्त टॉपिक को सर्च करना। सर्च करने की प्रक्रिया में एक पुस्तकालय में मुझे एक ऐसी थीसिस हाथ लग गई कि फिर मुझे रिसर्च करने की आवश्यकता ही नहीं रही। मेरी सर्च में ही रिसर्च शामिल है। उक्त थीसिस प्राप्त होते ही मुझे ऐसा लगा मानो अंधे के हाथ बटेर लग गई हो। मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा। मुझमें नए उत्साह का संचार हो गया। अब मैं स्वप्न में भी सफलता के घोड़े पर बैठकर उड़ान भरने लगा।इस यात्रा का अगला चरण है : उपयुक्त गाइड की खोज। यह एक महत्वपूर्ण चरण है जो 'भारत एक खोज' की तरह ही रोचक किंतु कठिन है। विद्यार्थी के अनुकूल गाइड मिलना सफलता की गारंटी माना जाता है। रामचरित मानस में आता है : 'बिनु हरि कृपा मिलहिं नहीं संता।' इस जन्म में मेरे द्वारा अच्छे कर्म किए गए हों, ऐसा याद नहीं पड़ता। अतः हरि कृपा के फलस्वरूप ही मुझे एक अदद गाइड की प्राप्ति हो गई। गाइड की प्राप्ति होते ही मेरा प्रमोशन हो गया तथा मैं विद्यार्थी से शोधार्थी बन गया। अब मैं स्वयं का परिचय 'स्टूडेंट' के रूप में नहीं बल्कि 'स्कॉलर' के रूप में देता। जीवन आसान एवं अर्थपूर्ण लगने लगा। मेरे गाइड की सारी बातें उच्च कोटि की रहीं। वे उच्च शिक्षा विभाग में कार्यरत शासकीय सेवक हैं। वे ऐसे सेवक हैं जिनमें सेवा की भावना कूट-कूटकर भरी है। लेकिन यह भावना सेवा करने की नहीं, करवाने की है। पीएचडी डिग्री रूपी मेवा प्राप्त करने की आशा में मैंने भी जी भरकर गुरु सेवा की। उनके घर का दूध और सब्जी लाना तो मेरा नित्य कर्म बना ही रहा। इस प्रकार मैं विभिन्न जतन कर थीसिस यात्रा मार्ग पर आगे बढ़ता रहा। मेरे गुरु इन्हीं कार्यों में व्यस्त रहे हों, ऐसा नहीं था। यदाकदा वे मेरे शोध के बारे में भी पूछ लेते थे। जब मैं कहता कि गुरुदेव मेरा (नकल) कार्य जारी है, तब उनके चेहरे पर जो संतुष्टि भाव होता, उसे शब्दों में व्यक्त करना संभव नहीं है। उच्च विचारों के धनी मेरे गुरुदेव को यूजीसी का उच्च स्केल प्राप्त है। मन के भी वे उच्च हैं। अपने-पराए में भेद नहीं करते। लिहाजा, दूसरे की थीसिस को पराया नहीं मानते। कहते हैं- जहाँ से भी ज्ञान की दो बातें मिलें, ले लेना चाहिए। न केवल लेना चाहिए बल्कि जीवन में उतारना भी चाहिए। सो मैंने भी आज्ञाकारी शिष्य की भाँति पुरानी थीसिस से ज्ञान की बातें अपनी थीसिस में उतार लीं। बॉनी! मैं अपने गाइड से विधिवत मार्गदर्शन नहीं ले पाया। प्रश्न-पत्र सेट करने, कॉपियाँ जाँचने, थीसिस जाँचने, मौखिकी लेने जाने, वर्षों से विभिन्न मीटिंग्स में जाकर पाठ्यक्रम जस का तस स्वीकृत करने जैसे महत्वपूर्ण कार्यों में वे इतने व्यस्त रहे कि मुझे भली प्रकार मार्गदर्शन नहीं दे पाए। इधर मुझे भी छात्र राजनीति के स्वर्ण मृग ने आकर्षित कर लिया और मैं पाठ्येतर गतिविधियों में संलग्न हो गया। इन गतिविधियों के कारण सर्च और रिसर्च हाशिए पर चली गई।गाइड से मार्गदर्शन के अभाव एवं स्वयं के जीवन में दर्शन के नितांत अभाव के कारण मेरे पास स्वयं का कुछ देने का था ही नहीं अतः पुरानी थीसिस की शुद्ध नकल करना, जिसमें अकल का काम न हो, ही मेरे लिए प्रथम एवं अंतिम विकल्प था। लिहाजा मैंने जैसे-तैसे थीसिस की नकल करने का कार्य पूर्ण किया और कार्य समाप्ति पर पुरानी थीसिस को माथे से लगाकर पुस्तकालय में जमा करवा दिया। लेकिन हाय री किस्मत! ऐन वक्त पर मेरी थीसिस के लिखे हुए कुछ पृष्ठ मुझे गायब मिले। घर में पूछताछ करने पर पता चला कि मेरे लिखे हुए थीसिस के कुछ पृष्ठों को रद्दी के पृष्ठ समझकर मुन्नी ने नाव बनाकर बहा दिए और मुन्ना ने रॉकेट बनाकर उड़ा दिए।बॉनी! बच्चों के मन में ईश्वर बसता है। वे मेरे काम को विश्वविद्यालय द्वारा आँकने के पूर्व ही समझ गए थे। पुरानी थीसिस, जिससे मैं नकल कर रहा था, पुस्तकालय में जमा करवा चुका था। अतः अगले दिन मैं भागता-दौड़ता पुस्तकालय पहुँचा जहाँ वह थीसिस थी। पूछने पर लाइब्रेरियन ने बताया कि उस थीसिस की बड़ी माँग थी। दो-तीन शोधार्थी उसके बारे में पूछते रहते थे। तुम्हारे थीसिस जमा कराते ही एक शोधार्थी ने वह थीसिस ले ली। कह रहा था कि थीसिस उसके काम की है।खग ही जाने खग की भाषा। मैं समझ गया कि उसके काम का थीसिस में क्या है और उसका वह क्या करने वाला है। मेरी स्थिति 'आसमान से गिरे, खजूर में अटके' की हो गई। कुछ पृष्ठ नाव और रॉकेट बन गए थे और दोबारा नकल करने के लिए पुरानी थीसिस नहीं थी। भारी मन से मैं अधूरे पृष्ठ लेकर टायपिंग सेंटर पहुँचा। टायपिस्ट को इस गंभीर स्थिति से अवगत कराया। वह हँसने लगा। मुझे लगा, वह मेरे घाव पर नमक छिड़क रहा है। मैंने उससे कहा- 'मेरी स्थिति खराब हो रही है और तुम हँस रहे हो?' वह हँसते हुए बोला, 'चिंता न करें भाई साब। मैंने भी इसी टॉपिक पर पीएचडी की है। आपकी अधूरी थीसिस को मैं पूरा कर दूँगा।'बॉनी! टायपिस्ट के ऐसा कहते ही मुझे विश्वास हो गया कि ईश्वर एक दरवाजा बंद करता है तो दूसरा खोल भी देता है। मेरी जान में जान आ गई। मैं पुनः ऊर्जावान हो गया। मेरी थीसिस पूर्ण हो गई। टाइप हुई। उस पर मैंने अपने फूहड़ और गाइड ने उनके सुदर्शन हस्ताक्षर किए। थीसिस जँचने गई। थीसिस जाँचने वाले और वाय वा वोसी (मौखिकी) लेने वाले मेरे गाइड के लंगोटिया मित्र थे, जैसे-तुम और मैं। इसलिए उन्हें भी मेरी थीसिस जँच गई। मैं 'डॉक्टर' हो गया।
लेकिन नासमिटे दुश्मनों को मेरे डॉक्टर होना नागवार गुजरा और उन्होंने मुझ पर नकल करके थीसिस लिखने का आरोप लगा दिया। जाँच बैठी। बहुत समय तक तो बैठी ही रही। लेकिन कब तक बैठती? दुश्मनों ने समिति सदस्यों को बार-बार आर लगाई जैसे बैलगाड़ी का गाड़ीवान बैलों को लगाता है। जाँच समिति के सदस्यों ने हकबका कर मान लिया कि मैंने नकल की है। अब मुझसे मेरा मत माँगा गया है। लेकिन तुम चिंता मत करना। अब मैं किसी ऐसे नकलची शोधार्थी की सर्च में हूँ जिस पर रिसर्च में नकल का आरोप लगा हो और उसने माकूल- सा जवाब बनाकर पेश किया हो। उसके जवाब की नकल करके मैं भी अपना जवाब पेश कर दूँगा। शेष शुभ तुम्हारा मित्र डॉ. जॉनी पीएचडी