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व्यंग्य रचना : गुजारता दिन गरीब

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जब से हमने अक्षरों को पहचानना सीखा तब से हमें 'ग' से गधा, गमला, गागर या फिर और अधिक हुआ तो गाय बताया गया जिसको आज तक हम नहीं भूले। मुझे आश्चर्य होता है कि बताने वालों ने हमें 'ग' से गरीब क्यों नहीं बताया? जबकि गरीब ही गरीब दिखाई देते हैं चारों तरफ, ऐसा कोई शहर या गांव नहीं जहां गरीब न दिखाई दें।

भारत गरीबों का मुल्क है, गरीब इसका आधार है जिस पर सारा देश टिका है लेकिन सबसे अधिक उपेक्षित है तो वह है गरीब। बेचारा जिस सड़क या इमारत बनाने में खून-पसीना पानी की तरह बहाता है उसमें उसका कोई नामो-निशान तक नहीं होता, उद्घाटनकर्ता का नाम बड़े-बड़े अक्षरों में कीमती पत्थरों में अंकित कराया जाता है। गरीब सारी जिंदगी गुमनाम रहता है। मानकों की मानें तो देश में गरीब नाम का कोई जंतु है ही नहीं।

अब आप कहेंगे कैसा सिरफिरा राग आलाप रहे हैं जनाब, जहां नज़र दौड़ा दो वहीं दो-चार गरीबों से मुलाकात न हो ऐसा कभी सपने में भी नहीं सोच सकते।

अरे हां भाई साहब! लगता है अभी तक आपने अमीरों वालों चश्मा नहीं आंख पर चढ़ाया वरना मेरी बात पर आंख खोलकर विश्वास कर लेते। मानक चिल्ला-चिल्लाकर बता रहे हैं कि भारत गरीबों का देश नहीं बल्कि रइसों का मुल्क है। जो बत्तीस रुपए में दिन-रात काट ले वह गरीब थोड़े कहा जाएगा।

सावन के अंधे को हरा-हरा ही सूझता है। संसद की वी.वी.आई.पी. कैंटीन में दस-पंद्रह रुपए में भरपेट बिरयानी-पुलाव या फिर खीर-पूड़ी खाने वाले मानक निर्धारकों को क्या पता कि गरीबी क्या चीज है? दिन भर जी तोड़ मेहनत करने के बाद जब कोई गरीब मजदूर सब्जी की दुकान पर जाकर आलू-प्याज-टमाटर के दाम पूछता है तो कान खड़े हो जाते हैं। वह केवल सब्जियों के दर्शन मात्र से तृप्ति महसूस कर लेता है और उसका परिवार नाम सुनकर।

बेचारा सोचता है 'अगर मैं इनको खरीदूंगा तो अन्य चीजे कैसे लूंगा? क्या कच्ची सब्जियां ही खाकर रात काटेंगे?'

यही सोचकर गरीब मन मारकर 10-15 रुपए की मिर्चियां खरीदकर चटनी बना लेता है और उसी से चावल या रोटियां आराम से खा और खिला देता है। गरीब के बच्चे भी समझदार होते हैं, जिद करना तो जानते ही नहीं। करें भी तो कौन पूरी होंगी? यह बात वे भली-भांति जानते हैं।

सुबह उन्हें पिज्जा-बर्गर नहीं बल्कि बासी रोटियां थमा दी जाती हैं, जिन्हें वे बड़े ही चाव से छीन-झपटकर खाते हैं। गरीब सारी जिंदगी अर्ध नग्न रहता है, किसी तरह अपने तन को ढंक ले यही सबसे बड़ी बात है। बेचारा गरीब पूरे जीवन आधा पेट खाकर और आधा पहनकर गुजारा करते हैं। सपना देखना गरीब की आदत होती है। सपने में तो वह राजभोग का आनंद उठा लेता है परंतु हकीकत में इन सबसे दूर। गरीब की जिंदगी वैसे तो बदरंग होती है लेकिन उसका संबंध रंगों से बहुत ज्यादा होता है। गरीबी की रेखा पता नहीं किस रंग की है किंतु ऊपर वाले पीले कार्ड वाले और नीचे वाले सफेद एवं लाल कार्ड वाले कहलाते हैं।

सफेद-लाल कार्ड वालों को हर माह गेहूं-चावल सरकारी राशन की दुकान से दिया जाता है। लगता है सरकार भी जानती है कि गरीब के पेट की आग इतनी प्रबल होती है जो सबकुछ जला यानी पचा सकती है, तभी तो सड़ा-गला दिया राशन जाता है। वह भी अगर दो माह लगातार मिल जाता है तो गरीब भगवान का शुक्रिया अदा करता है।

गरीब सच्चा कर्मयोगी होता है 'कर्म ही पूजा है' के सिद्धांत पर चलता है। दिनभर काम करके थक हारकर रात में भरपूर नींद लेता है उसे नींद की गोलियां नहीं लेनी पड़ती हैं। गरीब अपने बच्चों को होमवर्क की जगह खेतवर्क या फिर ढाबावर्क सिखाता है। क्या करे पेट पूजा के अलावा काम न दूजा। मानसिक भूख से जरूरी है पेट की भूख मिटाना। 'पेट के भूगोल में उलझा हुआ है गरीब।'

उसे क्या पता देश-दुनिया में क्या घटित हो रहा है? मुझे बहुत दुख है कि जिनके जीवन पर लिख रहा हूं वे गरीब पढ़ भी नहीं पाएंगे। गरीब को किसी तरह दिन काटने की पड़ी है।

परिचय-
- पीयूष कुमार द्विवेदी 'पूतू'
स्नातकोत्तर (हिंदी साहित्य स्वर्ण पदक सहित), यू.जी.सी.नेट (तीन बार) विशिष्ट पहचान- शत प्रतिशत विकलांग रचनाएं-अंतर्मन (संयुक्त काव्य संग्रह), विभिन्न राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।
संपर्क-
ग्राम-टीसी,पोस्ट-हसवा,जिला-फतेहपुर (उत्तर प्रदेश)-212645
मो.- 08604112963
ई.मेल-[email protected]

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