लोकेन्द्र नामजोशी
इन दिनों दिवाली तक नैक-टू-नैक चल रहे त्योहारों के अवसर को भुनाने के चक्कर में बाजार से रोजाना नेक-टू-नैक 'बोनान्जा दिवाली ऑफर्स' की बेमौसम बरसात हो रही है। यही वजह है की बरसात में अवांछित रूप से टपकती छतों की मानिंद बाजार से ऑफर टपक रहे हैं। लिहाजा दिवाली के इस शानदार मौके का फायदा उठाते दैनिक अखबार भी गरमागरम खबरों की झड़ी लगाने की बजाय बोनान्जा ऑफर के विज्ञापनों की मुसलाधार बरसात कर रहे हैं।
अलबत्ता पाठक भी बाजार द्वारा बहाई जा रही बोनान्जा ऑफर की इस मुसलाधार गंगा में हाथ धोने के अवसर का भरपूर लाभ उठा रहे हैं। लेकिन बेमौसम बरसात की तरह रोजाना विज्ञापनो में बरसाए जा रहे 'अदभुत' और 'हैरतअंगेज' ऑफर, कई बार क्रिकेट पिच पर फेंकी जा रही असमान रूप से उछाल लेती गेंदों की माफिक बाउंस होने की बजाय सीधे सर से टकराते हुए हमारे दिमाग की गिल्लियां बिखेर रहे हैं। यक़ीनन यही वजह है कि बाजार में फेंके और लपके जा रहे इन अदभुत ऑफरों को देख देखकर मुझे इस बात का पक्का आभास होने लगा है कि हमारा देश एक बार फिर से सोने की चिड़िया बनने की और अग्रसर हो रहा है।
लिहाजा बाजार की जेब में हर अवसर के मुताबिक ऑफर धरे। निकाले और फेंक दिए। जैसा त्योहार हो वैसे ऑफर पेश कर दिए। ऑफरों का छोटा जाल फेंककर मोटा 'माल' बनाने वाली कंपनियों की आजकल यही रीति नीति है। ऑफर रुपी चारा लगाकर बाजार की नदी में कांटा फेंकों और ग्राहक रुपी मोटी मछली को फांस लो। एक समान ऑफर की वजह से आपस में सर फुटोव्वल न हो इसलिए अलग-अलग नाम से बाजार में ढेरों ऑफर परोस दो।
मसलन राह चलते चलते दुर्भाग्य से आपकी साइकिल के व्हील का टायर पंचर हो जाए तो उसे पकाने के लिए बाजार में 'व्हील ऑफ़ फार्च्यून' नामक ऑफर' पटक दो। पंखिड़ा की धुन पर लगातार नौ दिनों तक रास रचाने से हाथ-पांव में नाचने गाने की जान न बची हो लेकिन बाजार में 'नाचो-गाओ त्योहार मनाओ' ऑफर उतार दो।
जेब में माल खरीदने के लिए भले ही फूटी कौड़ी न हो लेकिन 'ऐश भी कैश भी घुमो मनपसंद देश भी' ऑफर जेब ढीली करने के लिए बाजार में फेंक दो।
हमारे यहां प्रजातंत्र में भी समय-समय पर ऑफर रूपी बरसात का होना कोई अनहोनी बात नहीं है। सत्ता रूपी सुंदरी का वरण करना हो तो ऑफर रूपी जाल फेंकने में सिद्धहस्त होना एक अतरिक्त योग्यता मानी जाती है। मसलन चुनावो की वैतरणी पार करना हो तो, भूखों के लिए आधी रोटी का तो 'खाने वालो' की लिए चार पूरी रोटी का ऑफर फेंक दो।
गरीबों के लिए रोटी, कपड़ा और मकान का तो अमीरों के लिए बिजली,पानी, दूकान का, अनपढ़ों के लिए टिपटॉप का तो पढ़े लिखों को लेपटॉप का, वोट के बदले नोट का तो ब्याज के बदले प्याज का ऑफर दे दो।
खैर, बिजली की भांति चमक पैदा करने वाले ऑफर जब तक बाजार में होते है जुगनुओं की भांति चमक पैदा करते हैं, लेकिन घर पर आते ही उनकी चमक कहां विलुप्त हो जाती है यह खरीददार को भी पता नहीं चलता। बावजूद उसके ऑफर रूपी लालीपाप के लिए हर खरीददार की हालत 'जी ललचाए, रहा न जाए' वाली होती है। लेकिन प्याज और पेट्रोल की मार से जजर-बजर हो रहे आम आदमी के लिए तो दिवाली के यह बोनान्जा ऑफर शादी रुपी उस लड्डू की कहावत को ही चरितार्थ करते हुए प्रतीत होते, यानि 'जो खाए वो पछताए और जो न खाए वो भी पछताए'।