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पुतलों का सम्मेलन

व्यंग्य

हमें फॉलो करें पुतलों का सम्मेलन
जगदीश ज्वलंत
ND
राजनीति में पुतलों का उतना ही महत्व है जितना प्रजातंत्र में मतदाता का। दोनों की परिणति अंततः जलने में होना है। पुतले बाहर से जलते हैं और मतदाता अंदर से। जलते पुतलों को देख मतदाता इतने प्रसन्न होते हैं कि कभी-कभी स्वयं ही उन्हें जलाने लगते हैं। तब ठठाकर हँसने लगता है उनके अंदर का पुतला। शायद कहना चाहता हो- 'क्यों सजातीय को जला रहा है मूरख। उसमें घास भरी है, तो तुझमें भूसा। दोनों से वैचारिक-कार्बनिक रसायन ही निकलेगा। परिणामतः सिर्फ प्रदूषण।'

पुतलों में आत्माएँ नहीं होतीं, इसलिए उनके शरीर जलते हैं। लेकिन इधर आत्माएँ होती हैं। अमर होने के कारण उन्हें बार-बार जलाया जाता है। जलती आत्माओं पर कोई रोटी सेंकना चाहता है तो कोई बीड़ी सुलगाना। आँच दिखी नहीं, कि दौड़ पड़ते हैं तापने वाले। एक समूह इसी प्रतीक्षा में रहता है कि कहीं कुछ जले और चलें।

बुझाने का सारा पानी तो वे कभी का पी चुके हैं। चुल्लूभर भी नहीं छोड़ा। ताकि कोई सद्विचारों से ग्लानिग्रस्त डूब न जाए। इसी भीड़ की माँग पर पुतला विक्रेताओं ने भाँति-भाँति के पुतले बाजार में ला खड़े किए। विवादास्पद बयान हुआ नहीं, कि बिक्री शुरू।

'क्यों, बड़ा बनठन के खड़ा है। नया आया है?' सड़क किनारे रखे सारे पुतले चौंक गए- 'कौन बोला?' एक मरियल-सा पुतला जिसके कमजोर पैरों में होली की फटी-पुरानी पेंट फँसा रखी थी और जिस पर बदरंगी टी शर्ट। उसी से आवाज आई, 'मार्किट में अपुन सबसे पुराने हैं। साथ के सारे जल गए। किसी माई के लाल में हिम्मत नहीं कि अपुन को जला दे। पेंट के पीछे गुड़ जो चिपका है। इस कारण कुत्ते सदैव मेरा जलाभिषेक करते हैं। सच कहता हूँ, कुत्तों से मिलकर रहोगे तो कभी नहीं जलोगे। कुछ चटाओ...।'

वह और कुछ कहता कि बीच में ही नया बनठन के खड़ा पुतला बोल पड़ा, 'लेकिन सर, हमें बनाया ही जलने के लिए है।' बेवकूफ, आदमियों जैसी बातें मत कर। आदमी भी तो मरने के लिए हैं तो सब मर क्यों नहीं जाते? तूने मुझे सर कहा, तो आगे और सुन ले। बोलना सीख। कई पुतले सिर्फ इसलिए नहीं जल पाए क्योंकि वे बोलना सीख गए। तेरी तो अभी लंबी उमर है। दिखने में भी युवा नेता जैसा लगता है। आगे बढ़ और ट्राय कर। नहीं बोलने वाले जलते हैं, और बोलने वाले जलाते हैं। तू जलना चाहता है या जलाना?'

बड़ी असमंजस की स्थिति थी। बेचारा क्या जवाब देता? उसे लगा नगर पालिका से लेकर संसद तक पुतले ही पुतले हैं। डोर किसी और के हाथ में। पुतलों में प्राण नहीं होते, लेकिन डोर हिलते ही थिरकने लगते हैं। वह बिकने वाला पुतला था, लेकिन प्रजातंत्र के बाजार में कौन नहीं बिकता? सभी तो बिकाऊ हैं।

ईमानदार स्वयं का काम निःशुल्क होने की शर्त पर बिकते हैं, तो बेईमान खुलेआम। उसे स्वयं के पुतला होने पर गर्व हुआ। अभी तक वह साँस लेने वालों को पुतला नहीं मानता था। लेकिन अब उसके दृष्टिकोण का विस्तार हो चुका था। साँसों का क्या है, उधार ले लूँगा। हार नहीं मानूँगा। लंबी उम्र है मेरी।

वह जोर से चिल्लाया, 'जलाना। सर, मैं जलाना चाहता हूँ।' सुनकर सारे पुतले चौंक गए। सभी ने उसकी ओर आँखें फाड़कर देखा। इस नवोदित में इतनी दृढ़ता, इतना आत्मविश्वास! फैलते सीने से उसकी शर्ट फसकने लगी। वह खड़ा हुआ और आकाश को घूरता हुआ राजधानी की दिशा में चल पड़ा। तेज और तेज कदमों से चलता चला जा रहा था। सब उसे निहार रहे थे।

समाज में बिरले ही होते हैं जो अपनी जन्मपत्री पर जूता मारकर उसी जूते को हाथ में लेकर उसे पूज्य बनाकर लक्ष्य के शिखर पर टाँग देते हैं। थके-हारे सारे जलनोन्मुखी पुतलों के लिए आज ऐतिहासिक क्षण था। लेकिन सभी को एक यही भय था कि कहीं यह गर्मजोशी में कुछ ऐसे बयान न दे मारे कि हम सबको एक साथ जलना पड़े। यदि जल गए तो भावी युवा नेतृत्व हेतु दूसरा पुतला कहाँ से मिलेगा?

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